-विजय बहादुर सिंह

पिछले छह सात सालों में सत्तर सालों में जो कुछ भी नागरिकता के नाम पर हमें लड़ भिड़कर मिल पाया था वह सब बेहद क्रूर चालाकियों द्वारा हमसे छीन लिया गया है। जैसे कि हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, इस बारे में डा. कफील का उदाहरण सामने है। हमारे मीडिया का वह भरोसेमंद चरित्र जिसे अब भाँड़मंडली में बदल दिया गया है। हमारे न्यायालय, हमारी सी बी आई, जिसे पहले ये ही लोग तोता कहते थे, अब उस तोते को केन्द्रीय सरकार के मुखौटे में बदल दिया गया है। वे सारी नागरिकताएँ जिन पर हमें अपनेआजाद नागरिक होने का गर्व और भरोसा था, वह सब भरोसाहीन कर दिया गया है।

इतना ही क्यों अब तो सांसदों से कोरोना के बहाने सवाल पूछने का हक भी छीन लिया गया गया है।

याद करिए हमारा वह लाल किला, जिसे शाहजहाँ ने बनवाया था, अब किसी ठेकेदार के हवाले कर दिया गया है। हमारी वह रेल जो हमारे द्वारा चुकाए गए कर से बनी थी,उसके सारे विकास में हमारा पैसा लगा था, अब बेची जा रही है। जनता की संपत्ति को पूँजीपतियों के हवाले की जा रही है। जनता की कमाई से बनाई गईं इन राष्ट्रीय संपदाओं को प्राइवेट कंपनियों के हवाले कर हमें एक ऐसी व्यवस्था की ओर ले जाया जा रहा जिसमें हमारी सुविधाएं ही नहीं, हमारी नौकरियों के उन अधिकारों को भी छीना जा जा रहा जिनमें हमारे जीने और मरने को चंद पूँजीपति और उनके मैनेजर तय करेंगे। तब पेंशन भी मिलेगी या नहीं, हम अपने देश के स्वतंत्र अधिकार प्राप्त नागरिक रह भी पाएँगे या नहीं यह आप सोचें। एक ओर एक दो सालों तक सांसद रहकर आजीवन पेंशन कबाड़ेंगे दूसरी ओर तीस पैंतीस साल की सेवा कर चुकने के बाद भी पेंशन पाने का हक हमारा नहीं बचेगा।

सोचें कि इन सांसदों और मंत्रियों को क्या हमने यही कारनामे करने के लिए चुना और भेजा था या अपने अधूरे रहे सपनों को पूरा करने के लिए?

यह कहते हुए बेहद पीड़ा महसूस कर रहा हूँ कि ये हमारे चुने हुए प्रतिनिधि हैं या हमारे देश और समाज के मालिक? और हम इनकी बेबस प्रजा।तय करिए कि मालिक हम हैं या हमारे ये प्रतिनिधि?

अफसोस इन दिनों मध्यवर्ग के सुविधाजीवी समूहों को भयानक आत्ममुग्धता घेरे हुए है। पेट भर खाने पीने ,ऐशो आराम से जीने को ही ये परमपुरुषार्थ मान बैठे हैं। अपना चेहरा ही इन्हें दुनिया का सबसे खूबसूरत चेहरा और सामाजिक सच समझ में आ रहा। और उधर हमसे हमारा स्वदेश और हमारी वे स्वाधीनताएँ छीनी जा रहीं जिन्हें पूज्य लोकमान्य तिलक ने हमारा जन्मसिद्ध अधिकार कहा था और हम बेखबर हैं।

(विजय बहादुर सिंह हिंदी के प्रसिद्ध लेखक हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)