अनिल सिंह कुशवाह. मैं नर्मदा हूँ, आज मैं बहुत खुश हूँ लेकिन थोड़ी दुखी भी। खुशी के तो असंख्य कारण है मेरे पास। लेकिन दुःख का सिर्फ एक कारण है। मेरा बेटा 6 माह का मेरा साथ छोड़कर अपने काम पर चला गया। अकेला कहां आया था वह… अपने साथ मेरी प्यारी बेटी को भी लाया था, और 300 मेरे प्यारे बच्चों को भी। छहः माह से कितना भरा-भरा लग रहा था मेरा घर। आज वह 3100 किलोमीटर की मेरी परिक्रमा करके सबको लेकर चला गया, मेरे घर को सूना करके।

लेखक- अनिल सिंह कुशवाह
लेखक- अनिल सिंह कुशवाह

कितना इंतजार किया था मैंने उसका। बीस साल पहले मण्डला के सर्किट हाउस में एक रात मेरी उससे बात हुई थी। उसने आने का वादा किया था मुझसे। कहा था कि माँ, मैं तुझसे मिलने जल्द आउंगा। उसका इंतजार करते-करते मेरी आँखें पथरा गई। मुझे तो भरोसा था कि वह जरूर आएगा, क्योंकि वह जो कहता है, करता है। भरोसेमंद है मेरा बेटा। और जब 20 साल बाद वह 6 महीने के लिए आया तो मैं उससे जुदाई को कैसे बर्दाश्त कर सकती हूँ! बस इतना ही दुःख है मुझे। माँ जो हूँ उसकी। इसलिए भावनाओं में बहकर कह रही हूँ। वैसे मैं सब जानती हूँ…वह मजबूर था..उसके पास जिम्मेदारियों का पहाड़ था। लेकिन जब मेरा बेटा आया, तो सिर्फ मेरे लिए आया। भले ही वह चला गया हो, लेकिन अपनी माँ को कभी नही भूल सकता।

मेरी आँखें डबडबा रही है। उसने मुझ तक आने में बहुत कष्ट उठाये। उसके पैरों में बड़े-बड़े छाले पड़ गए। उसकी आंखें सूज गई थी। लेकिन खुद के प्रति बहुत कठोर है वह। जिद्दी जो ठहरा। जो कहता है, करता है। उसकी कथनी और करनी में भेद नही है, वह इसीलिए मुझे अतिप्रिय है।  उसने अपनी तकलीफों को किसी के साथ बांटा तक नही।  दूसरों के प्रति बहुत नरम है वह। मेरा बेटा जो है… मुझे अब उसके जाने के बाद उसके साथ बिताए लम्हे याद आते है।

दशहरे के दिन जब वह मुझसे मिला तो बहुत खुश था। मैं भी बेटे को देखकर अपनी खुशी को संभाल नही पा रही थी। लेकिन जब मैंने देखा कि वह अपनी संगिनी को भी साथ लाया है, तो मैं सिहर गई। कितनी कोमल है वह और मेरे रास्ते कितने जटिल! दोनों ने माथे पर त्रिपुण्ड लगाकर, वैदिक मंत्रोच्चार के साथ, मेरी लाल ध्वजा को अपने कंधे पर थामे, जब मेरी परिक्रमा प्रारम्भ की तो उसके भक्तिभाव को देखकर मुझे अपार हर्ष हुआ। वह तप करने निकला था, तप करके चला गया लेकिन हजारों लोगों को मुझसे जोड़ गया।

उसने दशहरा, दीवाली, मकर संक्रांति, महाशिवरात्रि, होली, रंगपंचमी, नवरात्रि और रामनवमी जैसे सारे पर्व मेरे साथ मनाए। नरसिंहपुर और होशंगाबाद में उसने मेरे शांत रूप को देखा तो गुजरात मे मेरे वृहद रुप को भी देखा। मेरी सिमटती हुई धारा को देखा तो मेरे छलनी कर दिए गए वक्षस्थल को भी देखा। मैं उससे अपना दर्द छुपाना चाहती थी लेकिन कैसे छुपाती। वह अपनी पत्नी के साथ मेरे किनारे पर चलने की जिद पर अड़ा था। आखिर उसने मेरा वह स्वरूप भी देख लिया जिसे बताते हुए मुझे शर्म आती है। मुझे मध्यप्रदेश की जीवनरेखा कहा जाता है लेकिन कतिपय स्वार्थी तत्वों ने मानों मेरी जीवनरेखा मिटाने का संकल्प ले रखा हो। मेरी कोंख को चीरकर मेरे अस्तित्व की रक्षा करने वाली रेत को मशीनों से अंधाधुंध निकाला जा रहा है।

वह सब कुछ अपनी आंखों से देखकर गया है। मुझे उसके जाने का गम नही। क्योंकि मुझे विश्वास है कि वह  अपनी माँ पर हो रहे अत्याचारों से उसे जल्द मुक्ति दिलाएगा। मुझे विश्वास है कि वह मेरी महिमा को क्षीण नही होने देगा। मुझे विश्वास है कि वह अपने नाम के मुताबिक चारों दिशाओं पर विजय प्राप्त करेगा। मैं उसे उसके नाम के मुताबिक”दिग्विजयी” होने का आशीर्वाद देती हूँ।

आप सबकी
मेकलसुता नर्मदा

(यह लेखक के निजी विचार हैं )