रायपुर. आइये अपने उस शहर के उन दरवाजों को खोलें जो न जाने कब से बंद हैं. दरवाजा खोलते ही आप उस अतीत में चले जाएंगे जहां इस शहर में कभी स्वामी विवेकानन्द अपने पिता के साथ रायपुर में बूढ़ापारा स्थित भूतनाथ डे के निवास पर रुके थे. इसी तरह गांधी जी दो बार आए और पहले प्रवास में अब के गांधी चौक पर सभा की थी.

ये सर्व विदित है पर क्रांतिकारी वैशम्पायन जो आजाद के प्रमुख सेनापति थे वो लम्बे वक्त तक रायपुर में अपने परिवार के साथ रहे थे. विश्वनाथ वैशम्पायन ने रायपुर के दैनिक ‘महाकौशल’ में आठ वर्ष काम किया. इस शहर के कुछ पुराने लोग क्रांतिकारी और शहीद चंद्रशेखर आजाद के इस साथी की चर्चा करते रहे होंगे.

कभी कुछ छपा भी होगा पर उस वक्त के मध्य प्रदेश और 8 साल जिस रायपुर शहर में उन्होंने पत्रकार के तौर पर गुजारे, इसका जिक्र बहुत ही कम हुआ. दरअसल जब यादों के पन्ने पलटेंगे तो पलटते ही जाएंगे और खत्म नहीं होंगे. इन यादों को एक-दो क्या सैकड़ों फेसबुक पोस्ट लिखकर भी पूरा नहीं किया जा सकता .

लगता है अतीत में तैरते रहें, डूबे रहे, खोये रहें. हमारा मन यहीं लगता भले ये घर पुराना है. इसी पर नींद आती है ये जो बिस्तर पुराना है. यादों में जो पुराना रायपुर बसता है उसकी यादें अक्सर बदलते मौसम के साथ ,बारिश की रिमझिम बूंदों के साथ अतीत में ले जाती हैं. उस अतीत के झरोखों से बारिश के कोहरों के बीच टिकरापारा के ठीक पहले गांवों से एक के बाद एक सजी-धजी बैलगाड़ियां आती दिखती हैं .

तब टिकरापारा रायपुर का मंदिर हसौद था .कालीबाड़ी के बाद ही घुप्प अंधेरा शुरू हो जाता और सिद्धार्थ चौक के बाद तो आप पगडंडियों से होते गांव चले जाइये. कालीबाड़ी से इधर आगे बढ़िए तो जो आज मालवीय रोड है वो कभी बेंसली रोड था और खाली पड़े इस रोड में एक तरफ कहीं भांजीभाई की दुकान तो दूसरी तरफ कहीं हबीब होटल और बेंसली रोड के अंदर आपका अपना गोल बाजार था. रोड पर बाबूलाल टॉकीज था.

वैसे ये समय तो हमने भी नहीं देखा पर जिन आंखों ने देखा, लिखा उसे पढ़कर सुनकर लगता है कितने सुनहरे दिन, कितने शांत दिन, कितने प्यारे दिन रहे होंगे. फूल चौक में डॉ अरुण दाबके के पिता डॉ.टी.एम. दाबके बैठते थे तो ठीक इस समय कालीबाड़ी के डॉक्टर आर .पी चौधरी अपनी बाल्य अवस्था में थे और चुस्ती फूर्ति के कारण राजा उन्हें ‘टार्जन’ की उपाधि दे रहे थे और आगे यही ‘टार्जन’ डॉक्टर बनकर रायपुर आने वाले थे. और पुराने समय में जाएं तो रायपुर से 500 km दूर दमोह में 30 नवंबर 1919 को एक ऐसा बच्चा जन्म ले रहा था जो आगे चलकर मेहनतकश वर्ग के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाला था .

ये बच्चा दमोह से बिलासपुर और बाद में रायपुर आकर सेंटपॉल्स स्कूल में कक्षा नवीं में भर्ती होता हैं और आगे रायपुर में ही अपने क्रांतिकारी दोस्त परसराम सोनी के साथ छात्र आंदोलन के माध्यम से आजादी की लड़ाई में शामिल होता है. ये कोई और नहीं सबके दादा सुधीर मुखर्जी ही थे. सुधीर मुखर्जी ने आगे मेहनतकश वर्ग के लिए अपना जीवन समर्पित किया.उनकी एक ऐतिहासिक भूमिका रही .

यह उल्लेखनीय हैं कि, सिद्धार्थ चौक पर गैस एजेंसी वाले अजय सोनी जी के पिता महान देश भक्त ,स्वाधीनता संग्राम सेनानी परस राम सोनी चटगांव शस्त्रागार काण्ड के क्रांतिकारियों को हथियार बनाकर देने वाले बिहार के प्रसिद्ध लुहार गिरिलाल से पिस्तौल और बम बनाना सीखते हैं , ये ही परसराम सोनी और सुधीर मुखर्जी जैसों का एक समूह बनता है.

क्रांतिकारियों का ये समूह आज के मालवीय रोड में किसी होटल में सशस्त्र क्रांतिकारी गतिविधियों को आगे बढ़ाने का प्लान करता है. सन-1942 में सुधीर मुखर्जी, परसराम सोनी सहित 11 लोगों को जेल में डालकर ” रायपुर षड्यंत्र केस ” के नाम से मुकदमा चलता है. इस मुकदमे के बाद परस राम सोनी को 7 वर्ष, गिरिलाल को 8 वर्ष की कड़ी सजा, सुधीर मुखर्जी को 2 साल, देवीकान्त झा, सुरेंद्र नाथ दास और दशरथ चौबे को एक- एक साल की सख़्त कैद और रणवीर सिंह शास्त्री भी महीनों के लिए हिरासत में लिए गए .ये रायपुर षड्यंत्र केस था .

ये वो आजादी के दीवाने थे, जिन्होंने देश के लिए यातनाएं सही.अतीत के झरोखों से जब भी रायपुर देखता हूं तो मैं इसे परसराम सोनी ,सुधीर मुखर्जी से लेकर तमाम उन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का शहर मानता हूं. जिनकी शहादत, मेहनत, खून -पसीने से आजादी मिली. शहर के लोगों बस हमें इतना ही करना हैं यातनाएं झेलकर -कष्ट सहकर, कुर्बानियां झेलकर जो खुशियाँ इस शहर के क्रांतिकारियों-सेनानियों ने हमें दी हैं. जो सपने उन्होंने देखे बस उस पर पानी न फेरें. आइये पूरी एकजुटता से मिल जुलकर रायपुर की शांत परम्परों को बचाये रखें.