रायपुर। 2013 का साल प्रदेश में कांग्रेस की अंदरुनी सियासत के लिहाज़ और से कई मोड़ लेकर आया. मई 2013 में कांग्रेस ने अपने नेताओं की पूरी एक पीढ़ी नक्सली हमले में गंवा दी, इसी साल दिसंबर में हुए विधानसभा चुनाव में पूरी संभावना के बाद भी कांग्रेस सत्ता में आने से तीसरी बार चूक गई. इसी के साथ प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर चरणदास मंहत और नेता प्रतिपक्ष के तौर रविंद्र चौबे का नेतृत्व भी चूक गया था. अब पार्टी के सामने नेतृत्व को लेकर कुछ ही विकल्प बचे थे. संगठन खेमे और जोगी के बीच समन्वय बिठाने की नीति को आगे बढ़ा जाए या फिर अजीत जोगी को ही कमान सौंपकर फ्री हैंड दे दिया जाए. लेकिन यहां कांग्रेस की कमान अघोषित तौर पर संभाल चुके राहुल गांधी ने एक बड़ा फैसला किया. राहुल ने छत्तीसगढ़ में फ्री हैंड देकर राज्य की कांग्रेस की राजनीति आगे बढ़ाने का फैसला तो किया लेकिन ये फ्री हैंड अजीत जोगी को नहीं दिया. बल्कि उनके सबसे बड़े और कट्टर विरोधी भूपेश बघेल को आगे कर दिया. वो भूपेश बघेल, जिनका अजीत जोगी के साथ अहम का टकराव था.

इस फैसले के साथ राहुल गांधी ने प्रदेश के नेताओं और कार्यकर्ताओं को संदेश दे दिया कि 2018 का चुनाव किस रणनीति से लड़ा जाएगा. राहुल गांधी ने भूपेश बघेल के साथ टीएस सिंहदेव को नेता प्रतिपक्ष के रुप में जोड़ा.

भूपेश के अध्यक्ष बनने के बाद कई चुनौतियां सामने थी. उन्हें पार्टी के बाहर रमन सिंह की ताकतवर सल्तनत से निपटना था तो पार्टी के भीतर जोगी, महंत, सत्यनारायण, चौबे जैसे नेताओं के अहम से संतुष्ट करते हुए चलना था. संगठन बिखरा हुआ था. जो नेता मई 2013 में दरभा में शहीद हो गए थे उन्हें किस नेता के साथ रहना है, ये बात समझ नहीं आ रही थी. तीन बार की सत्ताधारी बीजेपी राज्य में बेहद ताकतवर हो चुकी थी. उनका संगठन मोहल्लों तक पहुंच चुका था. भूपेश बघेल के पास अपनी कोई बड़ी टीम नहीं थी.

विनोद वर्मा बताते हैं कि उन्होंने इन हालात में कैसे आगे बढ़ने का फैसला किया. बकौल वर्मा- ‘उन्होंने पहले दिन से जो रूपरेखा बनाई वो संघर्ष की लाइन थी. उनकी रणनीति सड़क पर उतरने की थी और उन्होंने पूरे प्रदेश के कांग्रेस कार्यकर्ताओं को सड़कों पर उतार दिया. फिर चाहे वह गर्भाशयकांड हो या फिर चाहे वह अंखफोड़वा कांड. फिर चाहे वह राशन कार्ड की कटौती का मामला हो. कोई भी मामला हो, उन्होंने तय किया कि हम सड़क पर उतरकर आंदोलन करेंगे. वह हमारा लोकतांत्रिक अधिकार है और उस लोकतांत्रिक अधिकार का भरपूर उपयोग हम करेंगे. वो रास्ता गांधी जी ने हमें दिखाया था. भूपेश बघेल गांधी जी को आदर्श के रूप में लेकर चल रहे थे कि अगर आप की लड़ाई किसी से है तो अहिंसक तरीके से अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का उपयोग करते हुए सड़कों पर उतरकर लड़ो. उस वक्त तक कांग्रेस आंदोलन करना लगभग भूल चुकी थी. कांग्रेस को उन्होंने आंदोलन की पार्टी बना दी थी.

वहीं पार्टी के लंबे समय से कोषाध्यक्ष रहे रामगोपाल अग्रवाल याद करते हुए बताते हैं – ‘भूपेश बघेल के पास प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में कई चुनौती थी. एक तो भाजपा जैसे फासिस्टवादी पार्टियों से लड़ना था. दूसरा- जनता और पीड़ित पक्षों की सेवा करना. सारा वर्ग यहां पीड़ित था. किसान, गरीब, आदिवासी, पिछड़ा वर्ग, व्यापारी जगत सब परेशान थे. सब इस 15 साल के कुशासन से परिवर्तन चाहते थे. वे चाहते थे कि कोई नेतृत्व क्षमता सामने आए और हम बदलाव करे. उसी वक्त क्षमता के धनी भूपेश बघेल ने अध्यक्ष रहते हुए पदयात्रा कर पूरे प्रदेश को अपने कदमों से नापा. वे लोगों की समस्याओं से रूबरू हुए. फिर उसके हिसाब से कांग्रेस पार्टी की कार्ययोजना बनाई. जनता के हित के मुद्दों को लेकर भूपेश बघेल ने सड़क से लेकर सदन तक की लड़ाई लड़ी. उनके नेतृत्व क्षमता में जो जोश था उससे सभी कांग्रेसियों की उर्जा बढ़ी . भूपेश बघेल ने कांग्रेस की गुटबाजी को खत्म कर दिया.

जब वे अध्यक्ष बने तो संगठन में नियुक्तियों की राजनीति से निपटना उनकी पहली चुनौती थी. भूपेश बघेल ने सबसे पहली मोतीलाल वोरा के करीबी सुभाष शर्मा को हटाकर अपने करीबी गिरीश देवांगन को संगठन में प्रभारी महामंत्री बनाकर स्पष्ट संकेत दे दिया कि वे उनके लिए पार्टी के हित सर्वोपरि है. वे किसी को संतुष्ट रखने के लिहाज़ से फैसले नहीं लेने वाले हैं. भूपेश बघेल ने दूसरा झटका अजीत जोगी को दिया. कार्यकारिणी और जिलाध्यक्षों की नियुक्ति में जोगी के निष्ठावानों को कतई जगह नहीं दी. ये चर्चा आम होने लगी कि चरणदास महंत तीन-तीन बार अध्यक्ष रहने के बाद भी संगठन के पदों पर इतने लोगों को जगह नहीं दिला पाए.

भूपेश बघेल ने लोकसभा चुनाव में अपनी ताकत दिखाई. भले ही कांग्रेस 2014 में एक ही सीट जीत पाई लेकिन मोदी लहर में बिना संसाधनों के जीतना भी बड़ी बात थी. वो भी कद्दावर सरोज पांडेय के खिलाफ. दुर्ग से ताम्रध्वज साहू जीत गए जो तीन महीने पहले विधानसभा का चुनाव हार गए थे. कहा जाता है कि ताम्रध्वज को टिकट भूपेश बघेल ने दिलवाई. इसके बाद कांग्रेस ने ताम्रध्वज साहू को अखिल भारतीय पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया. इस बीच सड़क पर कांग्रेस ने लड़ाई जारी रखी.

इसके बाद राज्यसभा चुनाव में छाया वर्मा को जीताकर भेज दिया. जिसे चाहकर भी वे रायपुर की लोकसभा टिकट नहीं दिला पाए थे. 2015 के नगरीय निकाय चुनाव में उनके नेतृत्व में पार्टी को पहली बार बीजेपी के मुकाबले जीत मिली. इसी चुनाव में पार्टी के कार्यकर्ताओं को भूपेश बघेल ने ये संदेश दिया कि पार्टी से बडा व्यक्तिगत कुछ नहीं होता है. कांग्रेस प्रवक्ता सुशील आनंद शुक्ला बताते हैं कि जब रायपुर नगर निगम में कुछ पार्षदों को टिकट मिली तो भूपेश बघेल के पास जाकर कुछ लोगों ने शिकायत की. शिकायत ये थी कि लोकसभा चुनाव के दौरान जिन लोगों ने पार्टी में उनके खिलाफ नारेबाज़ी की थी. उनके दफ्तर में तोड़फोड़ की थी. उनको टिकट दी गई है. भूपेश बघेल ने शिकायत करने वालों को कहा कि मुझसे व्यक्तिगत नाराजगी अलग चीज है ये पार्टी के हित से बड़ी नहीं है. अगर कोई जीतने वाला व्यक्ति होगा तो टिकट मिलेगी ही.

भूपेश बघेल के सबसे करीबी गिरीश देवांगन उनकी इसी सोच से जुड़ा एक किस्सा बताते हैं. ये किस्सा राहुल गांधी और उनकी बातचीत का है. राहुल गांधी ने बस्तर की सभा में उनसे पूछा था कि ये बताईए कि आपमें और बाकी कांग्रेस के अध्यक्षों में क्या अंतर है. इस पर भूपेश बघेल ने कहा था कि वे इस बात को मानते हैं कि वे पार्टी से हैं. अगर पार्टी है तो वे हैं. इसलिए उनके लिए पार्टी सर्वोपरि है.

इधर, संघर्ष के मोर्चे पर भूपेश बघेल का अभियान जारी था. विधानसभा में भूपेश बघेल के तीखे हमले जारी थे. उनके सीधा हमले तबके मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह के खिलाफ होते थे. रमन सिंह को इतने तीखे हमले झेलने की आदत नहीं थी. सदन और सड़क पर भूपेश के रुख से रमन सिंह सरकार को समझ आ गई होगी कि आने वाले पांच साल आसानी से बीतने वाले नहीं हैं.

सड़क पर ज़ोरदार लड़ाई के लिए संसाधनों से जूझ रही कांग्रेस के लिए भूपेश ने पदयात्रा को हथियार बनाया. उन्होंने पहली मोर्चेबंदी नसंबदी कांड को लेकर की. बिलासपुर से रायपुर की पदयात्रा में पार्टी के अंदर ये बात स्पष्ट हो गई कि अब पार्टी को पूरे दमखम के साथ लड़ने वाला नेता मिल गया है. इसके बाद पदयात्राओं का दौर निकल पड़ा. भूपेश बघेल के साथ कांग्रेस ने राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी की अगुवाई में कोरबा और सरगुजा जिले में आदिवासी अधिकारों को लेकर पदयात्रा की. उन्होंने आने वाले वक्त में बस्तर, दुर्ग और रायपुर में संभाग में भी पदयात्राएं की. भूपेश बघेल इन पदयात्राओं के दौरान पार्टी के लिए उन नेताओं का चुनाव कर रहे थे जो भविष्य में पार्टी के लिए विधानसभा चुनाव लड़ सकें.

राजेश तिवारी भूपेश बघेल की पदायात्राओं पर कहते हैं – ‘मेरे खयाल से भूपेश बघेल ने जितनी पदयात्राएं की हैं. छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के ज़माने में किसी भी कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष ने इतनी पदयात्राएं प्रदेश के कोने-कोने में नहीं की है.

विनोद वर्मा कहते हैं – ‘इस तरह की राजनीति करने वाले देश में कम लोग हैं जो स्वयं के उदाहरण से यह बताते हैं कि यह राजनीति ऐसी होनी चाहिए. वे पदयात्रा खुद ही करते हैं. फिर यात्राएं भी इसी तरह से करते हैं. मुझे बीबीसी की कहानी याद आती है. वो तब की स्टोरी थी, जब वे मुख्यमंत्री बनने वाले थे . स्टोरी में बताया गया था कि भूपेश बघेल ने बतौर प्रदेश अध्यक्ष पौने तीन लाख किलोमीटर की यात्रा सड़क से की है. जबकि 5 साल में उन्होंने 1000 किलोमीटर की पदयात्रा की है. वे अपने कार्यालय में बैठकर निर्देश नहीं देते हैं. वह सड़क पर उतरते हैं और कहते हैं कि आंदोलन करते हैं.

भूपेश बघेल के अध्यक्षीय कार्यकाल में बड़ी घटनाक्रम अंतागढ़ का उपचुनाव था. जिसमें पार्टी के उम्मीदवार मंतूराम पवार ने अपना नाम वापिस ले लिया. भूपेश बघेल खुद रातोंरात कांकेर गए कि बाकी उम्मीदवार नाम वापिस न लें. लेकिन वहां उन्हें डराने का प्रयास हुआ. लेकिन भूपेश डरे नहीं. हालांकि तमाम कोशिश के बाद भी वे ज्यादातर उम्मीदवारों से नाम वापिस लेने से रोक नहीं पाए लेकिन भूपेश बघेल अकेले सत्ता से लोहा लेने चले गए थे. वहां उन्हें डराने के मकसद से प्रशासन और पुलिस ने कई हरकतें गतिविधियां की. लेकिन वे डटे रहे.

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इस मामले में नया मोड़ इस घटना से जुड़ी एक ऑडियो के सामने आने के बाद आया. इस ऑडियो में कथित तौर पर अमित जोगी, अजीत जोगी और रमन सिंह के दामाद पुनीत गुप्ता की बात थी. इस कथित बातचीत में ये बात सामने आई कि चुनाव में नाम वापसी के लिए पैसों का लेनदेन हुआ है. भूपेश बघेल ने विधायक रहे अमित जोगी को पार्टी से बाहर निकाल दिया. उन्होंने अजीत जोगी को पार्टी से निकालने के लिए अखिल भारतीय कांग्रेस से अनुशंसा कर दी. इसके बाद अजीत और कांग्रेस का रास्ता अलग-अलग हो गया. साल 2016 में अजीत जोगी ने खुद की पार्टी बना ली.

राजेश तिवारी बताते हैं – ‘धनबल, बाहुबल का प्रयोग करते हुए सारे लोगों के नामांकन वापस कराए गए. जिसमे कांग्रेस के प्रत्याशी भी थे. उसकी वजह से अंतागढ़ जैसी घटना सामने आई. उन्होंने सारे तथ्य जुटाए. आमतौर पर इस प्रकार की घटनाएं भुला दी जाती हैं. लेकिन ये बड़ा राजनीतिक षड्यंत्र हुआ था. प्रजातंत्र के साथ कुठाराघात करने का काम हुआ. तो भुपेश बघेल ने ठाना कि चाहे जो हो, जिसने प्रजातंत्र को नुकसान पहुंचाने का प्रयास किया है, जिसकी वजह से कांग्रेस पार्टी को शर्मिंदगी उठानी पड़ी थी, उन्हें पार्टी से बाहर किया जाना चाहिए.

इस बीच भूपेश बघेल का रमन सिंह की सरकार से संघर्ष जारी था. किसानों के मुद्दों को लेकर लगातार घेरा जा रहा था. आंदोलनों में बड़ी कामयाबी कांग्रेस को तब मिली जब धान खरीदी की सीमा रमन सिंह सरकार ने प्रति एकड़ 10 क्विंटल तक कर दी. कांग्रेस ने जोरदार प्रदर्शन किया. इसके बाद रमन सिंह सरकार को इसे बढ़ाकर 15 क्विंटल करना पड़ा. रमन सिंह सरकार को किसानों को 2400 रुपये धान का देने का चुनावी वादा बार बार याद दिलाया गया. किसानों की आत्महत्या, उनकी बदहाली के मुद्दे भूपेश बघेल जोर शोर से उठाते चले गए. नान घोटाले को भी कांग्रेस ने ज़ोरशोर से उठाया. भूपेश बघेल ने रमन सिंह की छवि चाउर वाले बाबा से किसान विरोधी और वादों को पूरा न करने वाले मुख्यमंत्री की बना दी.

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साल 2017 के आते-आते चट्टान की तरह जमी भाजपा सरकार पर तीन साल तक भूपेश बघेल हथोड़े-पर हथौड़ा मारते जा रहे थे. अब बारी इसके दरकने की थी. ये मौका खुद रमन सरकार ने दे दिया. स्थानीय किसान की शिकायतों पर रमन सिंह सरकार ने भूपेश बघेल की ज़मीनें नपवाई. भिलाई के जिस मकान में भूपेश बघेल रहते थे, जोगी कांग्रेस के विधान मिश्रा की शिकायतों पर उनके खिलाफ ईओडब्ल्यू में रिपोर्ट दर्ज की गई. इस कदम से नाराज़ भूपेश बघेल ने जो राजनीतिक स्टैंड लिया, उसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी. भूपेश बघेल अपनी मां-पत्नी के साथ ईओडब्य्यू के दफ्तर पहुंच गए वे कहने लगे जांच करके कार्रवाई करो.

विनोद वर्मा कहते हैं कि कभी नरेंद्र मोदी ने आपको आंख दिखाकर बात नहीं की होगी. भूपेश बघेल के खिलाफ जितनी बार एफआईआर हुई. वो हर मामले में वह खड़े हैं. ईओडब्ल्यू के मामले वह पूरी फाइल लेकर अपनी बीमार मां और पत्नी के साथ पहुंचे थे. उन्होंने साफ कहा कि या तो इसकी जांच करो या तो मुझे पूरे परिवार के साथ गिरफ्तार कर लो. इसी तरह जब सीडी मामले में जेल गए तो उन्होंने कहा कि मुझे फसाने का षड्यंत्र किया गया है. मैं वकील नहीं कर रहा हूं. मैं जेल जाऊंगा. इस प्रदेश की जनता को तय करना है कि मैं दोषी हूं या निर्दोष हूं. एक राजनेता को दरअसल जो है अपनी जनता पर भरोसा होना चाहिए और उन पर कूट कूट कर भरा हुआ है.

जब वे जेल गए और बाकी कांग्रेस सड़क पर आ गई. जगह-जगह प्रदर्शन होने लगे. इस मामले तक पूरी कांग्रेस उनके पीछे आकर खड़ी हो गई थी. यूथ कांग्रेस और एनएसयूआई उनके लिए नारा लगाती थी- ‘खाबो लाठी जाबो जेल हमर नेता भूपेश बघेल’. चुनाव के आते-आते भूपेश बघेल प्रदेश की राजनीति के सबसे बडे चेहरे बन चुके थे.

इस बीच, भूपेश बघेल ने वर्षों से लंबित पड़े कांग्रेस भवन का भूमिपूजन और उसका निर्माण कराकर ये संदेश भी दे दिया कि वो सिर्फ लड़ने वाले नेता नहीं है बल्कि सालों से लटके काम को कम संसाधनों के साथ भी पूरा करा सकने का माद्दा रखते हैं.

अपने पांच साल के कार्यकाल में कांग्रेस को नए चेहरे देने का काम भी भूपेश बघेल कर रहे थे. डॉ राकेश गुप्ता को उन्होंने और सक्रिय होने को कहा. मीडिया के काम के लिए वे बीबीसी के पूर्व पत्रकार और अमर उजाला डिजिटल के वरिष्ठ पत्रकार विनोद वर्मा को ले आए. चुनाव से ठीक पहले उन्होंने प्रदेश के सबसे ईमानदार और पत्रकारों के बीच बेहद लोकप्रिय रुचिर गर्ग को जोड़कर रायपुर दक्षिण से लड़ाने का फैसला किया.

भूपेश केवल संभ्रात समाज के लोगों को पार्टी से जोड़ रहे थे. वे समाज के गरीब तबकों से आने वालो को पर्याप्त मौके देते जा रहे थे. जांजगीर-चांपा जिले में उन्होंने भूमिहीन लेकिन ज़मीन पर बेहद तगड़ी पकड़ रखने वाले बसपा के रामकुमार यादव को लेकर बसपा के गढ़ में कांग्रेस की जीत सुनिश्चित कर दी. अपनी पदयात्राओं के दौरान जिन लोगों की सक्रियता उन्हें दिखी, उन्हें टिकट वितरण में मौके दिए. लोक कलाकार कुंवर सिंह निषाद, छन्नी साहू, शकुलंता साहू जैसे लोगों को मौके उन्हीं की वजह से मिले.

भूपेश बघेल जानते थे कि पार्टी में अनुशासन और संगठन को मज़बूत करने के लिए उन्होंने कडे फैसले लिए हैं. वे जिस साफगोई से बात करते हैं उससे कई लोग नाराज़ होते हैं. ऐसे लोगों को मनाने के बारे में प्रभारी महासचिव पीएल पुनिया के साथ रणनीति बनाई. दोनों नेताओं के समन्वय से हर जगह कांग्रेसी अपनी बात कहकर पार्टी के साथ जुड़ रहे थे. हर क्षेत्र में राहुल गांधी के दौरों ने उनके बीच ऊर्जा का संचार कर दिया था. राहुल गांधी ने तय किया कि पार्टी सामुहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ेगी. इसलिए सब मिलजुलकर चुनाव लड़े.

पार्टी की बड़ी समस्या थी कि चुनाव में बूथ स्तर पर कार्यकर्ता कांरेस के नहीं रहते…इस खामी को दूर करने के लिए बूथ स्तर पर पदाधिकारियों का गठन किया गया.

मुख्यमंत्री के सलाहकार राजेश तिवारी कहते है कि मैंने अपनी राजनीतिक जीवन में देखा है कि किसी ने भी बुथस्तर पर कार्यकर्ताओं को जोड़ने का काम उनको खड़ा करने काम नहीं किया. इस सबंध में भुपेश बघेल से चर्चा हुई हम दोनों निचले स्तर से राजनीति में साथ मे आये थे ये बात हमे पता है कि छोटे स्तर के जो कार्यकर्ता है उनकी पूछ परख नहीं होती. हमारी बातों व विचारधाराओं को ले जाने वाले बुथस्तरिय कार्यकर्ता है जब तक हम उसको संगठित करने का काम नहीं करेंगे क्योंकि ये कार्यकर्ता किसी नेता के साथ जुड़े होते है उन्हें लगता है कि हम किसी नेता के साथ जुड़ेंगे तब हमें राजनीति में आगे बढ़ने का मौका मिलेगा ये एक धारणा कांग्रेस में पहले थी. इस चीज को भुपेश बघेल ने महसूस किया कि हमे सबसे पहले बुथस्तर पर कांग्रेस पार्टी की ताकत को जुटाना पड़ेगा.

कार्यकर्ताओं को ट्रेनिंग दी गई. ट्रेनिंग के लिए टीम बनाई गई. प्रदेश की ज़्यादातर विधानसभाओं में ये प्रक्रिया अपनाई गई. इसका नतीजा हुआ कि 2018 में बीजेपी के कार्यकर्ता मौजूद रहे या नदारद रहे. लेकिन कांग्रेसी हर बूथ पर मुस्तैद रहे. ऐसा पहली बार हुआ.

आखिरकार नेतृत्व और उसके फैसलों ने असर दिखाया. पार्टी को तीन चौथाई सीटों पर जीत मिली. ये जीत पांच साल की मेहनत का नतीजा थी. जिसकी कल्पना बीजेपी क्या कई कांग्रेसियों को नहीं थी और ज़ाहिर तौर पर संघर्ष के शंहशाह को इसका इनाम मुख्यमंत्री के रुप में मिला.

https://youtu.be/FtiFRI5dC9E