जगदलपुर। बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व दशहरा बस्तर में भी धूमधाम से मनाया गया. वैसे तो श्रीराम हर साल रावण का दहन करते हैं, लेकिन बस्तर दशहरा में रावण का दहन नहीं किया जाता है.

नहीं होता है रावण दहन

बस्तर दशहरा की कई रस्में अपने आप में अनोखी हैं. ये दशहरा विश्वभर में अपने रीति-रिवाजों के कारण मशहूर है. 75 दिनों तक बस्तर दशहरा मनाया जाता है. यहां दशहरे के मौके पर रावण को नहीं मारा जाता है और न तो उसका दहन करते हैं.

15वीं शताब्दी से ये परंपरा चली आ रही है. बस्तर, ओडिशा, बंगाल और असम में मां आदिशक्ति की पूजा-अर्चना पूरे श्रद्धाभाव से की जाती है.

 

बस्तर प्राचीन काल में स्वतंत्र रियासत थी. यहां के राजा अपनी विजय के लिए दशमी के दिन तंत्र-मंत्र और शस्त्र पूजा कर देवी की पूजा करते थे. यही वजह है कि यहां रावण दहन नहीं होता. बस्तर दशहरा पूरी तरह से माता को समर्पित है. विजयादशमी पर विशाल रथ में मां दंतेश्वरी का छत्र विराजित किया जाता है.

बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी है और उनके प्रति भक्ति दिखाने के लिए बस्तर दशहरा मनाया जाता है. बस्तर दशहरा में कोई विघ्न नहीं पहुंचे, इसके लिए बस्तर रियासत के तत्कालीन महाराजा अन्नमदेव ने बस्तर वासियों को अलग-अलग जिम्मेदारी दे रखी थी. आज भी ये परंपरा निभाई जा रही है.

मान्यता के अनुसार, लगभग 4 फीट के गड्ढे में हल्बा जाति का एक युवक पूरे नौ दिनों तक बगैर कुछ खाए-पिए मां आदिशक्ति की आराधना में लगा रहता है. ऐसा माना जाता है कि बस्तर महाराजा के प्रतिनिधि के रूप में वो निर्जला उपवास करता है. इस कठिन के तप के पीछे दशहरा पर्व को निर्विघ्न संपन्न कराना होता है.