रायपुर। पिछले 30 सालों से अचानकमार के जंगलों में कुटिया बनाकर आदिवासियों को शिक्षा देने वाले और दिल्ली विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर प्रभुदत्त खेड़ा का सोमवार को निधन हो गया. प्रोफेसर खेड़ा ने 91 वर्ष की उम्र में अपोलो अस्पताल बिलासपुर अपनी अंतिम सांसे ली.

उनके निधन पर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने उन्हें श्रद्धांजलि दी और उन्हें त्याग, संकल्प और निःस्वार्थ सेवा की प्रतिमूर्ति बताया है. सीएम भूपेश ने कहा, “अचानकमार के घने जंगलों के बीच 30 साल तक कुटिया बनाकर बैगा आदिवासियों के बीच शिक्षा का उजियारा फैलाने वाले, दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर डॉ. प्रभुदत्त खेड़ा के निधन की खबर सुनकर मन दुःखी है. डॉ खेड़ा त्याग, संकल्प और नि:स्वार्थ सेवा की प्रतिमूर्ति थे. विनम्र श्रद्धांजलि.”

फाइल चित्र- प्रोफेसर खेड़ा से अस्पताल में मुलाकात करते हुए सीएम भूपेश बघेल

बीमारी की खबर सुनकर देखने पहुंचे थे सीएम

प्रोफेसर खेड़ा लंबे समय से बीमार चल रहे थे. उन्हें बिलासपुर के अपोलो अस्पताल में भर्ती कराया गया था. उनके बीमार होने की खबर सुनने के बाद सीएम भूपेश बघेल 2 जनवरी 2019 को अपोलो अस्पताल पहुंचकर उनका हालचाल जाना था.

इसलिए कहते हैं मसीहा

छत्तीसगढ़ में रहने वाली बैगा जनजातियों के जीवन स्तर में सुधार लाने के लिए एक अध्ययन रिपोर्ट तैयार करने दिल्ली विश्वविद्यालय में पदस्थ प्रोफेसर खेड़ा 1983 में समाजशास्त्र के छात्रों के एक दल के साथ अचानकमार के जंगल पहुंचे थे. जहां बैगाओं के रहन-सहन, खान-पान और उनके सामाजिक परिवेश का अध्ययन कर उनके जीवन स्तर में सुधार लाने के लिए रिपोर्ट पेश करना था. बताया जाता है कि प्रोफेसर जैसे ही अचानकमार पहुंचे और आदिवासियों की यहां दुर्दशा देखी तो उनका मन द्रवित हो उठा और न तो उन्होंने भोजन किया और न ही वे उस रात को सो ही पाए.

अध्ययन पूरा होने पर जब दल वापस दिल्ली लौटने लगा तो उन्होंने जाने से इंकार कर दिया और एक सप्ताह की छुट्टी का आवेदन देकर दल को विदा कर दिये. यहां रहने के बाद वो वापस दिल्ली गए और दिल्ली विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्ति लेकर मुंगेली आ गए. जहां लमनी में एक कुटिया बनाकर यहीं निवास करने लगे. सेवानिवृत्त होने पर उन्हें जो भी पूंजी मिली उस पूंजी यहां आदिवासी बच्चों की शिक्षा पर खर्च कर दिये. प्रतिदिन वे 18 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर बच्चों के बीच पहुंचते थे. प्रोफेसर खेड़ा ने अपना पूरा जीवन आदिवासियों को शिक्षित करने और उनके स्वास्थ्य व जीवन स्तर को सुधारने में लगा दिया.

चना-मुर्रा वाले बाबा

प्रोफेसर खेड़ा इस पूरे इलाके में चना मुर्रा वाले बाबा के नाम से भी जाने जाते थे. 80 के दशक में झोपड़ पट्टी से उन्होंने यहां स्कूल की शुरुआत की. आदिवासियों को शिक्षा के महत्व को लेकर जागरुक किया. बच्चों को स्कूल से जोड़ने के लिए वे उन्हें शिक्षा देने के साथ ही चना-मुर्रा खाने के लिए देते थे, जिसके बाद बच्चे उन्हें चना मुर्रा वाले बाबा कहने लगे. वे जब भी बिलासपुर जाते तो बच्चों के लिए चाकलेट लेकर जाते थे.