एक ऐसा शख्स जिसने अपनी पढ़ाई लिखाई भी ठीक से पूरी न की हो और कम उम्र से ही गाठियां (एक गुजरारी व्यंजन) रेहड़ी लगाने जैसे काम किए हों. उसने जब इस दुनिया को अलविदा कहा तो उनकी कुल संपत्ति की कीमत 60 हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा थी. हम बात कर रहे है देश के सबसे अमीर व्यक्तियों में से एक धीरूभाई अंबानी और उनके पूरे परिवार की.

कारोबारी धीरूभाई अंबानी की कहानी किसी परीकथा की तरह ही लगती है. एक ऐसा शख्स जिसने अपनी पढ़ाई लिखाई भी ठीक से पूरी न की हो और कम उम्र से ही रेहड़ी लगाने जैसे काम किए हों. उसने जब इस दुनिया को अलविदा कहा तो उनकी कुल संपत्ति की कीमत 60 हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा थी. धीरूभाई अंबानी की कहानी हर उस शख्स के लिए प्रेरणा की कहानी है जो कि खुद को गरीबी से निकालकर कामयाबी की मंजिल तक पहुंचना चाहता है. धीरूभाई अंबानी ने अपने जिंदगी में कारोबार में न जाने कितनी बार जोखिम उठाए लेकिन हर बार वे आगे बढ़े. उन्होंने सफलता को हासिल करने के लिए कभी जोखिम की परवाह नहीं की. (मुकेश अंबानी के घर के बाहर का सीसीटीवी फुटेज)

यहां से शुरू होती है धीरूभाई अंबानी की कहानी

एक अध्यापक के बेटे धीरूभाई अंबानी की कहानी बचपन में गांठिया बेचने से शुरु होती है. जब उनके दोस्त और भाई पढ़ाई करते थे तो वे पैसे कमाने की तरकीबें सोचते. यमन देश के एडन बंदरगाह पेट्रोल पंप पर काम करने वाले 17 साल के धीरुभाई बरमाह शैल कंपनी की सहायक कंपनी में सेल्स मैनेजर बनकर हिंदुस्तान वापस लौटे तो उनकी तनख्वाह 1,100 रुपये थी.

एक इंटरव्यू में धीरुभाई अंबानी ने कहा था

‘जब मैं अदन में था तो दस रुपये खर्च करने से पहले दस बार सोचता. वहीं शैल कंपनी कभी-कभी एक टेलीग्राम भेजने पर पांच हज़ार खर्च कर देती. मैंने समझा जो जानकारी चाहिए, वो बस चाहिए.’

हिंदुस्तान वापस आकर धीरुभाई ने 15 हजार रुपये से रिलायंस कमर्शियल कारपोरेशन की स्थापना की. यह कंपनी मसालों का निर्यात करती थी. अनिल अंबानी एक इंटरव्यू में इससे जुड़ा एक किस्सा बताते हैं, ‘एक बार किसी शेख ने उनसे हिंदुस्तान की मिटटी मंगवाई ताकि वो गुलाब की खेती कर सके. धीरुभाई ने उस मिटटी के भी पैसे लिए. लोगों ने पूछा क्या ये जायज़ धंधा है तो धीरुभाई ने कहा. उधर उसने एलसी (लेटर ऑफ़ क्रेडिट यानी आयत-निर्यात में पैसे का भुगतान करने का जरिया) खोला, इधर पैसा मेरे खाते में आया. मेरी बला से वो मिटटी को समुद्र में डाले या खा जाए.’

कोई काम करने में गुरेज़ नहीं करते थे

खुद को ‘जीरो क्लब’ में कहलवाने धीरुभाई ने कभी किसी काम को करने से गुरेज़ नहीं किया. एक बार उन्होंने कहा था, ‘सरकारी तंत्र में अगर मुझे अपनी बात मनवाने के लिए किसी को सलाम भी करना पड़े तो मैं दो बार नहीं सोचूंगा.’ ‘जीरो क्लब’ से उनका आशय था कि वे किसी विरासत को लेकर आगे नहीं बढ़े बल्कि जो किया अपने दम पर किया.

धीरुभाई की सबसे बड़ी खासियत थी कि वे बहुत बड़ा सोचते थे और उसे अंजाम देते थे. वे मानते थे कि इंसान के पास बड़े से बड़ा लक्ष्य और दूसरे को समझने की काबिलियत होनी चाहिए. गुरचरण दास अपनी किताब ‘उन्मुक्त भारत’ में लिखते हैं ‘धीरूभाई सबसे बड़े खिलाड़ी थे जो लाइसेंस राज जैसी परिस्थिति में भी अपना काम निकाल पाये.’ यह बात सही है. जहां दूसरे बड़े घराने जैसे बिड़ला, टाटा या बजाज लाइसेंस राज के आगे हार मान जाते थे, धीरुभाई येन केन प्रकारेन अपना हित साध लेते थे.

पेट्रोकेमिकल कंपनी बनाने का लक्ष्य धीरुभाई ने बर्मा शैल कंपनी से प्रभावित होकर ही रखा था जिसे उन्होंने बहुत कम समय में पूरा किया.

जाने ये किस्सा

उनके काम करने की रफ़्तार का अंदाजा आप इस किस्से से लगा सकते हैं कि एक बार अचानक आई बाढ़ ने गुजरात में पातालगंगा नदी के किनारे स्थित उनके पेट्रोकेमिकल प्रोजेक्ट को तहस नहस कर दिया था. युवा मुकेश अंबानी ने उन्हें तकनीकी सहायता प्रदान करने वाली कम्पनी डुपोंट के अभियंताओं से पूछा कि क्या परियोजना के दो संयंत्र 14 दिनों में दोबारा शुरू हो सकते हैं तो उनका जवाब था कि कम से कम एक महीने में एक संयंत्र शुरू हो पायेगा. मुकेश ने यह बात धीरुभाई को फ़ोन पर बतायी. उन्होंने फौरन मुकेश को निर्देश दिया कि वे तत्काल प्रभाव से उन अभियंताओं को वहां से रवाना कर दें क्योंकि उनकी सुस्ती बाकी लोगों को भी प्रभावित कर देगी. इसके बाद दोनों संयंत्र प्लान से एक दिन पहले शुरू कर दिए गए थे!

वैसे पहली बार भी यह प्लांट महज 18 महीनों में शुरु हो गया था. डुपोंट इंटरनेशनल के चेयरमैन रिचर्ड चिनमन को जब यह मालूम हुआ तो उन्हें बड़ा ताज्जुब हुआ. बताते हैं कि धीरुभाई को बधाई देते हुए चिनमन ने कहा कि अमेरिका में इस तरह का प्लांट बनने में कम से कम 26 महीने लगते.

धीरुभाई अंबानी अक्सर कहते थे

‘मेरी सफलता ही मेरी सबसे बड़ी बाधा है.’ जब उन्होंने विमल ब्रांड के साथ कपड़ा बाजार में प्रवेश किया तो कपड़ा बनाने वाली कई कंपनियों ने अपने-अपने वितरकों को उनका माल बेचने से मना कर दिया था. धीरुभाई तब देश भर में घूमे और नए व्यापारियों को इस क्षेत्र में ले आये. बताते हैं कि उन्होंने वितरकों को विश्वास दिलाया कि ‘अगर नुकसान होता है तो मेरे पास आना और अगर मुनाफ़ा होता है तो अपने पास रखना’ एक ऐसा समय भी आया जब एक दिन में विमल के सौ शोरूमों का उदघाटन हुआ.

उनकी जीत के किस्से कम नहीं थे तो हार के भी चर्चे भी कम नहीं हुए. एक बार वे लार्सेन एंड टुब्रो के चेयरमैन भी बने और फिर यह कंपनी उन्हें छोड़नी पड़ी. इंडियन एक्सप्रेस के रामनाथ गोयनका से उनका रिश्ता कभी मीठा और कभी तल्ख़ रहा. कहते हैं कि धीरुभाई ने बड़े से बड़े राजनेताओं और कारोबारियों को साध लिया था लेकिन गोयनका के आगे उनकी एक नहीं चली. उन पर नियमों की अवहेलना के बारे में इंडियन एक्सप्रेस में एक के बाद एक करके हंगामाखेज रिपोर्टें छपीं जिन्होंने रिलायंस की साख पर गंभीर सवाल खड़े किए.

लेकिन ऐसे हिचकोलों के बावजूद रिलायंस कामयाबी के नए आसमान छूती गई. गुरचरण दास के मुताबिक़ धीरुभाई की सफलता का कारण था उनका लक्ष्यकेंद्रित दृष्टिकोण. जहां अन्य उद्यमी ग़ैर ज़रूरी व्यवसाय करने लग जाते थे वहीं धीरुभाई एक ही उत्पाद में मूल्य संवर्धन करते जाते. पॉलिएस्टर बेचने से पॉलिएस्टर बनाने तक के धीरुभाई के सफ़र को गीता पीरामल की बात से कहकर ख़त्म किया जाए तो बेहतर होगा. ‘मुंबई के मूलजी जेठा बाज़ार में पॉलिएस्टर को चमक कहा जाता है. धीरुभाई अंबानी उस चमक के चमत्कार थे.

सस्ती चाय छोड़ पीते थे महंगी चाय

धीरूभाई अंबानी जहां काम करते थे वहां के कर्मचारियों को 25 पैसे में चाय मिला करती थी लेकिन वे एक होटल में जाकर एक रुपये की चाय पिया करते थे. वे ऐसा इसलिए करते थे जिससे उन्हें होटल में आने वाले कारोबारियों और व्यापारियों की बातें सुनने को मिल सकें और इस तरह धीरूभाई ने कारोबार की एबीसीडी सीखी.

बता दें कि इसके बाद अंबानी ने पेट्रोलियम और दूरसंचार की दुनिया में कामायाबी हासिल की. 2000 में वे देश के सबसे अमीर शख्स थे और 2002 में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा.