डॉ. हिमांशु द्विवेदी, प्रधान संपादक हरिभूमि
जंगल में शेर की दहाड़ को बाकी जानवरों के द्वारा नजरंदाज करना और राज्य में मुख्यमंत्री के ऐलान की मातहत अधिकारियों द्वारा अनदेखी किए जाने का सीधा अर्थ है कि सत्ता का इकबाल दांव पर है। छत्तीसगढ़ में कमोवेश अब यही हालात हैं। चौदह दिन तक चली शिक्षाकर्मियों की हड़ताल की रहस्यपूर्ण समाप्ति के तत्काल बाद राज्य के मुखिया डा. रमन सिंह ने सार्वजनिक रूप से ऐलान किया कि- शिक्षाकर्मी हमारे अपने ही बच्चे हैं। सभी शिक्षाकर्मी बहाल भी होंगे और उन्हें वेतन भी मिलेगा। खेदपूर्ण है प्रदेश के मुखिया का यह ऐलान अभी भी अमल की प्रतीक्षा में है।
डा. रमन सिंह की इस स्पष्ट घोषणा को गत डेढ़ माह से राज्यभर में अंगूठा दिखाया जा रहा है। बीजापुर से बलरामपुर तक तमाम जिलों में सैकड़ों शिक्षाकर्मी अपनी बहाली और हजारों शिक्षाकर्मी हड़ताल अवधि के अपने वेतन के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं। नौबत यहां तक आ पहुंची है कि राजधानी से सटे धरसींवा क्षेत्र के सैकड़ों शिक्षाकर्मी वेतन के अभाव में 5 जनवरी से सामूहिक भीख मांगने की तैयारी में हैं। सत्ता और समाज को विनय पूर्वक सोचना चाहिए कि हम शिक्षा जैसे पावन पेशे से संबंद्ध जन को किस स्थिति में ला दे रहे हैं। जो चाबुक अपराधियों की पीठ पर बरसाने के लिए खाकी वर्दीधारियों को थमाई गई है, उनका उपयोग अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते निरीह शिक्षाकर्मियों पर कर चुकने के बाद अब यह प्रताड़ना किसलिए?
तमाम संगठनों द्वारा चुनावी वर्ष में मांगों की लंबी फेहरिस्त लेकर हड़ताल के माध्यम से दबाव बनाने की लंबे समय से चली आ रही परंपराओं को अपनी इच्छा शक्ति से ध्वस्त करने में मुख्यमंत्री और उनके रणनीतिकार सफल रहे लेकिन इस सफलता के बाद डा. रमन सिंह के द्वारा जख्मी दिलों पर मरहम लगाने की कोशिश पर अब पानी ही नहीं फेरा जा रहा है बल्कि, उन जख्मों पर नमक-मिर्च भी मला जा रहा है। काम पर लेने से पहले अब हड़ताल नहीं करने का शपथ पत्र भरवाकर यह नौकरशाह क्या साबित करना चाह रहे हैं। अपनी मांगों की खातिर सड़क पर मर्यादित तरीके से उतरने का किसी भी कर्मचारी का यह संविधान से प्राप्त अधिकार अब क्या सरकारों की गुलामी करने को बाध्य होगा?
आर-पार की लड़ाई का ऐलान कर सड़क पर उतरे शिक्षाकर्मियों को सरकार यह समझाने में जब बखूबी सफल हो चुकी है कि चुनाव की आड़ में ब्लैकमेल होने को दौर अब बीत चुका है, तो फिर इस कदर हलाकान करने की जरूरत ही क्या है। वैसे भी जब मुख्यमंत्री का इरादा दुलारने का है तो फिर नीचे के अफसरान प्रताड़ना का अभियान क्यूं कर चलाए हुए हैं? जिस भारतीय संस्कृति के संरक्षण का भारतीय जनता पार्टी दावा करती है, उस संस्कृति में तो गुरु को देवताओं से भी ऊंचा दर्जा देने की परंपरा रही है। आज आपके राज में शिक्षाकर्मी अपने आपको चपरासी से भी गया-बीता महसूस कर रहा है। पूर्णकालिक शिक्षक और शिक्षाकर्मी एक ही छत के नीचे समान काम करने के बावजूद अलग-अलग सेवा शर्ताें से नियंत्रित करने की कोशिश ने ही यह हालात बनाए हैं।
शिक्षाकमिर्यों की योग्यता भी बहस का एक जायज मुद्दा है। लेकिन, इस पर बहस करने का अधिकार अब केवल समाज को है, सरकार को नहीं। पिछले ढाई दशक से नियमित शिक्षकों की भर्ती के नाम पर सरकारों के खाते में शून्य बटा सन्नाटा ही दर्ज है। सभी विद्यालयों को खर्च बचाने की खातिर शिक्षाकर्मियों के भरोसे छोड़ने का सिलसिला बढ़े पैमाने पर जारी है। सरकार यह समझ पाने में नाकाम है कि साक्षर होना और शिक्षित होना दो अलग-अलग बातें हैं। शिक्षक नियुक्त करने से पहले अभ्यार्थी को कड़ी परीक्षा के दौर से गुजारना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि उसे राष्ट्र का भविष्य गढ़ने की जिम्मेदारी सौंपी जानी है। अविभाजित मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह की सरकार के समय से ही इस पहलू को अपनी सुविधा की खातिर सरकारों ने भुला दिया है। सरकार अपनी उपलब्धि स्कूलों की संख्या के आधार पर बताती है, जबकि पैमाना उनकी गुणवत्ता होनी चाहिए।
किसी भी लोक कल्याणकारी राज्य की अनिवार्य शर्त है कि वहां की सरकार अपने निवासियों की सुरक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दे। इन तीन क्षेत्रों में आप तंगी का हवाला दें , और गांव गांव में मोबाइल बांटते फिरें, यह स्वीकार कैसे किया जा सकता है। पंचायत मंत्री भले ही समान कार्य समान वेतन के सिद्धांत से सत्ता में आने के बाद असहमति व्यक्त करें, किंतु प्रदेश के शैक्षणिक क्षेत्र में योग्य शिक्षकों के अभाव से तो वह भी असहमत नहीं होंगे। विसंगति का आलम यह है कि जिन दो लाख शिक्षाकर्मियों के कंधे पर समूचे दो लाख शिक्षाकर्मियों के कंधे पर समूचे प्रदेश को शिक्षित करने का भार डाला जा चुका है, उनसे शिक्षा विभाग का कोई लेनादेना ही नहीं है। क्योंकि इनकी सेवाएं पंचायत एवं ग्रामीण विकास के अधीन हैं। ऐसे हालात में बेहतर प्रशासनिक नियंत्रण और अच्छे परिणाम की अपेक्षा भी कैसे की जा सकती है।
खैर, अभी मुद्दा प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था नहीं, बल्कि शिक्षा कर्मियों की व्यथा है। इस पर चर्चा की जरूरत इसलिए महसूस हो रही है क्योंकि प्रदेश के मुखिया पर सवाल उठ रहा है।
शिक्षाकर्मी जिन मांगों को लेकर सड़क पर थे, वह कितनी जायज या नाजायज हैं यह भी अभी बहस का विषय नहीं है। बहस का मुद्दा केवल इतना ही है कि जब प्रदेश सरकार के मुखिया ने प्रदेश के लाखों शिक्षाकर्मियों को अपने बच्चे बताते हुए उनकी तुरंत बहाली और वेतन भुगतान का महज आश्वासन नहीं बाकायदा सार्वजनिक ऐलान किया था, तो उस पर अमल क्यों नहीं हो पा रहा है? खासतौर पर तब जब मौजूदा मुख्यमंत्री सचिवालय अविभाजित मध्यप्रदेश से लेकर अब तक का सर्वाधिक सक्षम और ताकतवर सचिवालय होने की साख रखता है। मुख्यमंत्री के आदेश की अवहेलना के लिए जो भी जिम्मेदार हैं, उनके खिलाफ कड़ी कार्यवाही समय की मांग है। याद रहे कि शेर अपनी दहाड़ को अनसुना करने वाले को इस हिमामत का सबक मौजूदा निजाम सिखाएगा?