नीलेश भानपुरिया, झाबुआ। झाबुआ आदिवासी अंचल में इन दिनों पलायन का दौर लगातार जारी हैं। जबकि लोकसभा चुनाव को महज अब आठ दिन का समय बचा है। पिछले चरणों में हुए कम मतदान प्रतिशत से सत्ताधारी पक्ष असमंजस की स्थति में हैं। देश के प्रधानमंत्री लगातार मतदान प्रतिशत बढ़ाने पर जोर दे रहे हैं। वहीं आदिवासी अंचल झाबुआ में चुनाव के ठीक पहले लोग पलायन कर रहे है। यह लोग गुजरात राजस्थान सहित देश के अन्य राज्यों में मजदूरी के लिए परिवार सहित निकल पड़ते हैं।

ग्रामीण पलायन को अपनी जिंदगी का हिस्सा मान चुके

झाबुआ जिले में ज्यादातर वोटर ग्रामीण क्षेत्रों में ही बसता हैं, वहीं चुनाव से ठीक आठ दिन पूर्व ग्रामीणों का पलायन पर जाना कही सत्ताधारी दल को भारी ना पड़ जाए। जिला प्रशासन की ओर से मजदूरी पर गए लोगों से संपर्क के लिए कॉल सेंटर भी बनाया गया है। लेकिन ग्रामीण जिस तरह से बड़ी संख्या में पलायन कर रहे है, उससे ऐसा प्रतीत नही होता की वह मतदान करने वापस आएंगे। ’पलायन’ एक ऐसा शब्द हैं जो झाबुआ जिले का पर्यायवाची शब्द बन चुका है। लंबे समय से बेरोजगारी की मार झेल रहे अंचल के हजारों ग्रामीण पलायन को अपनी जिंदगी का हिस्सा मान चुके हैं। अपने आशियानों पर या तो ताला लगाकर या इन आशियानों को परिवार के बुजुर्ग सदस्यों के सुपर्द कर छोटे-छोटे बच्चों सहित कुछ महीनों का राशन एक थैले में भरकर जाने के दृश्य जिले में आम हो हो गया है। 

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अपने वतन से हजारों सैकड़ो किलोमीटर दूर जाकर, तपती धूप में कड़ी मेहनत करना। खुले आसमान के नीचे सोना, निर्माणाधीन इमारत के एक ओर किसी सड़े गले हिस्से में छोटी सी रसोई बनाकर वही अपना खाना खा लेना। ठेके से मिलने वाली मजदूरी में परिवार की महिलाओं सहित छोटे-छोटे बच्चों को झोंक देना,अल सुबह से देर रात तक काम में जुटे रहना। यह पलायन पर जाने वाले मजदूरों की वास्तविक जिंदगी है।

राजनीतिक दलों पर सवालिया निशान

यहां पर अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस, मजदूर दिवस, बाल दिवस जैसे दिनों में ग्रामीण मजदूरों की याद हम सभी को आ जाती है। निश्चित एक दिन के लिए आप और हम इन मजदूरों की चिंता करके अगले दिन अपने-अपने कामों में मशगूल हो जाते है। वहीं पलायन पर गए ये मजदूर भी इन सभी दिवसों से इतर अपनी वास्तविकता से रूबरू होकर अपने कामों में अपने आप को फिर से झोंक देते है। जमीनी हकीकत में कई शासकीय योजनाओं में इन मजदूरों के नामों का उपयोग कब हो जाता है, इन ग्रामीणों को पता ही नही चलता है। कब इनका नाम विभिन्न योजनाओं में आ जाता है। इनके नाम पर किन व्यक्तियों को लाभ मिल जाता है। यह विकास की बात कर रहे विभिन्न राजनीतिक दलों पर सवालिया निशान खड़ा कर रहा है। 

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पूर्व में पलायन पर जाने के निश्चित महीने ही होते थे। इनमें फसलों के काटने का समय मुख्य रूप से शामिल होता था। लेकिन अब पलायन पर जाने का ना तो कोई निश्चित समय है और ना ही निश्चित आंकड़ा। लेकिन बड़े महानगरों, राजस्थान और गुजरात के विभिन्न विकसित शहरों की ओर जाने वाली ट्रेनों, बसों में ग्रामीणों की भीड़ जिले में हो रहे विकास के दावों की पोल खोलती नजर आ रही है। पलायन पर जाने का मुख्य उद्देश्य मजदूरी की राशि का अंतर है। जिले में रहकर जहां मजदूर पूरे दिन मजदूरी करने के बाद हाथ में 250 से 300 रुपए मिलता है। वही पलायन पर जाने के बाद इन मजदूरों की मजदूरी में 500 से लेकर 700 रुपए तक हो जाती है। मजदूरी का यह बड़ा अंतर ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को पलायन पर जाने के प्रति आकर्षित करता है। 

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इसके अलावा जिले में बढ़ती बेरोजगारी भी पलायन पर जाने वाले प्रमुख कारणों में शामिल है। पलायन और पलायन पर जाने वाले मजदूरों की अहमियत जिले में इतनी बढ़ गई है कि यहां व्यवसाय करने वाले व्यापारी पूरे साल पलायन से वापस आने वाले मजदूरों का इंतजार करते हैं। जिसका मुख्य कारण यह है कि इन मजदूरों के वापस जिले में लौट जाने के बाद यहां का व्यापार तेजी से बढ़ता है। पलायन पर जाने वाले मजदूर रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित रहकर जैसे-तैसे अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। लेकिन राजनीतिक दलों के पदाधिकारियों को उनकी याद चुनाव में ही आती है। इसका प्रमाण यह है कि चुनाव के दिनों में कई राजनीतिक पार्टियों के पदाधिकारी पलायन पर गए इन मजदूर को मतदान करवाने के लिए जिले में लाने के लिए और वापस छुड़वाने के लिए पूरी व्यवस्था खर्चा भी उठाते है।

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