Jagannath Rath Yatra 2023 : छत्तीसगढ़ी लोगो में जगन्नाथ जी के प्रति अगाध आस्था है, इसके अतिरिक्त भगवान जगन्नाथ लोगों के जीवन के सांस्कृतिक आधार स्तंभ भी हैं. भगवान जगन्नाथ जी पुरी में सदियों से विराजमान हैं और उनकी कीर्ति से हम सभी परिचित हैं. जगन्नाथपुरी की रथयात्रा का पूरा प्रभाव छत्तीसगढ़ में दिखाई पड़ता है. स्थानीय राजा-महाराजा जमींदार व मालगुजारों ने भी अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार अपने-आपने स्थानों पर मंदिर का निर्माण कराया, मूर्तियां स्थापित की और रथयात्रा क आयोजन भी धूमधाम से प्रारंभ कराया. इसलिए छत्तीसगढ़ का लोकमानस भगवान जगन्नाथ के प्रति आस्थावान रहा है. इसी आस्था के वशीभूत होकर यहां के लोग रथयात्रा के प्रति पवित्र भाव रखते हैं.
भगवान को देते हैं तोपों की सलामी
छत्तीसगढ़ के बस्तर में खास अंदाज में मनाए जाने वाला ‘गोंचा पर्व’ आकर्षण का केंद्र होता है. बांस से बनी तुपकी, जिसे तोप कहा जाता है, इसकी आवाज भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा में आंनद को दोगुना कर देती है. पूरे भारत में तुपकी चलाने की पंरपरा केवल बस्तर के जगदलपुर में ही देखने को मिलती है. भगवान जगन्नाथ, देवी सुभद्रा और बलभद्र के रथारूढ़ होने पर बांस से बनी तोप से सलामी दी जाती है. बस्तर में 614 सालों से मनाए जाने वाले गोंचा पर्व में तुपकी खास आर्कषण का केंद्र होती है.
छत्तीसगढ़ की भी रथ यात्राएं बड़ी प्रसिद्ध है
भगवान जगन्नाथ जी की रथयात्रा यानि रथ दूज का लोगों के जीवन में बड़ा व्यापक प्रभाव है. वैसे तो छत्तीसगढ़ के प्रायः सभी प्रमुख नगरों व कस्बों में रथ दूज मनाया जाता है फिर भी रायगढ़, सारंगढ़, चन्द्रपुर, शक्ति, अड़भार, सारागांव, लवसरा, चांपा, जांजगीर, शिवरीनारायण, रजगा, बिलासपुर, रतनपुर, रायपुर, राजिम, बस्तर, राजनांदगांव, पांडादाह, खैरागढ़, छुईखदान, गंडई, पटेलपाली, सक्ती आदि स्थानों की रथयात्रा की बड़ी प्रसिद्धि है.
इसे शुरू हुआ गोंचा पर्व
बस्तर में मनाया जाने वाला रथ यात्रा का पर्व ‘गोंचा पर्व’ कहलाता है. यह जिला मुख्यालय जगदलपुर में आदिवासी परंपरा के अनुसार मनाया जाता है. गोंचा पर्व मनाये जाने के संबंध में प्रचलित जनश्रुति के मुताबिक सन 1431-32 में बस्तर के राजा पुरूषोत्तम देव ने राजगद्दी प्राप्त करने के बाद जगन्नाथ पुरी यात्रा की. उनकी अनन्य भक्ति को देखकर भगवान जगन्नाथ प्रसन्न हुए और पुजारी को स्वप्न देकर कहा कि राजा को चक्र देकर उन्हें रथपति घोषित करें. भगवान के निर्देशनुसार पुजारी ने राजा को चक्र प्रदान कर रथपति घोषित किया. उसके पश्चात बस्तर लौटकर राजा ने अपनी कुलदेवी माँ दंतेश्वरी के सम्मान में रथ यात्रा का आयोजन प्रारंभ किया. पुरी से साथ आए ब्राम्हणों ने राजा को मंदिर बनवाकर जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा की मूर्तियां स्थापित करने की सलाह दी. राजा ने प्रसन्नतापूर्वक ब्राम्हणों की सलाह मानकर ऐसा ही किया. इस प्रकार बस्तर में पुरी की तरह रथयात्रा प्रारंभ हुई जो गोंचा पर्व कहलाया.
राजा की पत्नी का नाम गुंडिचा था. उनकी जगन्नाथ रथ यात्रा के समय नौ दिनों तक विश्राम करते हैं. यहां का गोंचा पर्व बड़ा प्रसिद्ध है. गोंचा पर्व में आदिवासी बंदूकनुमा बांस की नली में जंगली फल फंसाकर एक दूसरे पर फेंकते हैं. जिसे तुपकी कहा जाता है. इसमें किसी प्रकार का वर्गभेद नहीं होता, बल्कि यह परस्पर हंसी -ठिठोली और प्यार बांटने की लोक परंपरा है. यहां पुरी की तरह तीन रथ निकाले जाते हैं. ‘गोंचा पर्व’ अर्थात बस्तर की इस रथयात्रा में दूर-दूर से आदिवासी अपनी लोक परंपरा के साथ हजारों की संख्या में शामिल होकर अपनी लोक आस्था को मुखर करते हैं.
छतीसगढ़ की खबरें पढ़ने के लिए करें क्लिक
English में खबरें पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें