ज्योतिराव गोविंदराव फुले 19वीं सदी के एक महान समाजसुधारक, समाज प्रबोधक, विचारक, समाजसेवी, लेखक, दार्शनिक और क्रान्तिकारी कार्यकर्ता थे. देश इन्हें ‘महात्मा फुले’ या ‘ज्योतिबा फुले’ के नाम से भी जानता है. सितंबर 1873 में उन्होंने महाराष्ट्र में ‘सत्यशोधक समाज’ नामक संस्था का गठन किया. महिलाओं और दलितों के उत्थान के लिए इन्होंने अनेक कार्य किए. वे चाहते थे कि समाज के सभी वर्गों को समान रूप से शिक्षा प्रदान की जाए.
वे भारतीय समाज में प्रचलित जाति पर आधारित विभाजन और भेदभाव के विरुद्ध थे. ज्योतिबा फुले समाज को कुप्रथा और अंधश्रद्धा के जाल से मुक्त कराना चाहते थे. महात्मा फुले ने अपना पूरा जीवन स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार दिलाने, बाल विवाह को बंद कराने और देशहित में समर्पित कर दिया. फुले समाज की कुप्रथा, अंधश्रद्धा के जाल से भी समाज को मुक्त करना चाहते थे. आइए आज उनकी जयंती पर उनसे जुड़ी खास बातों के विषय में बात कर उन्हें याद करते हैं. ज्योतिबा फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 में पुणे में हुआ था. उनका परिवार कई पीढ़ी पहले सतारा से पुणे आकर बस गया था और यहां फूलों के गजरे बनाने का काम शुरू कर दिया था. जब महात्मा फूले एक वर्ष के थे, तभी उनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया था. इसके बाद से इनका लालन-पालन एक बाई ने किया था. ज्योतिबा ने अपनी शुरूआती पढ़ाई मराठी में की, जिसके बाद उनकी पढाई बीच में ही छूट गई और बाद में 21 साल की उम्र में उन्होंने अंग्रेजी में सातवीं कक्षा की पढाई पूरी की.
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महात्मा का विवाह 1840 में प्रसिद्ध समाजसेवी सावित्री बाई फूले से हुआ था. अपना संपूर्ण जीवन उन्होंने स्त्रियों को शिक्षा प्रदान करने, उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाने में खर्च किया. उन्नीसवीं सदी में स्त्रियों को शिक्षा नहीं दी जाती थी. महात्मा ज्योतिबा फुले ने साल 1848 में पुणे में लड़कियों के लिए देश का पहला महिला स्कूल खोला था, जिसमें उनकी पत्नी सावित्रीबाई पहली शिक्षिका बनीं, जिसका काफी विरोध हुआ और उन्हें ये स्कूल बंद करना पड़ा. हालांकि, बाद में ये स्कूल किसी दूसरे स्थान पर फिर से खोला गया. कहा जाता है कि साल 1848 में एक बार ज्योतिबा फुले अपने एक ब्राह्मण मित्र की शादी में भाग लेने गए हुए थे, जहां निचली जाति का होने के कारण ज्योतिबा फुले का काफी अपमान किया गया. उसी समय उन्होंने देश में फैली सामाजिक असमानता को जड़ से उखाड़ फेंकने की कसम खाई थी.
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कुछ लोगों ने उनके काम में बाधा डालने की कोशिश की, पर जब फुले आगे बढ़ते ही गए तो उनके पिता पर दबाव डाल कर पति-पत्नी को घर से निकलवा दिया. इससे कुछ समय के लिए उनका काम रुका अवश्य, पर शीघ्र ही उन्होंने एक के बाद एक बालिकाओं के तीन स्कूल खोल दिए. निर्धन और निर्बल वर्ग को न्याय दिलाने के लिए ज्योतिबा ने 1873 में ‘सत्यशोधक समाज’ स्थापित किया. उनकी समाजसेवा देख कर 1888 में मुंबई की एक विशाल सभा में उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि दी गई. ज्योतिबा ने ब्राह्मण-पुरोहित के बिना ही विवाह-संस्कार आरंभ कराया. इसे मुंबई उच्च न्यायालय से भी मान्यता मिली.
वे बाल-विवाह-विरोधी और विधवा विवाह के समर्थक थे. ‘गुलामगिरी’, ‘तृतीय रत्न’, ‘छत्रपति शिवाजी’, ‘राजा भोंसला का पखड़ा’, ‘किसान का कोड़ा’, ‘अछूतों की कैफियत’ उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें हैं. ज्योतिबा और उनके संगठन के संघर्ष के कारण सरकार ने ‘एग्रीकल्चर एक्ट’ पास किया. स्त्रियों को शिक्षा प्रदान करने के लिए 1883 में उन्हें तत्कालीन ब्रिटिश भारत सरकार द्वारा ‘स्त्री शिक्षण के आद्यजनक’ की उपाधि दी गई. 28 नवंबर, 1890 को 63 साल की उम्र में देश के इस सच्चे भक्त का निधन हो गया था.
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