रिपोर्ट- रुपेश गुप्ता.

ये तस्वीर रायपुर के तेलीबांधा की है. तस्वीर में तेलीबांधा तालाब के उस पार रंग-रोगन और तस्वीरों से सजी इमारतों की एक कॉलोनी नज़र आ रही हैं. इस कॉलोनी में वे लोग रहते हैं जिनकी झोपड़ियां, तेलीबांधा को संवारने के लिए उजाड़ गई थीं. उन्हें उजाड़कर फ्लैटों में बसाया गया है. लेकिन कॉलोनी और  तालाब परिसर के बीच एक बड़ी दीवार है. दीवार के इस पर आने वाले लोग केवल इतना ही जानते हैं. उस पार की ज़िंदगी कैसी हैं. वे कौन लोग हैं. क्या काम करते हैं. कैसे खाते और जीते हैं. क्या सोचते हैं. दीवार के इस पर के लोग ना जानते हैं, ना उनकी उधर कभी झांकने में कोई दिलचस्पी रही है.

अपनी फिल्म झुंड में नागराज मंजुले ने भारत के समाज की इसी हकीकत को दिखाया है. झुंड की कहानी दो भारत के दरम्यान खड़ी दीवार लांघकर ना केवल उस पार झांकती है बल्कि बेहद प्रभावशाली ढंग से उस पर उस दुनिया में घुस जाती है.

भारतीय सिनेमा ने स्लम को हमेशा स्लम को अपराध और अपराधियों के अड्डे के रुप में पेश किया है. फिल्मों में किसी को क्रूर बताने के लिए उसे स्लम में रहना दिखाया जाता है गोया कि ये स्थापित करने की कोशिश की जाती है कि  सारे अपराधी स्लम में ही रहते हैं. झोपड़पट्टी की ज़िंदगी, वहां के लोगों के सपने, उनकी परेशानियां और कई बेचैन खड़े करने वाले सच और सवालों से फिल्मों ने रुबरु कराने का काम बहुत ही कम किया है. लेकिन मंजुले ने यही काम झुंड के ज़रिए किया है. ये उनकी पहली हिन्दी फिल्म है.

फिल्म एक दीवार से अलग हुए दो दुनिया की कहानी है. जिसमें एक खेल शिक्षक स्लम के बच्चों की ज़िंदगी को फुटबाल के माध्यम से एक अर्थ प्रदान करता है. स्लम में रहने वाले युवा और बच्चे नशे और अपराध से जुड़े हैं. लेकिन दूसरी फिल्मों की तरह वे लोग क्रूर हत्यारे नहीं है. बल्कि मजबूरियों से क्षम्य अपराध में शामिल लोग हैं.

फुटबाल उनके भटके जीवन को रास्ता दिखाती है. एक तरफ फिल्म वंचित समुदाय से ताल्लुक रखने वाले लोगों की त्रासदियों को दिखाते हुए आगे बढ़ती है. उनकी मुश्किलों को सुलझाते हुए उनकी जायज़ हिस्सेदारी के सवाल को खड़ी करती है.

ये फिल्म जाति और आर्थिक विषमता के संबंधों को रेखांकित करती है. ये ऐसा सच है, जिसकी ओर देखने की जुर्रत आज तक कुछ ही फिल्मकार कर पाए हैं. फिल्म में कई साहसिक दृष्य और संवाद हैं.

इस दौर में एक बच्चे के माध्यम से दुनिया को फिल्मकार इस सच से रुबरु कराते हैं कि ‘भारत का एक अनपड़ बच्चा देश या भारत नहीं जानता’. फिल्म में एक सीन है जब फुटबाल जीतने के बाद बच्चे अपने और अपने सपने के बारे में बता रहे हैं. तब एक युवा बताता है कि वो मर्डर करना चाहता है. ताकि वो बड़ा आदमी बन सके. जिस व्यक्ति ने अपने आस-पास ऐसे ही लोगों को तरक्की करते देखा वो ऐसा ही सोचेगा. कहानी के किरदारों के लिए सबसे बड़ा ऑइकन बाबा साहेब अंबेडकर हैं. उनकी जयंती बड़ी ही धूमधाम से बस्ती के लोग मनाते हैं. ये हिन्दी सिनेमा में एक दुर्लभ सीन है.

गंभीर विषय पर बनी ये फिल्म बेहद मनोरंजक तरीके से वंचित समाज की बात करती है. जिसे हम दुनिया को देखने की ना सही दृष्टि नहीं दे पाए हैं ना ही उनके पास इतने अवसर हैं कि वे ख्वाब भी देख सकें. फिल्म कई मौज़ूं सवाल उठाती है. इसकी कहानी बेहद बेबाकी के साथ जाति और उसके आर्थिक संबंधों को रेखांकित करती है. फिल्म का नायक पूछता है कि जब इस भारत के लोगों की प्रतिभा का इस्तेमाल नहीं होगा कि खेल में भारत कैसे आगे बढ़ेगा. स्कूलों और कॉलोनी से बाहर झुग्गियों में रहने वाले गरीबों और वंचितों का भी एक भारत है. जो भारत की बड़ी ताकत है. भेदभाव की ये स्थिति सिर्फ खेल में नहीं है समाज के हर क्षेत्र में है. एक तरफ 15 फीसदी आबादी है जिनके पास सभी संसाधन है, दूसरी तरफ बाकी 85 फीसदी, जिनके हिस्से में बुनियादी सहूलियतें भी बामुश्किल पहुंच पाती है.

फिल्म में सभी कलाकारों ने अच्छा काम किया है. अलबत्ता फिल्म के केंद्रीय अभिनेता अमिताभ बच्चन कई जगह चूकते दिखते हैं. ये उनके स्वास्थ्य का असर हो सकता है. लेकिन कई जगह उनकी आवाज़ लड़खड़ाती सुनाई पडती है. कोर्ट के एक सीन में जब वे अपनी टीम के एक खिलाड़ी के हक में खड़े होते हैं तो उनकी टाइमिंग मिस होती दिखती है. उनका अभिनय निष्प्रभावी नज़र आता है जबकि ये उनका सबसे अहम सीन था. फिल्म के बाकी कलाकारों ने बेदह प्रभावशाली अभिनय किया है.

फिल्म के दो बेहद मज़दूर किरदार – म्यूज़िक और कैमरा हैं. कैमरा पहले सीन से झुग्गियों में ऐसे घुमता है कि हर दृश्य नया लगता है. बैकग्राउंड स्कोर कमाल का है. फिल्म आपको रुलाता है. हंसाता है. उत्साहित करता है और आखिरी में सोचने पर मजबूर कर देता है.