रायपुर. एक अदद नोटिफिकेशन के न निकाले जाने से सरकार को सालाना  168 करोड़ का नुकसान हो रहा हो तो इसे क्या कहेंगे ? अगर ये सिलसिला पिछले दस सालों से चल रहा हो तब क्या इसे विभाग के अधिकारियों की लापरवाही ही मानी जाएगी या उनका नकारापन माना जाएगा

दरअसल, धान खरीदी की प्रक्रिया में मंडी लेबर चार्ज दस साल से नहीं बढ़ाए जाने से ये नुकसान 2010 से हो रहा है. अगर औसत 125 करोड़ सालाना भी माना जाए तो दस साल में करीब 1500 करोड़ करोड़ का नुकसान एक नोटिफिकेशन जारी न होने से हो चुका है.

धान खरीदी में बहुत सारे मदों का भुगतान केंद्र सरकार करती है. इसमें से एक भुगतान है- मंडी लेबर चार्ज. धान खरीदी केंद्र में जो धान आता है -उसे नई बोरी में भरकर तौलना और रंगकर छल्ली लगाना होता है. ये पूरा काम मंडी लेबर करते हैं. जिसके एवज में प्रति क्विंटल उन्हें भुगतान होता है.

छत्तीसगढ़ में 2009-10 में एक नोटिफिकेशन द्वारा मंडी लेबर चार्ज 6.02 रुपया निर्धारित किया गया था. उसके बाद इसे बढ़ाया नहीं गया. केंद्र सरकार इसी अनुपात में 10 सालों का महंगाई जोड़कर 6.43 रुपये की दर से भुगतान करती है.

धान खरीदी का नियम के मुताबिक पंजाब को ये भुगतान 29 रुपये प्रति क्विंटल, हरियाणा को 15.5 रुपये और केरल को 24 रुपये की दर से होता है. क्योंकि वहां मंडी मजदूरी की दर यही निर्धारित है.

अभी छत्तीसगढ़ में सोसाइटियों का खर्चा करीब 19 रुपये आता है. इसमें से 4-5 रुपये का खर्च मार्फेड वहन करती है. जबकि 14 रुपये सोसाइटी वहन करती है. राज्य सरकार 9 रुपये देती है बाकि की 5 रुपये की रकम सोसाइटियों को अपने पास से उठाना होता है.

ये बात कई बार मंत्रीमंडल की बैठक में भी आ चुकी है लेकिन दिलचस्प बात है कि करीब साढ़े आठ साल तक बीजेपी और डेढ़ साल के कांग्रेस के कार्यकाल में इसे नहीं बढ़ाया जा सका. जबकि प्रदेश के तमाम सहकारी समतियों की ओर से कई बार शासन को बताया जा चुका है.