राजस्थान के भरतपुर की कुटैमा गजक का स्वाद और सुगंध देश-प्रदेश के अलावा विदेशों तक मशहूर है. इस गजक की सर्वाधिक मांग होने का कारण यह मुलायम होने की वजह से बुजुर्गों के खाने लायक भी होती है और चूंकि ये गजक बहुत बारीक होता है तो ये दांत में अटकते नहीं है.

सर्दी के मौसम में गजक खाने का मजा तो कुछ अलग ही है, लेकिन स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमंद है. यह सर्दियों में मेटाबॉलिज्म को तेज करके बॉडी को गर्म रखती है व वजन कम करने में सहायता करती है. तिल और गुड़ में मौजूद कैल्शियम से हड्डियां मजबूत होती हैं और गठिया जैसी बीमारी के बचाव के साथ ही तिल में सिसामोलिन पाए जाने से ब्लड प्रेशर की समस्या से निजात मिलती है. गजक बॉडी की इम्युनिटी सिस्टम को बढ़ाकर सर्दी जुकाम जैसी बीमारियों से राहत दिलाती है व कमजोरी को भी दूर करती है. Read More – Safe Driving Tips : वाहन चलाते समय भूल से भी न करें ये 3 काम, वरना हो सकता है जान को खतरा …

लगभग 14 वेरायटी की गजक उपलब्ध

गजक को लेकर भरतपुर में लगातार प्रयाेग हाेते रहते हैं. यहां 14 प्रकार की गजक तैयार हाेती हैं. इसमें सबसे महंगी सुपर शाही गजक है. जिसमें गुड का बेस थाेड़ा रखते हैं. मिठास के लिए विशेष रूप से प्राेसेस शहद इस्तेमाल हाेता है. तिल से ज्यादा बादाम, पिस्ता, केसर मिला कर कूटा जाता है. मुख्य रूप से कुटैमा गजक लोगों को सबसे ज्यादा पसंद आता है. इसके अलावा शाही गजक, अलसी, शुगर फ्री, चीनी, मूंगफली, ड्रायफ्रूट, केसरबाटी, तिल-मूंगफली, राेल, बिस्कुट, पट्टी, लइया गजक आदि तैयार हाेती हैं.

देश विदेश में भारी डिमांड

दिल्ली मंडी से ऑस्ट्रेलिया, सउदी अरब, बांग्लादेश,पाकिस्तान, कनाडा, श्रीलंका, अमेरिका, इंग्लैंड तक इन कुटैमा गजक की सप्लाई होती है. 300 रुपए प्रति किलो की कीमत में मिलने वाली कुटैमा गजक से प्रतिवर्ष करोड़ों रुपए का कारोबार होता है. Read More – भारत में लॉन्च होंगे Tecno Phantom X2 Series के दो नए स्मार्टफोन, जानें कीमत और फीचर्स …

ऐसे बनाया जाता है स्वादिष्ट कुटैमा गजक

कुटैमा गजक को पारंगत कारीगरों के द्वारा ही बनाया जाता है. सबसे पहले गुड़ या शक्कर की चाशनी तैयार करने के लिए इसे काफी देर तक भट्टी पर उबाला जाता है. फिर इस चाशनी को ठंडा होने के लिए रख देते हैं. चाशनी के ठंडे होने पर तार बन जाते हैं. फिर चाशनी को मशीन के सहयोग से कई बार खींचा जाता है. वहीं चाशनी के मुलायम और खस्ता होने पर भूनी हुई तिल को मिक्स कर दिया जाता है. इसके बाद इसकी 30 से 35 ग्राम की छोटी छोटी लोई बनाकर जमीन पर रख लकड़ी के हथोड़ों से 35 से 40 बार कूटा जाता है. इसके बाद गोल पीस बन जाते है.