विशेष संपादकीय, लेखक प्रधान संपादक हिमांशु द्विवेदी. मौका तो यह बधाई देने का है और सब दे भी रहे हैं. संघर्ष का कठिन रास्ता तय कर प्रदेश की सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे भूपेश बघेल बतौर मुख्यमंत्री आज अपना एक वर्ष सफलता पूर्वक पूर्ण कर रहे हैं तो इसकी बधाई देना तो बनता ही है. इस एक वर्ष के दौरान कई मोर्चों पर उपलब्धियां और कुछ मोर्चों पर चुनौतियां उनके हिस्से आई. लेकिन, एक मुद्दे पर उनकी चुप्पी बैचने करती है, हताश करती है, साथ ही साथ आक्रोशित भी करती है. और यह भाव केवल वर्तमान राज्य या केंद्र सरकार को लेकर ही नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ में सक्रिय सभी राजनैतिक दलों और नेताओं को लेकर है जो इस मुद्दे पर खामोश बैठे हैं. यह मुद्दा है सुदूर बस्तर इलाके में स्थित बीजापुर जिले के सारकेगुड़ा क्षेत्र में सात साल पहले सत्रह निरीह आदिवासी या वनवासी बंधुओं की हत्या और उस पर बने जांच आयोग की रपट आने के बाद उपजी शून्यता का.

सात साल पहले 28-29 जून 2012 की रात जिला एवं अर्ध सैनिक बलों की गोलियों के सत्रह वनवासी शिकार हो अपनी जान गंवा बैठे थे. इनमें महिला और बच्चे भी शामिल थे. तत्कालीन केंद्र और राज्य सरकार दोनों का दावा था कि जो मारे गए वह नक्सली थे, वहीं तमाम मानव अधिकार के हिमायती जन का आरोप था कि यह लोग मासूम थे, निर्दोष थे। विवाद ज्यादा बढ़ा तो प्रदेश में काबिज डा. रमन सिंह की सरकार ने जस्टिस वीके अग्रवाल की अध्यक्षता में एक जांच आयोग गठित कर दिया.

सात साल की लंबी अवधि के बाद आयोग की रपट एक दिन चुपचाप डेढ़ माह पहले राज्य शासन को सौंप दी गई. हंगामा तब हुआ जब विधानसभा पटल पर रखे जाने से पहले ही वह समाचाार पत्रों में प्र्रकािशत हो गई. विवादों के बीच 2 दिसंबर को रपट विधानसभा के पटल पर रख दी गई.

अफसोस की कहानी यहां से ही शुरू होती है. पंद्रह वर्ष तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे डा. रमन सिंह इस बात पर सवाल उठाते हैं कि यह विधानसभा से पहले समाचार पत्रों में कैसे आई? तमाम विधायक विधानसभा अध्यक्ष को विशेषाधिकार भंग का नोटिस देते हैं. रपट के निष्कर्षों को आधार बना कुछ लोग बीजापुर पहुंच तब के मुख्यमंत्री और गृहमंत्री के खिलाफ प्रकरण दर्ज कराने के लिए प्रदर्शन भी कर देते हैं लेकिन जिन परिवारों ने इस नरसंहार में अपने सत्रह लालों को खो दिया था उनके आंसू पोंछने के लिए अभी तक एक हाथ क्यों नहीं उठा? क्यों नहीं उन्हें सहारा देने एक कदम अभी तक किसी ने नहीं उठाया. विधानसभा से पहले समाचार पत्रों में रपट का आना बड़ा गुनाह है या आपकी सरकार के रहते सत्रह बेकसूर लोगों की हत्या हो जाना बड़ा गुनाह है? यह प्रश्न राजनीतिक फिजा में अनुत्तरित है.

जब आयोग की रिपोर्ट में यह निष्कर्ष साफ तौर पर जाहिर किया गया है कि जो मारे गए थे वह मासूम थे, निर्दोष थे तो फिर उनके परिवारों के पुनर्वास के लिए कदम नहीं उठाने में सरकार के हाथ क्यों कांप रहे हैं? यह माना जा सकता है कि वह घटना अनायास घटित हुई, जानबूझकर नहीं. सुरक्षा बलों के हमारे जवान जिन दुर्गम परिस्थितियों में नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं, वहां दिन के उजाले में दोस्त और दुश्मन का फर्क करना मुहाल है तो रात के अंधेरे में यह तय करना तो लगभग असंभव ही है. लिहाजा इसके लिए किनको जिम्मेदार ठहराकर कार्रवाई की जाए, इसे लेकर सरकार का असमंजस समझ में आाता है। लेकिन पीड़ित परिवारों को सहारा देने में सरकार और समाज दोनों इतना क्यों झिझक रहे हैं.

कल्पना कीजिए यदि इस प्र्रकार की घटना अगर रायपुर, दुर्ग या बिलासपुर जैसे महानगर में घटित हुई होती तो जांच आयोग के ऐसे निष्कर्ष के बाद वातावरण इतना ही उदासीन रह पाता? विधानसभा तो क्या संसद की भी नींव हिला दी जाती. हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश होने का दंभ भरते हैं तो क्या.

बस्तर के सुदूर गांवों में रहने वालों को भी उसी सम्मान और सहूलियत से जीने का अधिकार और सुविधा हासिल नहीं होनी चाहिए, जो हमें यहां बैठकर हासिल है. तभी तो लोकतंत्र की सार्थकता है. छात्र जीवन में मैं कभी आरक्षण का हिमायती नहीं रहा. मेरे द्वारा इसको सदैव प्रतिभाओं के अत्याचार के तौर पर देखा गया. लेकिन, आज अपने संविधान निर्माताओं के चरण छूने का मन करता है, जिन्होंने अनुसूचित जाति एवं जनजाति वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान कर उनकी सत्ता में हिस्सेदारी को कुछ हद तक सुनिश्चित किया. अन्यथा सदियों से चला आ रहा उनकी उपेक्षा और शोषण का सिलसिला आजादी के बाद भी शायद ऐसे ही चलता रहता.

आज भूपेश बघेल बतौर मुख्यमंत्री और देश का सबसे पुराना राजनैतिक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस छत्तीसगढ़ में बनी तीन चौथाई बहुमत की सरकार का एक वर्ष पूरा कर रहे हैं. यह सही मौका है इस पल को यादगार बनाने का और वंचित वर्ग को विश्वास दिलाने का. हमारे यहां प्रावधान है कि नक्सली हिंसा के शिकार परिवारों के पुनर्वास का। यहां तो मसला खाकी वर्दी की अस्वीकार्य भूल से कई जान गंवाने का है. ऐसे में हमारी जिम्मेदारी और भी अधिक बढ़ जाती है.

जरूरत है कि उन पीड़ित परिवारों से सभी राजनैतिक दल क्षमायाचना करें और उनके पुनर्वास के लिए समुचित कदम उठाएं. स्मरण रहे जलियांवाला बाग में गोलियां गुलामी के दौर में चलीं थी लेकिन फिर भी हम अंग्रेजों से माफी की उम्मीद आज भी करते हैं. यहां तो गोली हमारे राज में निकली है तो फिर माफी मांगने में संकोच कैसा? क्या इस माफी के लिए किसी उधम सिंह के आने का हम इंतजार करेंगे?

यदि नक्सली आतंक से मुुक्ति पानी है तो दिल बढ़ा और हाथ खुुला रखना ही होगा. फिर चाहे वह डा. रमन सिंह हों, पी चिदंबरम हों या वर्तमान मुख्यमंत्री भूपेश बघेल. भूपेश बघेल को लेकर उम्मीद इसलिए बढ़ जाती है क्योंकि नक्सल हिंसा से प्रभावित परिवारों से जितनी मुलाकात उन्होंने की है, उतना छत्तीसगढ़ के और किसी राजनीतिज्ञ ने नहीं की है. ऐसे में वह उस दर्द, तकलीफ, वेदना और दुख को ज्यादा बेहतर तरीके से महसूस कर सकते हैं जो सारकेगुड़ा में हिंसा शिकार इन वनवासियों ने पिछले सात साल में भोगी है. जो चले गए हम उन्हें वापस तो नहीं ला सकते लेकिन उनके जो परिजन हमारे बीच में हैं उनकी आंख में अब कभी कोई दुुख का आंसू ना आए, इतनी ईमानदार कोशिश तो हम सब कर ही सकते हैं. इस दिशा में अगर भूपेश सरकार आज कोई ठोस कदम उठाती है तो वह अपनी वर्षगांठ को सही मायने में यादगार बना सकती है. बाकी एक बार फिर प्रदेश की नई सरकार के सभी सदस्यों को एक साल का सफर पूरा करने पर हार्दिक बधाई.