अमित कोड़ले, बैतूल। मध्य प्रदेश के बैतूल में सैकड़ों साल पुरानी परंपरा आज भी निभाई जा रही है। इस परंपरा के बारे में जानकर इसपर यकीन करना मुश्किल होगा। यहां मनोकामना पूर्ण होने पर लोग नाड़ा-गाड़ा परंपरा निभाते हैं। इस परंपरा के तहत लोग मन्नत पूरी होने पर अपने शरीर में लोहे की नुकीली सुई से धागे पिरोकर नाचते हैं। यह समारोह चैत्र माह में किया जाता है।

क्या है ये अनोखी परंपरा
शरीर में नाड़े पिरोकर नाचने की यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। जिले के ऐसे कई गांव हैं जहां लोग मन्नत पूरी होने पर अपने शरीर में लोहे की नुकीली सुई से धागे पिरोकर नाचते हैं। इतना ही नहीं बैल बनकर बैलगाड़ी खींचते हैं। चैत्र के महीने में होने वाले इस आयोजन को नाड़ा गाड़ा कहा जाता है। वहीं चिकित्सक इसे सेहत के लिए घातक बताते हैं। लेकिन अंधश्रद्धा का ये अंधेरा गहराता जा रहा है। हर साल चैत्र माह में यह आयोजन किया जाता है। जिसमें मन्नत पूरी होने की खुशी में ग्रामीण अपने शरीर में नाड़ा पिरोते है। बतादें कि, सूती धागों को गूंथकर नाड़े तैयार किए जाते, जिस पर मक्खन का लेप चढ़ाया जाता है। फिर लोहे की मोटी सुई की मदद से शरीर के दोनों तरफ चमड़ी में पिरो दिया जाता है।

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कपड़ो की जगह इंसानों में करते सुई धागे का उपयोग
अक्सर हमने देखा है की सुई धागे का काम कपड़े या किसी दूसरी चीज को सिलने के लिए होता है। लेकिन बैतूल में नुकीली सुई का इस्तेमाल इंसानी शरीर में नाड़े पिरोने के लिए किया जाता है। अगर आपको यकीन नहीं हो रहा है तो आप ये तस्वीरें देखिए जो बैतूल की आठनेर तहसील की हैं। जहां भगत भुमका का वेश बनाए बूढ़े और बच्चे मदमस्त होकर नाच रहे हैं। जबकि उनके शरीर मे लोहे की सुई से नाड़े पिरो दिए गए है। ऐसी मान्यता है कि बीमारियों से निजात पाने के लिए लोग देवी से मन्नत मांगते हैं और जब मन्नत पूरी हो जाती है, तो देवी का आभार जताने के लिए अपने शरीर में नाड़े पिरोकर नाचते हैं ।

रोंगटे खड़े कर देता है ये नजारा
शरीर में नाड़े पिरोने का नजारा देखने वालों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लेकिन जिनके शरीर में नाड़े पिरोए जाते हैं वो टस से मस नहीं होते। मन्नत पूरी होने पर देवी को सम्मान देना ही उनका मकसद रहता है। जिसके लिए शरीर नाड़े पिरोना वो शुभ मानते हैं। बैतूल जिले के आठनेर, मुलताई , आमला और भैंसदेही तहसीलों के दर्जनों गांवों में ये आयोजन बेधड़क आयोजित होते हैं।

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नाड़ा-गाड़ा परंपरा का मतलब
शरीर में नाड़े पिरोने की वजह से इस आयोजन के नाम में नाड़ा शब्द जुड़ा है जबकि गाड़ा शब्द बैलगाड़ी का प्रतीक है। कुछ लोग शरीर मे नाड़े पिरोकर मन्नत पूरी करते हैं तो वहीं दूसरे आयोजन गाड़ा में कई बैलगाड़ियों को एक लकीर में बांध दिया जाता है और फिर इन बैलगाड़ियों को बैलों की मदद से नहीं बल्कि खुद ग्रामीण बैल बनकर खींचते हैं। इस तरह से ये आयोजन नाड़ा गाड़ा कहलाता है। बतादें कि, गांव-गांव तक बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हैं ये बात ग्रामीण खुद भी जानते हैं लेकिन अपनी प्राचीन मान्यताओं को जीवित रखने के लिए नाड़े जैसे आयोजन आज भी होते हैं जिन्हें देखना किसी रोमांच से कम नहीं है।

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