संदीप शर्मा, विदिशा। हिन्दू कैलेंडर और धर्म के अनुसार अभी पितृ पक्ष चल रहा है। 15 दिन चलने वाले इस महापर्व पर लोग अपने पुरखों (पितरों) को याद करते हुए दान पुण्य करते हैं। पितरों के प्रतीक कौवे को भोजन कराने का विधान भी है। इसके पीछे वैज्ञानिक कारण है। कौवा पीपल और बरगद के वृक्ष का बीज तैयार करता है।

देश में शायद ऐसा ही इकलौता काग उद्यान है जहां पूरे वर्षभर कौवा को भोजन कराया जाता है। यहां की काग रसोई और विलुप्त होती कौवों की प्रजाति के लिए उनके संरक्षण का केंद्र बन गया है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार देववृक्ष कहे जाने वाले वट और पीपल को कौवा पक्षी प्रदत्त माना जाता है। अगर रात में आक्सीजन और विभिन्न बीमारियों की औषधि के लिए पीपल और वट वृक्ष चाहिए, तो कौवों को बचाना होगा। इन्हें बचाने और वट- पीपल के पेड़ों को बढ़ाने के लिए ऋषि- मुनियों ने श्राद्ध के दिनों में कौवों को भोजन देने की परंपरा शुरू की थी।

श्राद्ध में पांच जीवों को भोजन देने की परंपरा है, इनमें एक काग अर्थात कौवा को भोजन कराना है। पीपल और बरगद दोनों वृक्षों के फल कौवे खाते हैं और उनके पेट में ही बीज उगने लायक होते हैं। कौवे जहां-जहां बीट करते हैं, वहां- वहां यह दोनों प्रजाति के पौधे उगते हैं। अगर इनके पौधों को उगाना है तो बिना कौवे की मदद से संभव नहीं है, इसलिए कौवे को बचाना पड़ेगा। बताया जाता है कि मादा कौवा भादो महीने में अंडा देती हैं। काग बच्चों को भी पौष्टिक और भरपूर आहार मिलना जरूरी है, इसलिए ऋषि- मुनियों ने कौवों के नवजात बच्चों के लिए हर आंगन या छत में पौष्टिक आहार की व्यवस्था करते थे, ताकि कौवों की नई जनरेशन का पालन पोषण ठीक से हो।

यह प्रक्रिया श्राद्ध के रूप में प्रकृति रक्षण के लिए भी आवश्यक है। इसलिए जब भी हम बरगद और पीपल के पेड़ों को देखते है, पूर्वज याद आते हैं। मुक्तिधाम का काग उद्यान जहां विलुप्त होती कौवों की प्रजाति के संरक्षण का अनूठा अभियान है। यहां प्रतिदिन उनके भोजन की व्यवस्था की जाती है। मुक्ति धाम सेवा समिति द्वारा बेतवा तट स्थित काग उद्यान का निर्माण किया गया है, जहां प्रतिदिन कौवों अर्थात कागों को प्रतिदिन भोजन कराया जाता है।

गौरतलब है कि देश का पहला ऐसा उद्यान है जहां विलुप्त होती कौंवों की प्रजाति को बचाने एवं उनके संरक्षण का किया जाता है बल्कि प्रतिदिन भोजन भी तैयार किया जाता है। जहां प्रतिदिन चावल और समय-समय पर रोटी आदि पकाई जाती है। संस्था सचिव के मुताबिक यहां पिछले 11 वर्षों से इस विलुप्त होती प्रजाति को बचाने का ख्याल मन में आया था और तब से लेकर आज तक प्रतिदिन यहां कौंवे के नाम पर ही काग रसोई चल रही है, जहां काग और अन्य पक्षियों को खिलाई जाती हैं।

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