Column By- Ashish Tiwari, Resident Editor

…जब सीएम बोले, ‘मुझे ना सुनने की आदत नहीं’

सूबे के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के कामकाज का अंदाज अब तक के तमाम मुख्यमंत्रियों से अलग रहा है. बगैर लाग लपेट दो टूक बात. फिर चाहे नेता-मंत्री हो या फिर अफसर. अभी हाल ही में मिलेट कार्निवल में मुख्यमंत्री ने कोदो-कुटकी जैसे मिलेट की समर्थन मूल्य में खरीदी का वाक्या साझा करते हुए एक किस्सा सुनाया. मुख्यमंत्री ने बताया कि- जब मैं नारायणपुर जा रहा था, तब मैंने संजय शुक्ला को फोन किया. मैंने कहा कि मुझे आज कोदो-कुटकी की शासकीय दर पर खरीदी करने की घोषणा करनी है. इस पर संजय शुक्ला ने मुझसे कहा कि-फारेस्ट डिपार्टमेंट  खरीदी नहीं करता. मैंने कहा कि ”मुझे ना सुनने की आदत नहीं है. ना सुनूंगा नहीं.” मेरे पहुंचने के पहले ये बता दें कि खरीदी कैसी की जा सकती हैं. ना में जवाब नहीं सुनूंगा. मेरे नारायणपुर पहुंचने के बाद उनका फोन आया और कहा कि कैम्पा के जरिए खरीदी की जा सकती है. कोदो-कुटकी की खरीदी का किसी तरह का समर्थन मूल्य नहीं था. विभाग ने प्रस्ताव बनाया और कैबिनेट में यह निर्णय हुआ की तीन हजार रुपए प्रति क्विंटल की दर पर खरीदी की जाएगी. इस निर्णय के बाद अधिकारियों के हाथ-पांव फुल गए कि इतना उत्पाद रखेंगे कहां. पहले 70 हजार हेक्टेयर उत्पादन होता था. आज एक लाख 65 हजार हेक्टेयर में उत्पादन हो रहा है. देश और दुनिया में अब डिमांड बढ़ गया है. मुख्यमंत्री अड़ते नहीं, तो अधिकारी रास्ता ढूंढने के पीछे पड़ते नहीं. संजय शुक्ला ने रास्ता ढूंढ ही लिया. कोदो-कुटकी को बाजार मिला.  

रायपुर में दिल्ली-पंजाब के मुख्यमंत्री

राजनीतिक फिजाओं में उमड़ते-घुमड़ते बादलों का इशारा है कि राज्य में होने वाला विधानसभा चुनाव सिर्फ कांग्रेस-बीजेपी तक ही नहीं सिमटेगा. आम आदमी पार्टी समीकरण बिगाड़ने दंगल में जोर-शोर से कूदेगी. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान 5 मार्च को रायपुर पहुंचकर चुनावी बिगुल फूकेंगे. चुनावी पंडित कहते हैं कि गुजरात में आम आदमी पार्टी की वजह से बीजेपी ने 152 सीटों पर जीत दर्ज की थी. इधर छत्तीसगढ़ में सरकार के खिलाफ अब तक माहौल बना पाने में विफल हुई बीजेपी आम आदमी पार्टी की आड़ में अपनी उम्मीदों को जिंदा कर रही है. गुजरात में आम आदमी पार्टी ने करीब 13 फीसदी वोट हासिल किया था. छत्तीसगढ़ में 2003 के चुनाव में एनसीपी और 2018 के चुनाव में जेसीसी ने करीब सात फीसदी वोट हासिल कर नतीजों को प्रभावित किया था. बीजेपी को लगता है कि आम आदमी पार्टी सात-आठ फीसदी वोट भी हासिल कर ले, तो बड़ा फेरबदल हो सकता है. 

‘आप’ की जमीन मजबूत कैसे?

अजीत जोगी का राज्य में अपना जनाधार था. अपनी पार्टी के इकलौते चेहरे वाले नेता थे जोगी. दमखम था, सो पांच सीटों को जीत लिया. आम आदमी पार्टी का कोई खास कैडर फिलहाल नहीं, लेकिन रिसोर्स में कोई कमी नहीं. दिल्ली-पंजाब में पार्टी की सरकार है. आम आदमी पार्टी खुद कहती है कि सबसे ज्यादा पढ़े लिखो की पार्टी है. टेक्नोक्रेट्स की बड़ी फौज है, जो एक खास तरह का नैरेटिव सेट करने में माहिर हैं. इस बीच बड़ा सवाल ये है कि क्या इन सबसे छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में पार्टी अपनी जमीन तैयार कर पाएगी? जवाब है नहीं. दरअसल आम आदमी पार्टी इससे एक कदम आगे जाकर काम करती दिखाई पड़ रही है. चुनावी रणनीतिकारों की माने तो आम आदमी पार्टी सतनामी और आदिवासी वोट को साधने की एक अलग किस्म की रणनीति पर काम कर रही है. कहते हैं सतनामी समाज कांग्रेस से असंतुष्ट है. जबकि ये माना जाता रहा है कि यह कांग्रेस का कोर वोट बैंक रहा है. बीजेपी सिर्फ अपनी रणनीति से सतनामी समाज का वोट हासिल करती रही है, सो बीजेपी की गुंजाइश यहां कम ही है. आदिवासी वोट बैंक का हाल भी लगभग कुछ ऐसे ही है. आरक्षण विधेयक लंबित है. किसान आंदोलन ने पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार बनाई थी. कहते हैं कि इस आंदोलन के बाद आम आदमी पार्टी को न्यू लेफ्ट के तौर पर पेश किया गया. इसकी वजह से बस्तर के अंदरुनी इलाकों में मदद मिलने की आस में पार्टी बैठी है. एक चर्चा ये भी सुनी जाती है कि कट्टर राष्ट्रवाद के मुद्दों को छोड़ दिया जाए, तो आम आदमी पार्टी अपनी विचारधारा को लेफ्ट की तरह दिखाने-बताने की कोशिश करती है. एक तरह से सेक्युलरिज्म का फ्रंट बना रही है. इन सबके परे बीजेपी-कांग्रेस-सर्व आदिवासी समाज के कई चेहरों पर आम आदमी पार्टी की नजर है. 

विधायकों की चिंता

कांग्रेस से चुनाव जितने वाले पहली बार के ज्यादातर विधायक इन दिनों चिंता में डूबे हैं. दरअसल ये चिंता खुद के राजनीतिक भविष्य को लेकर है. राष्ट्रीय अधिवेशन के बाद 2023 में होने वाले चुनाव की स्थिति लगभग साफ हो जाएगी. जिनकी टिकट कट सकती है, उनके लिए इशारा हो सकता है. कहते हैं कि ज्यादातर विधायकों की रिपोर्ट ठीक नहीं आई है. मुख्यमंत्री ने खुद विधायकों को उनकी हैसियत से वाकिफ करा दिया है. इस नसीहत के साथ कि वक्त रहते स्थिति सुधार लें. बावजूद इसके हाल वहीं ढाक के तीन पात की तरह है. ढाई-ढाई साल के कथित फार्मूले ने विधायकों को जहां उम्मीद से ज्यादा फायदा पहुंचाया, वहीं इसी फार्मूले ने उनका खूब बेड़ा गर्ग भी किया. विधायकों ने मनचाहा ट्रांसफर-पोस्टिंग कराया, पैसा कमाया, ठेके लिए-दिलवाये. जनता एक कोने में पड़ी रही. कुछ नए नवेले विधायक तो ऐसे भी रहे, जिन्होंने खुद को सीएम का पर्याय मान लिया. जमकर मनमानी की. अब छह-सात महीने बाकी रह गए हैं. छवि सुधार कर कर ही क्या लेंगे. 

स्पष्टीकरण

स्टेट जीएसटी के संग्रहण में कमी रह गई होगी, शायद तभी राज्य कर आयुक्त अपने अधीनस्थों को नोटिस जारी कर स्पष्टीकरण मांग रहे हैं. पूछा जा रहा है कि लक्ष्य की तुलना में कर संग्रहण कम क्यों हुआ? कहा जा रहा है कि संग्रहण की यह कमी घोर लापरवाही और काम के प्रति उदासीनता को दर्शा रही है?  खैर, जवाबदेही तय की ही जाती है. मगर लाख टके की बात यह है कि जिस कलेक्शन की कमी पर नोटिस जारी हुआ है, ये रिकार्ड में दर्ज होने वाली चीजें हैं. दूसरे किस्म के कलेक्शन में कहीं कोई कमी नहीं है.