राजस्थान में अब भी होली की मस्ती जारी है. होली से जुड़ी एक अनूठी परंपरा का रंग शीतलाष्टमी के मौके पर बुधवार को भीलवाड़ा में देखने को मिलेगा. यहां परंपरागत तौर पर प्रतिवर्ष होली शीतलाष्टमी पर ही खेली जाती है. इस मौके पर मुर्दे की सवारी भी निकाली जाती है, जिसे देखने के लिए आसपास के कई जिलों के लोग भी यहां पहुंचते हैं. यह परंपरा 425 सालों से निभाई जा रही है. मुर्दे की सवारी होली के 8 दिन बाद निकाली जाती है.
ऊंट-घोड़े पर सवार होकर उड़ाते हैं अबीर
शव यात्रा चितौड़ वालों की हवेली से शुरू होती है, और पुराने शहर में बाजारों से होती हुई बहाले में जाकर पूरी होती है. इस यात्रा से एक दिन पहले भैंरूजी की इलाजी की प्रतिमाओं की पूजा की जाती है. भीड़वाड़ा की गलियों में ढोल-नगाड़ों के साथ ऊंट और घोड़े पर सवार होकर अबीर-गुलाल उड़ाते हुए चलते हैं.
महिलाओं का प्रवेश रहता है निषेध
इस यात्रा में महिलाओं का प्रवेश निषेध रहता है. रास्ते में कई बार वह जिंदा आदमी अर्थी से उठने का प्रयास भी करेगा, लेकिन लोग उसे जलाने के लिए पहुंच जाते हैं. इसके बाद भी वह अर्थी से भाग जाता है. बागौर की हवेली से मुर्दे की सवारी को निकाला जाएगी. शहर के लोगों ने बताया कि मुर्दे की सवारी निकालने की परम्परा मेवाड़ रियासत समय से चली आ रही है. इस मुर्दे को लोक देवता ईलोजी के रूप में बताया जाता है और इसकी सवारी पूरे शहर में निकाली जाती है.
बुराइयों का अंतिम संस्कार कर देने की संदेश
यहां के स्थानीय बुजुर्ग लोग बताते हैं कि भीलवाड़ा में दशकों से इलाजी की डोल निकाली जाती है. कुछ लोग ऐसा भी बताते हैं-शहर में रहने वाली गेंदार नाम की एक वैश्या ने इस परंपरा की शुरूआत की थी. गेंदार की मौत के बाद स्थानीय लोग अपने स्तर पर मनोरंजन के लिए यह यात्रा निकालने लगे. संदेश था कि अपने अंदर की बुराइयों को निकालकर उनका अंतिम संस्कार कर देना. होली पर्व के आसपास होने के कारण यह संदेश देने वाली यात्रा हंसी ठिठोली के बीच निकाली जाने लगी.
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