रायपुर- छत्तीसगढ़ के सबसे बडे़ पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय इन दिनों सुर्खियों में हैं. हाल ही में पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के उप कुल सचिव रहे जे एल गंगवानी ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था. संविदा भर्ती नियमों के मुताबिक उन्होंने एक महीने की सैलरी का चेक विश्वविद्यालय प्रबंधन को देते हुए इस्तीफा दे दिया. जे एल गंगवानी ने विश्वविद्यालय के कुलपति डाॅ. एस के पांडेय पर कई गंभीर आरोप लगाते हुए अपने पद से इस्तीफा दिया था.

लल्लूराम डाॅट काॅम को गंगवानी के इस्तीफे की काॅपी मिली है, जिसमें उन्होंने पांडेय पर निशाना साधा गया है. गंगवानी ने अपने इस्तीफे में विश्वविद्यालय में चल रही गतिविधियों का जिक्र किया है. उन्होंने लिखा है कि पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के कुलपति का रवैया विभेदात्मक एवं संवेदनहीन है. उन्होंने कुलपति के प्रशासनिक निर्णय पर भी गंभीर सवाल उठाये हैं.
गंगवानी ने अपने इस्तीफे के साथ कुलपति डाॅ. एस के पांडेय के उन निर्णयों की सूची भी संलग्न की है, जो विश्वविद्यालय के हित में नहीं माने जा रहे.

कुलपति की भूमिका पर उठ रहे सवालों की वजहें-

–  उपयंत्री रूपेश शर्मा के प्रकरण में कार्यपरिषद द्वारा पारित निर्णय के मुताबिक सेवानिवृत्ति आदेश जारी किये जाने के बाद दोबारा कुलपित द्वारा एक मौका देते हुए काम पर रख दिया गया.
– विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित कार्यक्रम में नीता बाजपेयी द्वारा सरकार के मंत्री राजेश मूणत को अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया गया, लेकिन मंत्री के पहुंचने पर अगुवाई हेतु कोई उचित व्यवस्था नहीं की गई. इससे मंत्री की नाराजगी भी विश्वविद्यालय प्रबंधन को झेलनी पड़ी.
– विश्वविद्यालय के कर्मचारी सूर्यकांत वर्मा और पुरूषोत्तम कहार को कूटरचित मेडिकल सर्टिफिकेट प्रस्तुत करने का दोषी मानते हुए कुलसचिव ने एफआईआर दर्ज कराए जाने की अनुशंसा की थी, जिसे बदलकर कुलपति ने केवल दो वेतन वृद्धि रोके जाने का आदेश जारी कर मामले को खत्म कर दिया गया.
– एनएसयूआई द्वारा प्रदर्शन के दौरान विश्वविद्यालय में की गई तोड़फोड़ के मामले में जे एल गंगवानी को पुलिस में झूठी गवाही देने के लिए दबाव बनाया गया. जबकि गवाह देने संबंधी पत्र जे एल गंगवानी से संबंधित ना होकर विश्वविद्यालय के कुलअनुशासक से संबंधित था. घटना 11 मई 2015 को हुई थी, लेकिन गवाही में घटना का उल्लेख 12 मई 2015 किया गया.
ये वो तमाम पहलू हैं, जिसे लेकर विश्वविद्यालय के कुलपति डाॅ. एस के पांडेय की कार्यप्रणाली पर लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं. हालांकि इन मामलों के परे जनप्रतिनिधि भी विश्वविद्यालय प्रशासन के रवैये से खासे नाराज बताए जा रहे हैं. कार्यपरिषद में जनप्रतिनिधियों को शामिल नहीं किया जा रहा है. विश्वविद्यालय के कार्यपरिषद में तीन साल के लिए जनप्रतिनिधियों को मनोनीत किए जाने का प्रावधान है, लेकिन पिछली कार्यपरिषद में शामिल किए गए जनप्रतिनिधियों का कार्यकाल खत्म हो जाने के बाद से अब तक किसी भी जनप्रतिनिधियों को परिषद में नहीं लिया गया. जबकि नियमों के मुताबिक विश्वविद्यालय प्रशासन को इसकी लिखित जानकारी शासन के समक्ष देनी होती है. चर्चा है कि आने वाले दिनों में विश्वविद्यालय के कुलपति के खिलाफ जनप्रतिनिधि भी मोर्चा खोल सकते हैं.