अनिल सिंह कुशवाह, भोपाल। आरएसएस का आदर्श वाक्य है ‘संघे शक्ति कलौयुगे’ यानी कलियुग में संगठन ही शक्ति है। किसी भी पुराने भाजपाई को पकड़ के पूछिए, वो राजनीति के लिए चार चीज़ों की ज़रूरत बताएगा।

अनिल सिंह कुशवाह

विचारधारा, कार्यकर्ता, संगठन और कार्यक्रम…कार्यक्रम यानी रोड मैप। और जब भी चुनाव नजदीक आते है तो इनमें दूसरे तत्व यानी कार्यकर्ताओं का महत्व अचानक बढ़ जाता है। लेकिन, मध्य प्रदेश में इस समय अजीब स्थिति है। दोनों प्रमुख दलों के पुराने कार्यकर्ता अपनी उपेक्षा से इतने खफा हैं कि उन्हें मनाने के लिए अब बड़े-बड़े नेताओं को उनके घर दस्तक देनी पड़ रही है। मतलब के लिए ही सही, लेकिन ‘गद्दीधारी’ नेताओं के होश तो ठिकाने आए ! पर सवाल यह है कि कार्यकर्ता आखिर आपको ‘सिंहासन’ पर बिठाने के लिए मेहनत क्यों करे ? राजनीति अब विचारों का आंदोलन या समाजसेवा कहां रह गई है ?
आमतौर पर राजनीति की तरफ दो तरह के लोग आकर्षित होते हैं। पहला जो समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं और दूसरा वे जो राजनीति को पद पैसा बनाने का जरिया समझते हैं। किसी आंदोलन या अभियान के दौरान कार्यकर्ता बनने वालों में पहले तरह के लोग ही ज्यादा होते हैं। अगर पार्टी के पास अभियान हो, तो पद-प्रतिष्ठा के लिए कार्यकर्ता बनने वाले भी परिवर्तित होकर मुद्दे के लिए काम करने लगते हैं।
भाजपा 15 सालों से मध्य प्रदेश की सत्ता में है। और ‘सत्ता आनंद’ में वह अपने पुराने कार्यकर्ताओं को सबसे जल्दी भूलने और उनकी उपेक्षा करने की गलती भी कर बैठी है। चाल, चरित्र और चेहरा, ये सब तो अब खूंटी पर टंगी बाते हो गई हैं। विचारधारा का जिक्र इसलिए, क्योंकि विचारधारा ही पार्टी की दिशा तय करती है और उसे अन्य दलों से अलग करती है। सदस्यता और सदस्यों की ट्रेनिंग के ज़रिये पार्टी कार्यकर्ता तैयार करती है, जिससे संगठन का ढांचा तैयार होता है जो पार्टी की रीढ़ बनता है।
यह सही है कि आज बीजेपी का देशभर में तेजी से विस्तार हो रहा है। असम और मणिपुर में बीजेपी की सरकार बनना पार्टी के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। इस समय 20 राज्यों में बीजेपी और उसके गठबंधन की सरकार है। लेकिन, जैसे-जैसे पार्टी का विस्तार हो रहा है, पार्टी का मूल कैडर उपेक्षित महसूस कर रहा है। बीजेपी कार्यकर्ताओं में अब यह जुमला आम है कि ‘घर की मुर्गी दाल बराबर।’ क्योंकि, पार्टी हाईकमान भोपाल से लेकर दिल्ली तक बाहरी लोगों को ज्यादा महत्व देने लगा है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी कांग्रेस को खत्म कर देश में भगवा झंडा लहराना चाहती है। अमित शाह का मानना है कि दूसरी पार्टियों के लोग, चाहे उनकी निष्ठा बीजेपी में हो या न हो, अगर चुनाव जीत सकते हैं तो उन्हें टिकट दे देना चाहिए।
इसी सोच के तहत पिछले साल उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान 403 सीटों में 150 से ज्यादा उम्मीदवार ऐसे थे जो​ कि बाहरी थे। आरके चौधरी जैसे ढेरों ऐसे लोग थे जो नामाकंन के आखिरी दिनों में पार्टी में शामिल हुए और सीधे टिकट लेकर चुनाव मैदान में अवतरित हुए। इनमें तकरीबन सभी चुनाव जीतकर विधायक बन गए। आधा दर्जन मंत्री भी बने हैं।
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पूर्वोत्तर में भी बीजेपी का पहली बार खाता खुला है। असम और मणिपुर में बीजेपी की सरकार बनी है। लेकिन, इन दोनों राज्यों की कमान जिन लोगों के हाथों में है वह भी बाहरी हैं। असम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनेवाल और उप-मुख्यमंत्री हेमंत विश्वशर्मा मूलरूप से कांग्रेसी रहे हैं। जिन एन बीरेन सिंह को बीजेपी ने मणिपुर की कमान सौंपी, वह भी कांग्रेसी हैं और चुनाव से ऐन पहले बीजेपी में शामिल हुए थे।
हकीकत यह है, पार्टी तो जीती लेकिन कार्यकर्ता हार गया है। जश्न के इस शोर में दो सवाल दब कर रह गए। पहला यह कि क्या पार्टी में कार्यकर्ताओं की बड़े पैमाने पर उपेक्षा हुई ? और दूसरा यह कि क्या बीजेपी भी कांग्रेस की राह पर चल पड़ी है ? इसकी तह में जाना होगा। क्योंकि, बीजेपी ऐसी पार्टी मानी जाती थी, जहां हमेशा से कार्यकर्ताओं को महत्व दिया जाता रहा है। उसकी सुनी जाती रही है। धनबल और बाहुबल के राजनीतिक दौर में भी बीजेपी अपने कमिटेड कार्यकर्ताओं पर ही भरोसा करती रही और उन्हें भी टिकट देती रही है, जिनके पास चुनाव लड़ने तक के पैसे नहीं होते थे। पार्टी उनका चुनाव खर्च उठाती और उनके लिए कपड़े से लेकर झंडे-बिल्ले और गाडियों का इंतजाम भी करती। इससे बीजेपी के साधारण और निर्बल कार्यकर्ताओं में एक विश्वास जगता था कि वे भी विधायक और मंत्री बन सकते हैं।
यही वजह रही कि बुरे से बुरे हालात में भी बीजेपी का कमिटेड कैडर उसके साथ बना रहा। लेकिन कैडर बेस पार्टी का ‘नया अवतार’ अब कार्यकर्ताओं में निराशा भर रहा है। येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल करने की कांग्रेस की राजकाज की नीतियों का विरोध कर खुद को ‘पार्टी विद डिफरेंस’ बताने वाली बीजेपी में भी अब कांग्रेसी संस्कृति का उदय हो गया है। लेकिन, राजनीति का अपना चरित्र है। सत्ता के साथ बहुत से लोग जुड़ जाते हैं। और जब सत्ता नहीं होती तो पार्टी में वही लोग बच जाते हैं, जिनकी पार्टी में पूर्ण निष्ठा होती है।
मध्य प्रदेश में भी संजय पाठक जैसे बाहरी और अवसरवादी लोगों की भरमार हो गई है। जिन लोगों ने खून-पसीने से अपने इलाके में बीजेपी की जमीन तैयार की, वहां दूसरे दलों के ये नेता आकर फसल काट रहे हैं। कई ऐसे मामले भी सामने आ चुके हैं कि जब बीजेपी का कमिटेड वर्कर क्षेत्र की समस्या या लोगों की सिफारिशें लेकर मंत्री या अधिकारियों के पास गया तो उसे दुत्कार कर भगा दिया गया। कार्यकर्ता अगर जनता से जुड़ा है, तो उसके पास तरह-तरह की जन समस्याएं आएंगी। जन समस्याओं को लेकर अगर वह अपने नेता के पास जाता है, तो इसे किसी भी तरह गलत नहीं कहा जा सकता है। क्षेत्र के जरूरतमंदों की मदद करके वह पार्टी का आधार भी बनाए रखता है। इससे पार्टी को नुकसान नहीं बल्कि लाभ ही होता है। इस तरह नेता भी कार्यकर्ता के जरिये जनता से जुड़ जाता है।
लेकिन, सत्ता मद में मंत्रियों ने इन कार्यकर्ताओं की उपेक्षा कर अधिकारियों के जरिए जनता से संवाद को ज्यादा महत्व दिया। चापलूसों और अवसरवादियों से घिरे मंत्रियों ने सार्वजनिक कार्यक्रमों में अपने पुराने कार्यकर्ता के गले में हाथ डालकर मुस्कराने में भी कंजूसी दिखाई। शायद यह सोचकर कि कहीं उसका कद न बढ़ जाए ?
ऐसे में पार्टी का कमिटेड वर्कर निराश हो घर बैठ गया है। और जो ‘सुविधाभोगी’ कार्यकर्ता हैं, उनके भरोसे अब ‘सत्ता का चौका’ लगाना मुश्किल है। जबकि, एंटी इनकंवेंसी पिछले दो चुनावों के मुकाबले इस बार कहीं ज्यादा है। कुछ अधिकारियों का मुख्यमंत्री और मंत्रियों से ऊपर हो जाना, 15 साल से एक ही दल और 13 साल से एक ही चेहरा, यह भी अब लोगों को उबाने लगा है। ये स्थितियां कांग्रेस को बड़ा अवसर भी दिखला रहीं हैं।
अंदरूनी और बाहरी सर्वे में बीजेपी को सत्ता का चौका मुश्किल नजर आने लगा है। और पहले से कहीं ज्यादा मेहनत भी करनी पड़ सकती है। यही कारण है, बीजेपी चुनाव अभियान समिति के संयोजक नरेंद्र सिंह तोमर और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह ‘चलो पंचायत’ अभियान के जरिए अब गांवों के वोटर्स के साथ-साथ अपने पुराने कार्यकर्ताओं को भी मनाने की कोशिश में जुट गए हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का ‘काफिला’ भी नाराज कार्यकर्ताओं के घरों की ओर रुख करने लगा है। पिछले दिनों गंजबासौदा में सभा के बाद मुख्यमंत्री रात डेढ़ बजे तक आधा दर्जन कार्यकर्ताओं के घर चाय के बहाने कुशलक्षेम पूछने पहुंचे। तो कांग्रेस के ‘दिग्गज’ दिग्विजय सिंह भी 31 मई से 31 अगस्त तक कांग्रेस कार्यकर्ताओं को मनाने उनके घर जाने वाले हैं। यानी, कार्यकर्ताओं की नाराजगी की चुनौती दोनों तरफ है। ‘अवसरवादी’ राजनीति में इसे अच्छा ‘टर्निंग पाइंट’ कह सकते हैं। चुनाव के समय ही सही, कार्यकर्ताओं की पूछ-परख तो बढ़ी। लेकिन बात वही, ‘खनखनाती वो तिजोरी, हम तो ठनठन बेहाल हैं..!’