विक्रम मिश्र, लखनऊ. यूं तो उत्तर प्रदेश अपने अलहदा व्यवहार और फक्कड़पन के लिए जाना जाता है. यूपी की सियासत का क्या ही कहना. यहां से दिल्ली की सियासत तैयार होती है. हालांकि इस वक़्त यूपी अलग ही रंग में सियासत करने को तैयार दिखाई दे रहा है. मंडल बनाम कमंडल तो आपको याद ही होगा, बस यूपी उसी तरफ अग्रसर होता दिख रहा है. समाजवादी पार्टी की तरफ से पीडीए कांग्रेस की जातिगत जनगणना और बसपा का अपने कोर वोटर्स को फिर से अपने पास लाने की कोशिश इसको बलवती करती है.
भाजपा भी इसमें पीछे नहीं है. भारतीय जनता पार्टी का दलित वोटर्स को अपने साथ रखने पर ही 2014 2019 और 2024 के लोकसभा चुनाव में जीत मिली थी. साथ ही साथ 2017 और 2022 के चुनाव में यूपी में सरकार बनाने में कामयाबी मिली थी.
लेकिन इस समय जब सभी सियासी दल गठबंधन में है या फिर गठबंधन की फिराक में है तो भजपा के लिए आने वाला समय मुश्किल भरा दिखाई दे रहा है.
मायावती और सपा के बीच धन्यवाद से बन रही बात?
कांग्रेस और सपा फिलहाल गठबंधन में तो है ही, साथ ही हाल के दिनों में भाजपा विधायक द्वारा मायावती पर की गई टिप्पणी से एक और समीकरण बनता हुआ नजर आता है. ऐसे में NDA गठबंधन के साथ जो जातीय राजनीति करने वाली पार्टियों पर ज़्यादा दबाव है. हालांकि राजनीतिक मामलों के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार रतन मणि लाल के मुताबिक भाजपा के साथ खड़ी पार्टियां सुभासपा और निषाद पार्टी की साख बचाने की चुनौती है.
मायावती और अखिलेश के दांव से भाजपा परेशान!
सपा का पीडीए और मायावती का दलित वोटर्स को फिर से अपने पाले में बिठाने की कोशिश अगर सफल होती है तो निश्चित ही भाजपा को सियासी समीकरण साधने की चुनौती हो जाएगी. जिस तरह से विधानसभा में माता प्रसाद पांडेय को नेता विरोधी दल बनाकर ब्राह्मण/स्वर्ण वोट बैंक को भी साधने की कोशिश समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के तरफ से की गई है। वो भी भाजपा कोर वोटर्स में सेंधमारी जैसी ही लग रही है.
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आपको मायावती का सोशल इंजिनयरिंग भी याद होगा ही, माया इस ही प्रयोग से पूर्ण बहुमत की सरकार को पूरे पांच साल चलाया था. ऐसे में भाजपा के सियासतदां भी सजग होकर विपक्षी दलों की काट के लिए नए समीकरण को बनाने की कोशिश में लग गए है.
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