अनिल सिंह कुशवाह. एक बार राजा के दरबार में एक फ़कीर गाना गाने जाता है। फ़कीर बहुत अच्छा गाना गाता है। राजा कहते हैं इसे खूब सारा सोना दे दो। फ़कीर और अच्छा गाता है। राजा कहते हैं इसे हीरे जवाहरात भी दे दो। फकीर और अच्छा गाता है। राजा कहते हैं इसे असरफियाँ भी दे दो। फ़कीर और अच्छा गाता है। राजा कहते हैं इसे खूब सारी ज़मीन भी दे दो। फ़कीर गाना गा कर घर चला जाता है। और अपने बीबी बच्चों से कहता है कि आज हमारे राजा जी ने गाने का खूब सारा इनाम दिया है। हीरे, जवाहरात, सोना, ज़मीन, असरफियाँ बहुत कुछ दिया है। सब बहुत खुश होते हैं। कुछ दिन बीते। फ़कीर को अभी तक मिलने वाला इनाम नही पहुँचा था। फ़कीरे दरवार में फिर पहुँचा, कहने लगा- ‘राजा जी आप के द्वारा दिया गया इनाम मुझे अभी तक नहीं मिला।’ राजा कहते हैं- अरे फ़कीर ये लेन-देन की बात क्या करता है। ‘तू मेरे कानों को खुश करता रहा और मैं तेरे कानों को खुश करता रहा।’ क्या मध्य प्रदेश में भी ऐसी कोई स्थिति है ?

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान शायद पहले ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने सबसे ज्यादा घोषणाएं की, और पहले ऐसे मुख्यमंत्री भी हैं, जिनकी सबसे ज्यादा घोषणाएं पेंडिंग हैं। खैर, विधानसभा चुनाव से पहले मुख्यमंत्री इनदिनों प्रदेश भर में घूम-घूम कर किसानों और आम लोगों की नाराजगी दूर करने की कोशिश कर रहे हैं। तेंदूपत्ता संग्राहक सम्मेलनों के जरिए बड़े ‘वोट बैंक’ को कोख में आने से लेकर व्यक्ति की अंत्येष्टि तक की योजनाएं भी गिना रहे हैं। बताने और सुनने में योजनाएं इतनी अच्छी लग रही हैं कि अब तक तो मध्य प्रदेश में ‘रामराज्य’ आ जाना चाहिए। लेकिन, सच्चाई क्या है ? यह जानना भी जरूरी है।

पिछले दिनों सिंगरौली के तेंदूपत्ता संग्राहक सम्मेलन में मुख्यमंत्री जिस वक्त ‘भांजियों’ की चिंता और उनको लेकर चलाई जा रहीं योजनाओं का जिक्र कर रहे थे, उसी दौरान उनके गृह जिले सीहोर में दो बेटियां पुलिस से जूझ रहीं थी, मिन्नतें कर रहीं थी कि उनके गरीब पिता को जेल न ले जाएं। ये बेटियां पुलिस वाहन के सामने खड़ी हो गईं। लेकिन, पुलिस तो पुलिस है, इनके पिता को घसीटकर ले गई। लड़कियों का कहना था दबंग जमीन पर कब्जा करना चाहते हैं, माँ जीवित नहीं हैं और पिता भी जेल चले जाएंगे तो वे और 6 बहनें कैसे रहेंगी ? मुख्यमंत्री जब मण्डियों का बखान कर किसानों का एक-एक दाना खरीदने का दावा कर रहे थे, उसी वक्त दमोह में कुछ किसान अपना अनाज नहीं बिकने से हताश हो मंडी कर्मचारी को पीट रहे थे। सिंगरौली के इसी सम्मेलन में जब मुख्यमंत्री किसानों को जीरो ब्याज दर की उपलब्धि गिना रहे थे, उसी दौरान प्रदेश में दो किसान आत्महत्या कर रहे थे।

जब सरकारी योजनाएं, नीतियां और शासन व्यवस्था इतनी अच्छी हैं तो फिर ये असंतोष और ये विरोधाभाष क्यों ? क्यों किसानों को एक बार फिर अपनी खेतीबाड़ी छोड़ कर सड़कों पर उतरना पड़ गया है ? सच्चाई को झुठलाने के लिए मान भी लिया जाए कि ये किसी दल या संगठन विशेष द्वारा पोषित आंदोलन है। लेकिन, कोई तो ऐसी बजह होगी जो किसान सरकार पर भरोसा न कर इस आंदोलन से जुड़ रहा है ?

पुलिस की सख्ती के कारण दो दिन जरूर आंदोलन का ज्यादा असर दिखाई नहीं दिया। लेकिन, अब कई जिलों से ऐसी खबरें आने लगी है कि कहीं किसान दूध सड़कों पर फैंकने लगा है तो कहीं मंडियों में सब्जी की किल्लत शुरू हो गई है। पिछले साल भी इसी अवधि के दौरान किसान आंदोलन हुआ था, और एक सप्ताह में ही इतना उग्र हो गया कि इसे अब ‘मंदसौर गोली कांड’ के नाम से याद किया जाता है। बीजेपी के सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का ग्राफ भी पहली बार इसी आंदोलन के कारण गिरता हुआ दिखा। ‘इमेज मेकअप’ के लिए टैक्स की मार झेल रही जनता के धन से फिर मृतक किसानों के परिजनों को एक-एक करोड़ रुपए देने पड़े।

दरअसल, मध्य प्रदेश के कुछ अफसर आंकड़े प्रस्तुत करने में बड़े हो’शियार’ हैं। वह सत्ता को अपने हिसाब से चलाना चाह रहे हैं और सत्ता में बैठे हमारे प्रतिनिधि इन आंकड़ों से गदगद हैं। यानी, आंकड़ें खरीदे जा रहे और आंकड़ें ही बेचे जा रहे हैं। शब्दों की ‘बाजीगरी’ के बाद ये आंकड़े और अच्छे लगते हैं। अब कहा जा रहा है कि मध्य प्रदेश में इस समय चना ‘पगला’ गया है। चने की इतनी पैदावार हुई है कि किसान खुशहाल हो गए हैं। प्रदेश को ‘हिप्नोटिज्म’ किया जा रहा है कि अन्नदाता अब खुश है और खेती ‘लाभ का धंदा’ बन गई है।

यह सही है कि सरकारी मंडियों में ‘ऊंचे दाम’ देकर चने की बम्पर खरीदी की गई है। उस बालाघाट में भी, जहां चने की खेती ही नहीं है। फिर भी बालाघाट की मंडी में 23 हजार क्विंटल चना बिकने आ गया। जब पैदावार ही नहीं हुई तो ये हजारों क्विंटल चना कहां से आ गया ? यह जांच का विषय होना चाहिए। कहीं ये ‘चना घोटाला’ तो नहीं ? बालाघाट तो सिर्फ एक उदाहरण है। प्रदेश के 21 जिलों की मंडियों में इस बार उत्पादन से ज्यादा आवक हुई है। यानी, करोड़ों रुपये की खरीदी, लेकिन ये ‘ऊंचे दाम’ किसकी जेब में चले गए ?

जीएसडीपी (सकल राज्य घरेलू उत्पाद) के आंकड़े भी आश्चर्यचकित करने वाले हैं। 2014-15 में जीएसडीपी 5.4% से बढ़कर 2016-17 में 12.2% हो गया। कृषि क्षेत्र में वृद्धि दर 2014-15 में 3.7% से बढ़कर 2016-17 में 20.4% हो गई। यही तो कला है मध्य प्रदेश के अफसरों की।

मुख्यमंत्री के दावे सही होने चाहिए कि कृषि में मध्य प्रदेश की स्थिति बदतर से बेहतर हुई है और राज्य अब बीमारू राज्यों को श्रेणी से बाहर आ गया है। लेकिन, ये आंदोलन, ये असंतोष और किसानों की वर्तमान स्थिति सरकारी आंकड़ों का समर्थन करती नहीं दिख रही है। जिस राज्य को पांच बार कृषि कर्मण पुरस्कार मिला, उसी राज्य में अन्नदाता नाखुश क्यों है ? जिस राज्य में ‘हैप्पीनेस मंत्रालय’ है, वहीं सबसे ज्यादा किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं ?

मुख्यमंत्री, कृषि मंत्री, वित्त मंत्री, गृह मंत्री और ग्रामीण विकास मंत्री, जिन जिले या संभागों की नुमाइंदगी करते है, कम से कम वहां से तो इस तरह की खबरें नहीं आना चाहिए ? लेकिन, किसानों के आत्महत्या की सबसे ज्यादा घटनाएं इन्ही जिलों में सामने आईं।

पूरे प्रदेश की बात करें तो पिछले 6 सालों में 6594 किसानों का बीच सफर में ही जान दे देना, सामान्य घटना नहीं है। किसानों की आत्महत्या सरकार, विपक्ष और समाज, तीनों के लिए बेहद शर्मनाक है। आखिर वे कौन सी परिस्थितियां हो सकती हैं ? जिसकी वजह से किसान, जो सबके लिए अनाज पैदा करता है वह आत्महत्या करने को मजबूर हो जाता है ? बम्पर पैदावार के बाद भी क्यों उसकी आर्थिक स्थिति नहीं सुधर रही ? सबके पेट भरने वाला क्यों खुद आधे पेट सोने को मजबूर है ?

अभागा अन्नदात जान देकर भी क्यों ‘व्यवस्था’ को नहीं झकझोर पा रहा है ? शायद इसलिए कि जब भी प्रदेश के किसी हिस्से से किसान के आत्महत्या की खबरें आती हैं तो प्रशासन सिर्फ इसी कोशिश में जुट जाता है कि जान देने का वास्तविक कारण सामने नहीं आ पाए। मौत को कर्ज या फसल बीमा की असफलता से न जोड़ा जा सके। ताकि बेईमान अफसरों की गर्दन न नप सके, सरकार की बदनामी न हो और ‘वोट बैंक’ पर चोट न पड़े। ऐसे में किसान की आत्महत्या को या तो पारिवारिक कारण, पागलपन या फिर बीमारी से त्रस्त ठहरा दिया जाता है ।

किसान ‘कर्ज’ और ‘मर्ज’ के मकड़जाल में ऐसा जकड़ा हुआ है कि उसके सामने आखिरी रास्ता फिर जान देना ही रह जाता है। किसानों की खराब हालत के लिए व्यवस्था में पसरा कथित भ्रष्टाचार भी जिम्मेदार है। तभी तो जरूरतमंद किसानों को सरकारी योजनाओं का उचित लाभ नहीं मिल पाने की शिकायतें बहुत हैं। सरकारी योजनाओं में तमाम ऐसी खामियां हैं, जो अफसरों की मनमर्जी, कमीशनखोरी और बिचौलियों की संख्या बढ़ा रही है। क्रियान्वयन में भरी खोट है, गहरी खाई है।

फिर भी सत्तारूढ दल के लिए इससे बड़ा सुकून क्या होगा की विपक्ष उस तरह के तेवर अब तक नहीं दिखा पाया है, जैसा विपक्ष में रहते बीजेपी दिखाया करती थी। लेकिन ‘सुशासन’ की सोच सत्ता में आते ही ‘दरबारी, सरकारी और बाहरी’ में घिर कर रह गई..!