रायपुर- कृषि मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने कहा है कि रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशक दवाओं आदि के उपयोग से कृषि की लागत बढ़ने से खेती अब कम लाभकारी व्यवसाय बनती जा रही है, ऐसे में ‘‘शून्य बजट – प्राकृतिक खेती’’ की अवधारणा न केवल किसानों बल्कि देश और समाज के लिए भी कल्याणकारी साबित हो रही है. उन्होंने कहा कि ‘‘शून्य बजट-प्राकृतिक कृषि’’ ऐसी तकनीक है जिसमें कृषि करने के लिए न किसी रासायनिक उर्वरक का उपयोग किया जाता है और ना ही बाजार से कीटनाशक दवाएं खरीदने की जरूरत पड़ती है. अग्रवाल ने इस पद्धति के आविष्कारक पद्मश्री सुभाष पालेकर के प्रति आभार व्यक्त किया और घोषणा की कि छत्तीसढ़ में कृषि विभाग, बीज निगम और कृषि विज्ञान केन्द्रों के प्रक्षेत्रों में पांच-पांच एकड़ क्षेत्र में ‘‘शून्य बजट-प्राकृतिक कृषि’’ प्रारंभ की जाएगी.
बृजमोहन अग्रवाल आज यहां कृषि महाविद्यालय, रायपुर के सभागार में कृषि एवं जैव प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा ‘‘शून्य बजट-प्राकृतिक कृषि’’ पर आयोजित दो दिवसीय कार्यशाला का शुभारंभ कर रहे थे. कृषि मंत्री ने कहा कि छत्तीसगढ़ के 75 प्रतिशत से अधिक किसान सीमान्त या छोटे किसान हैं, जिनकी जोत का आकार छोटा होने के साथ ही कृषि में निवेश की सीमित क्षमता है. ऐसे किसानों के लिए महंगे संसाधनों वाली खेती कर पाना संभवन नहीं है. ऐसी स्थिति में शून्य बजट-प्राकृतिक खेती एक अच्छा विकल्प है. यह खेतों के साथ-साथ मानव और पशु स्वास्थय तथा पर्यावरण के लिए भी सुरक्षित पद्धति है. अग्रवाल ने कृषि विभाग के अधिकारियों को आगामी माह की 15 तारीख के पूर्व यहां पांच हजार किसानों का प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करने के निर्देश दिये. कृषि उत्पादन आयुक्त सुनील कुजूर ने इस अवसर पर कहा कि शून्य बजट-प्राकृतिक खेती एक बहुत अच्छी अवधारणा है जिसमें न्यूनतम निवेश से अधिकतम लाभ प्राप्त किया जा सकता है. उन्होंने कहा कि पालेकर द्वारा लंबी अवधि तक किये गये प्रयोगों और अनुसंधानों के अच्छे नतीजे मिले हैं और आज केवल आन्ध्रप्रदेश के तीन हजार गावों के लगभग पांच लाख किसान इस कृषि पद्धति को अपना चुके हैं. उन्होंने बताया कि छत्तीसगढ़ के कृषि विभाग के 48 कृषि अधिकारियों को आन्ध्रप्रदेश भेजा जा रहा है जो वहां इस कृषि पद्धति का अध्ययन करेंगे.
शून्य बजट-प्राकृतिक कृषि अवधारण के प्रवर्तक पद्मश्री सुभाष पालेकर ने कहा कि रासायनिक खेती में अधिक लागत आती है, इससे खेत खराब होते हैं और मानव, पशुओं तथा पर्यावरण के स्वास्थय पर बुरा प्रभाव पड़ता है. उन्होंने कहा कि आदिवासी क्षेत्रों में काम करने के दौरान उन्होंने पाया कि जंगलों में एक स्व-विकसित, स्वयं पोषित और पूरी तरह से आत्म निर्भर प्राकृतिक व्यवस्था विद्यमान है. उस पारिस्थितिकी तंत्र में वनस्पतियों का बेहतर विकास होता है. उन्होंने इन प्राकृतिक प्रक्रियाओं का अपने खेतों पर परीक्षण कर शून्य बजट-प्राकृतिक कृषि की पद्धति विकसित की है. उन्होंने कहा कि रासायनिक कृषि से शुरू में उत्पादन बढ़ता है लेकिन कुछ सालों बाद उत्पादन में गिरावट आने लगती है जबकि प्राकृतिक कृषि में उत्पादन लगातार बढ़ता है, फसल की गुणवत्ता बेहतर होती है और खेती की लागत कम होती है. इस पद्धति का मानव स्वास्थय एवं पर्यावरण पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है. पालेकर कहा कि यह प्राकृतिक कृषि की यह पद्धति दिनों-दिन लोकप्रिय हो रही है और आज माहाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना, आन्ध्रप्रदेश, तमिलनाडु, केरल, पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और गुजरात राज्यों के लगभग 30 लाख किसान शून्य बजट-प्राकृतिक कृषि कर रहे हैं. आन्ध्रप्रदेश के कृषि सलाहकार टी. विजय कुमार ने आन्ध्रप्रदेश में शून्य बजट-प्राकृतिक कृषि के तहत संचालित गतिविधियों तथा परिणामों की जानकारी दी.
शुभारंभ समारोह में कृषक कल्याण परिषद के उपाध्यक्ष .विशाल चन्द्राकर, सचिव कृषि .अनूप श्रीवास्तव, छत्तीसगढ़ कामधेनु विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. एन.पी. दक्षिणकर, मंडी बोर्ड के प्रबंध संचालक .अभिजित सिंह, संचालक उद्यानिकी .नरेन्द्र पाण्डेय तथा संचालक कृषि एवं जैव प्रौद्योगिकी विभाग .एम.एस. केरकेट्टा भी उपस्थित थे. इस कार्यशाला में कृषि, उद्यानिकी, पशुपालन विभागों तथा संबंधित संस्थाओं के राज्य, जिला तथा विकासखंड स्तरीय अधिकारी, इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय तथा कामधेनु विश्वविद्यालय प्रशासन के अधिकारी तथा वैज्ञानिक और प्रदेश के सभी जिलों से पांच सौ से अधिक प्रगतिशील कृषक शामिल हुए.