होली का पर्व देश में अलग-अलग रीति रिवाज के साथ मनाया जाता है. बरसाने, बनारस की लठमार होली प्रसिद्ध है, तो वहीं पंजाब में होला मोहल्ला, गोवा में पांच दिनों तक चलती है होली. राजस्थान की बात करें तो यहां हर 5सौ किमी के बाद होली का अंदाज बदल जाता है. राजस्थान में होली के अनोख अंदाज देखने को मिलते हैं.

शेखावाटी : चंग व गींदड की धूम

सीकर, चूरू और झुंझुनूं में चूड़ीदार पायजामा-कुर्ता या धोती-कुर्ता पहनकर कमर में कमरबंद और पांवों में घुंघरू बांधकर ‘होली’ के दिनों में किये जाने वाले चंग नृत्य के साथ होली के गीत भी गाए जाते हैं. होली के एक पखवाडे पहले गींदड शुरू हो जाता है. पुरुष चंग को अपने एक हाथ से थामकर और दूसरे हाथ से कटरवे का ठेका से व हाथ की थपकियों से बजाते हुए वृत्ताकार घेरे में सामूहिक नृत्य करते हैं. साथ में बांसुरी व झांझ बजाते रहते हैं. पैरों में बंधे घुंघरू की आवाज मनभावन लगती है. इसमें भाग लेने वाले कलाकार पुरुष ही होते हैं, उन्हीं में से कुछ कलाकार महिला वेष धारण कर लेते हैं, जिन्हें ‘महरी’ कहा जाता है. कलाकार भांग पीकर चंग बजाते हुए नृत्य करते है. Read More – देश के आकर्षक और लोकप्रिय शहरों में से एक है अमृतसर, यहां घूमने लायक है बहुत सी जगह …

अजमेर के पुष्कर में कपड़ाफाड़ होली खेली

अजमेर के पुष्कर में कपड़ाफाड़ होली खेली जाती है. पुष्कर में सबसे अलग अंदाज में होली मनायी जाती है. इस आयोजन में सैकड़ों की संख्या में देशी-विदेशी पर्यटक होली का आनंद लेने यहां पहुचते हैं. कपड़ाफाड़ होली का आयोजन वराह घाट चौक चौराहे पर होता है. यहां पहुचने वाले पर्यटक डीजे के संगीत पर रंग-बिरंगी गुलाल उड़ाते हुए घंटों तक ऐसे ही मस्ती करते रहते हैं. इस आयोजन की खास बात यह है कि इसमें प्रत्येक पुरुष की शर्ट फाड़ कर तारों पर बांध दी जाती है. जमीन के काफी ऊपर एक रस्सी बंधी होती है. जिस पर फटे हुए कपड़े फेंके जाते है. कपड़ा अगर रस्सी पर लटक जाता है तो सभी लोग ताली बजाते है और अगर कपड़ा नीचे गिर जाता है तो सभी लोग हाय-हाय करते है.

भरतपुर और करौली में होती है लठमार होली

उत्तर प्रदेश के मथुरा से लगे होने और ब्रज प्रदेश में आने के कारण भरतपुर और उसके बाद करौली में नंदगांव और बरसाना की तरह लोग लमार होली का लुत्फ उठाते हैं. इस लमार होली को राधा-कृष्ण के प्रेम से जोड़कर देखा जाता है. पुरुष महिलाओं पर रंग बरसाते हैं तो राधा रूपी गोपियां उन पर लाठियों से वार करती हैं. उनसे बचते हुए पुरुषों को महिलाओं पर रंग डालना होता है.

जयपुर के गोविंद देवजी मंदिर फूलों की होली

वैसे तो फूलों की होली मथुरा-वृन्दावन के मंदिरों में खूब खेली जाती है. लेकिन जयपुर के आदिदेव गोविंद देवजी के मंदिर में होली का त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है. यहां ब्रज की तर्ज पर फूलों की लाल और पीली पंखुडिय़ों के साथ होली खेली जाती है. यहां संगीत और नृत्य का मनभावन संगम होता है. यहां गुलाब और अन्य फूलों से होली खेली जाती है. इस दौरान राधा-कृष्ण के प्रेमलीला का मनोहरी मंचन भी होता है.

बारां में सहरिया का आठ दिन फूलडोल लोकोत्सव

बारां जिले के किशनगंज, शाहाबाद, मांगरोल क्षेत्र में सहरिया जाति का आदिवासी नृत्य विदेशों तक में ख्याति प्राप्त कर चुका है. किशनगंज कस्बे में सवा सौ साल से ज्यादा समय से धुलंडी के दिन फूलडोल लोकोत्सव मनाया जाता है. इस लोकोत्सव में वैसे तो कई झांकियां सजाई जाती हैं, लेकिन उनमें सहरिया नृत्य की विशेष भूमिका होती है. सहरिया क्षेत्र के गांवों में आज भी होली के आठ दिन पहले से ही लोग रात-रात भर फाग गाते रहते हैं. चौपालों में ग्रामीण परंपरागत वाद्य यंत्रों के साथ फाग गाते रहते हैं.

बूंदी के नैनवां में मनाया जाता है हडूडा त्योहार

रंगों का त्योहार हाड़ौती में अलग-अलग तरीके से रियासतकाल से मनाया जाता है. चाहे हम बारां जिले के किशनगंज-शाहाबाद के सहरिया अंचल की लोक परंपरा की बात करें. या फिर बूंदी जिले के नैनवां क्षेत्र में मनाए जाने वाले हडूडा लोकोत्सव की. बूंदी जिले के नैनवां कस्बे में 150 साल से हर साल धुलंडी पर राजा मालदेव व रानी मालदेवकी का विवाह होता है. इस पुरुष प्रधान लोक पर्व में महिलाओं का प्रवेश तक नहीं होता. लोग दो समूहों में बंट जाते है. एक राजा मालदेव की बारात में शामिल होते हैं. वहीं दूसरे रानी मालदेवकी के ब्याह की तैयारियों में जुटते हैं.

सांगोद में न्हाण लोकोत्सव का है विशेष महत्व

हाड़ौती के ही सांगोद में पांच दिवसीय न्हाण का विशेष महत्व है. रियासत काल से आयोजित होने वाले इस लोकपर्व का आगाज सोरसन स्थित ब्रह्माणी माताजी की सवारी के साथ होता है. इसके बाद पांच दिन तक मुद्दों, राजनीति पर व्यंग्यात्मक झांकियां सजाकर सवारी निकाली जाती है. इस दौरान कई हैरतअंगेज करतबों का अनूठा प्रदर्शन भी देखने को मिलता है.

डूंगरपुर में अंगारों पर चलने की परंपरा

वागड़ अंचल में आने वाले डूंगरपुर जिले में सबसे जुदा अंदाज में होली खेली जाती है. वागड़वासियों पर होली का खुमार एक महीने तक रहता है. होली के तहत जिले के कोकापुर गांव में लोग होलिका के दहकते अंगारों पर नंगे पांव चलने की परंपरा निभाते हैं. मान्यता है कि अंगारों पर चलने से घर में विपदा नहीं आती.

वागड़ और सरहदी जिलों में पत्थरमार होली

राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में आदिवासी भी होली के त्योहार को अपने ही अंदाज में मनाते हैं. खासकर बांसवाड़ा, बाड़मेर, बारां आदि में आदिवासी पत्थरमार होली खेलते हैं. ढोल और चंग की आवाज जैसे-जैसे तेज होती है, वैसे-वैसे हुरियारे दूसरी टीम पर तेजी से पत्थर मारना शुरू कर देते हैं. बचने के लिए हल्की-फुल्की ढाल और सिर पर पगड़ी का इस्तेमाल होता है. पत्थरमार होली छोटे रूप में जैसलमैर में भी मनाई जाती है. यहां पर कंकड़मार कर होली की बधाई दी जाती है.

दो सदी पुरानी भीलूडा की खून भरी होली

डूंगरपुर के ही भीलूडा में खूनी होली खेली जाती है. पिछले 200 साल से धुलंडी पर लोग खतरनाक पत्थरमार होली खेलते आ रहे हैं. डूंगरपुरवासी रंगों के स्थान पर पत्थर बरसा कर खून बहाने को शगुन मानते हैं. भारी संख्या में लोग स्थानीय रघुनाथ मंदिर परिसर में एकत्रित होते हैं. फिर दो टोलियों में बंटकर एक दूसरे पर पत्थर बरसाना शुरू कर देते हैं. इसमें कुछ लोगों के पास ढ़ाले भी होती हैं लेकिन हर साल कई लोग इस खेल में गंभीर रूप से घायल हो जाते हैं और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया जाता है. Read More – Holi 2023 : क्या है Holika Dahan का महत्व, जानिए दहन में लगने वाली पूजन सामग्री, इसकी विधि और कथा …

पंजाब से सटे जिलों में कोड़ामार होली

पंजाब से सटे श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ में कोड़ामार होली की परंपरा है. होली मनाने के इस खास अंदाज में यहां देवर-भाभी के बीच कोड़े वाली होली काफी चर्चित है. होली पर देवर-भाभी को रंगने का प्रयास करते हैं और भाभी-देवर की पीठ पर कोड़े मारती है. इस मौके पर देवर-भाभी से नेग भी मांगते हैं. इसके अलावा ढोल की थाप और डंके की चोट पर जहां महिलाओं की टोली रंग-गुलाल उड़ाती निकलती है. वहीं महिलाओं की मंडली किसी सूती वस्त्र को कोड़े की तरह लपेट कर रंग में भिगोकर इसे मारती हैं तो होली का समां बंध जाता है.

भीलवाड़ा में होली पर ‘मुर्दे’ की सवारी

भीलवाड़ा जिले के बरून्दनी गांव में होली के सात दिन बाद शीतला सप्तमी पर खेली जाने वाली लठमार होली का अपना एक अलग ही मजा है. यहां होली के बाद बादशाह की सवारी निकाली जाती है, वहीं शीतला सप्तमी पर चित्तौडग़ढ़ वालों की हवेली से मुर्दे की सवारी निकाली जाती है. इसमें लकड़ी की सीढ़ी बनाई जाती है और जिंदा व्यक्ति को उस पर लिटाकर अर्थी पूरे बाज़ार में निकालते हैं. इस दौरान युवा इस अर्थी को लेकर पूरे शहर में घूमते हैं. लोग इन्हें रंगों से नहला देते हैं.

बीकानेर और भीनमाल में गोटा गैर व डोलची होली

डोलची होली की बीकानेर में और गोटा गैर की भीनमाल, सिरोही आदि में परंपरा है. गोटा गैर होली में पुरुष मंडली समूह में हाथों में डंडे लेकर नृत्य करते हैं. अब इस परंपरा से नया चलन आ गया है. बीकानेर में होली एक अनूठे रूप में खेली जाती है. यहां दो गुटों में पानी डोलची होली खेली जाती है. जहां चमड़े की बनी डोलची में पानी भरकर एक-दूसरे गुटों पर डाला जाता है. इस होली में सैकड़ों लोग भाग लेते हैं

जालौर के आहौर में आदिवासियों की होली

राजस्थान के जालौर के आहौर में पत्थरमार होली खेली जाती है. पत्थरमार होली राजस्थान के आदिवासी खेलते है. पत्थरमार होली ढ़ोल और चंग पर खेली जाती है. ढ़ोल और चंग की आवाज जैसे-जैसे तेज होती जाती है वैसे-वैसे दूसरे टीम को तेजी से पत्थर मारना शुरु कर देते है. बचने के लिए हल्की-फुल्की ढाल और सिर पर पगड़ी का इस्तेमाल होता है.

मारवाड़-गोडवाड में गेर नृत्य और गालियां

पाली के ग्रामीण इलाकों में फाल्गुन लगते ही गेर नृत्य शुरू हो जाता है. यह नृत्य, डंका पंचमी से भी शुरू होता है. फाल्गुन के पूरे महीने रात में चौखटों पर ढोल और चंग की थाप पर गेर नृत्य किया जाता है. मारवाड-गोडवाड इलाके में डांडी गैर नृत्य बहुत होता है और यह नृत्य इस इलाके में खासा लोकप्रिय है. यहां फाग गीत के साथ गालियां भी गाई जाती हैं. यहां स्त्री और पुरुष सभी साथ में मिलकर गेर नृत्य करते हैं.

राजसमंद के नाथद्वारा में दूध-दही की होली

राजसमंद के नाथद्वारा में होली के पहले दूध-दही की होली खेली जाती है. नाथद्वारा में कृष्ण स्वरुप श्रीनाथ जी का विशाल मंदिर है. दूध-दही की होली में विशाल महोत्सव का आयोजन किया जाता है. सुबह जल्दी श्रीनाथ जी की प्रतिमा को पंचामृत से स्नान कराया जाता है. सैंकड़ों की संख्या में श्रीनाथ के भक्त उनके द्वारे पहुंचते हैं. दूध-दही में केसर मिलाकर श्रीनाथ जी को भोग लगाया जाता है. इसके बाद दूध-दही की होली खेली जाती है. फिर भक्तों द्वारा नाथ जी के भजन-कीर्तन किये जाते हैं. यह नंद महोत्सव की तरह ही मनाया जाता है.