शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिए जाते हुए स्वामी विवेकानंद जी ने अपने युवा मित्रों को एक चिट्ठी लिखी थी। इस चिट्ठी में उन्होंने दुनिया को देखते हुए अपनी अनुभूतियों का वर्णन किया है। उन्होंने इस बात पर क्षोभ भी व्यक्त किया है कि तुलनात्मक रूप से भारत के युवा कितने दिशाहीन हैं।

विवेकानंद जी ने लिखा है “… और तुम लोग क्या कर रहे हो। जीवनभर केवल बेकार की बातें किया करते हो।आओ, इन लोगों को देखो, और उसके बाद जाकर लज्जा से अपना मुंह छिपा लो। सठियाई बुद्धिवालों, तुम्हारी तो देश से बाहर निकलते ही जाति चली जाएगी। अपनी खोपड़ी में वर्षों के अंधविश्वास का कूड़ा-कर्कट भरे बैठे, भला बताओ तो सही तुम कौन हो? और इस समय क्या कर रहे हो?“
ये उन्हीं विवेकानंद जी के शब्द हैं, जिन्होंने दुनिया में भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता का डंका बजाया। वे जानते थे कि हम दुनिया में श्रेष्ठ हैं, लेकिन यह भी जानते थे ये श्रेष्ठता हमारी अपनी कमाई हुई नहीं है, बल्कि पुरखों से विरासत में मिले गौरव को हम भोग रहे हैं। उनकी मूल चिंता यही थी कि आत्ममुग्धता में अपनी यह श्रेष्ठता कहीं हम खो न बैठें।

विवेकानंदजी ने 1893 में शिकागो धर्म सम्मेलन में हिस्सा लिया था। इस तरह विवेकानंदजी द्वारा अपने युवा दोस्तों के नाम चिट्ठी में लिखे शब्द एक सदी से ज्यादा पुराने हो चुके हैं, लेकिन इन शब्दों में उन्होंने जो चिंताएं व्यक्त की थीं, वह कहीं और ज्यादा घनी हो चुकी हैं।
स्वामीजी में राष्ट्र के गौरव को पुनर्स्थापित करने की ललक थी, और वे इस काम के लिए युवाओं से ही सबसे ज्यादा उम्मीद कर रहे थे। वे युवाओं से पूछ रहे थे- “भला बताओ तो सही, तुम कौन हो? और इस समय क्या कर रहे हो?“

विवेकानंद अपने इस सवाल में युवाओं को इंगित कर रहे थे कि तुम्हें दुनिया की श्रेष्ठतम् भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक होना चाहिए, क्योंकि तुम्हीं उसके संवाहक हो। लेकिन “तुम तो बेकार की बातें किया करते हो। अपनी खोपड़ी में वर्षों के अंधविश्वास का कूड़ा-कर्कट भरे बैठे हो। देश से बाहर निकलते ही तुम्हारी जाति चली जाएगी।“

विवेकानंद इंगित कर रहे थे कि तुम भारतीय संस्कृति के पोषक युवा हो और अंधविश्वास तथा जड़ता ने तुम्हें अपनी चपेट में ले रखा है। तुम्हारी संस्कृति में इन बातों की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। वे लिखते हैं- “आओ इन लोगों को देखो, और उसके बाद जाकर लज्जा से अपना मुंह छिपा लो..”

विरासत में मिली अपनी सांस्कृतिक श्रेष्ठता के लिए अपनी ही गाल बजाते रहना ठीक नहीं, दुनियाभर में जो श्रेष्ठ हो रहा है उसे भी सचेत होकर देखने और आत्मसात करने से ही भारतीय संस्कृति समृद्ध होगी। इसकी वैज्ञानिकता और पुष्ट होगी। यह एक वैश्विक प्रतिस्पर्धा है, जिसमें भारत का संघर्ष अपने स्थान को बचाए रखने का संघर्ष है।

आज विवेकानंद जी की जयंती है। हम इसे युवा दिवस के रूप में मनाते हैं। विवेकानंदजी ने गौरवशाली भारत के निर्माण की उम्मीद सबसे ज्यादा युवाओं से ही की थी। वे चाहते थे कि ऐसे स्वर्णिम विश्व के निर्माण में जो बाधाएं हैं, युवा उन्हें पहचानें और न केवल इस देश को बल्कि संपूर्ण मानव-समाज को आधुनिक बनाएं।

शिकागो के धर्म सम्मेलन में उन्होंने कहा था- “सांप्रदायिकता, कट्टरता और धर्मांधता इस सुंदर भूमि पर लंबे समय तक रही है। उन्होंने इस धरती को हिंसा से भर दिया, अक्सर इसे मानव रक्त से भिगो दिया, सभ्यता को नष्ट कर दिया और संपूर्ण देशों को तहस-नहस कर दिया। अगर इस तरह के भयावह दानव नहीं होते तो मानव समाज आज की तुलना में कहीं ज्यादा आधुनिक होता।“