लेखक- चन्द्रशेखर साहू, पूर्व मंत्री एवं सांसद

सन 1935 में ब्रिटिश संसद ने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट पारित किया, जिसके अंतर्गत भारतीयों को ज्यादा प्रतिनिधित्व मिलना था.  हर प्रांत में एक चुनी हुई सरकार होनी थी, जिसे पूरी तरह भारतीयों द्वारा चलाया जाना था, लेकिन इसका क्रियान्वयन एक ब्रिटिश गवर्नर के कार्यकारी शासन के अंतर्गत भारतीय और अंग्रेज अधिकारियों द्वारा चलाई जा रही भारतीय सिविल सेवा के माध्यम से होना था. इस एक्ट के माध्यम से ब्रिटिश षडयंत्र के कारण, भारत में साम्प्रदायिक आधार पर आरक्षा (पृथक निर्वाचन क्षेत्र) और प्रतिनिधित्व के कारण साम्प्रदायिकता बढ़ने लगी थी.

मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में एक शक्तिशाली साम्प्रदायिक दल के रूप में मुस्लिम लीग उभर आई थी. यद्यपि अब भी मुस्लिमों पर मुस्लिम लीग की पकड़ बहुत मजबूत नहीं थी. बंगाल में, मुस्लिम लीग अधिकांशतः जमींदारों और मुसलमानों की मामूली संख्या में मध्यवर्ग एवं मौलवियों का ही नेतृत्व कर रही थी. अधिकांश मुस्लिम किसान अबुल कासीम फजलुल हक के साथ थे. इसलिए ऐसे मुस्लिम नेतृत्व की तलाश होने लगी जो उनके हितों की रक्षा कर सकें.

परिणामस्वरूप हिन्दू समुदाय के प्रमुख लोग चिंतक स्पष्ट रूप से देख रहे थे. इस मंत्रिमंडल के अंतर्गत बंगाली हिन्दुओं के हित खतरे में थे, अतः सब लोगों की दृष्टि डाॅ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी पर पड़ी. उन्हें इस बात के लिए मनाया गया कि सरस्वती देवी का मंदिर छोड़कर वे राजनीति के उबड़-खाबड़ रास्ते में प्रवेश करें. इस तरह वे शैक्षिक पार्थक्य से बाहर निकले और रजनीति में पूरी तरह सक्रिय हो गए. कुछ लोगों का यह मानना है, ’डाॅ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी उन बंगाली हिन्दुओं के दुर्भाग्य पर पसीजते हुए विश्वविद्यालय छोड़ने और राजनीति में आने को बाध्य हुए, जो ’राष्ट्रभक्ति के महान पाप के लिए, अंग्रेजों की सहायता से मुस्लिम लीग द्वारा योजनाबद्ध तरीके से अपमानित किए और लूटे जा रहे थे.’’

राजनीति में डाॅ. मुखर्जी की सक्रियता भी एक कठिन घड़ी में सामने आई. कांग्रेस बंगाल में शक्तिशाली तो थी, लेकिन सदा की तरह हिन्दुओं के अधिकारों पर बोलने से हिचकती थी. मुस्लिम लीग के दबाव की राजनीति के सामने घुटने टेक रही थी. कम्युनिस्ट पार्टी एक अलग दल व शक्ति थी, जो मुस्लिम लीग को समर्थन दे रही थी. उसने भी हिन्दुओं के समर्थन में बोलने वाली हिन्दु महासभा और अन्य संगठनों को साम्प्रदायिक तथा प्रतिक्रियावादी कहना प्रारंभ कर दिया था. रोचक तथ्य है कि आज भी कम्युनिस्ट की प्रवृत्ति वैसी ही है. लगभग सात दशकों बाद भी उसके सोच में कोई बदलाव नहीं आया है. डाॅ. मुखर्जी को राजनीति में लाने के लिए प्रेरित करने वालों में एन.सी. चटर्जी, आशुतोष लाहिड़ी, जस्टिस मन्मथनाथ मुखर्जी और भारत सेवाश्रम संघ के संस्थापक स्वामी प्रणवानन्द महाराज थे. डाॅ. मुखर्जी के लिए प्रणवानन्द जी महाराज महान प्रेरणा स्रोत रहे.

अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के नेता विनायक दामोदर वीर सावरकर अगस्त-सितम्बर 1939 में बंगाल आये. इस समय डाॅ. मुखर्जी, फजलुल हक के नेतृत्व में चल रही ’कृषक प्रजा पार्टी के समर्थक थे. यद्यपि अधिकतर किसानों के समर्थन के बावजूद, व्यक्गित रूप से हक साम्प्रदायिक नहीं थे, तथा इसी आधार पर उनकी पार्टी की संस्कृति का विकास भी हुआ था। इस प्रकार, बंगाल में क्रमशः कांग्रेस, मुस्लिम लीग तथा कृषक प्रजा पार्टी जैसी तीन बड़ी राजनीतिक पार्टिया थी।

चुनावों में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। ऐसी परिस्थिति में तर्कसंगत यही था कि कांग्रेस ज्यादातर मुसममानों के समर्थन वाली तथा अपने चरित्र में अपेक्षाकृत पंथरिपेक्ष कृषक प्रजा पाटी। के समर्थन से गठबंधन की सरकार बनाती। हालाकि कुछ अकथनीय कारणों से कांग्रेस हाईकमान ने इस गठबंधन के लिये प्रांत इकाई को अनुमति नही दी। यह एक ऐसी गलती थी, जिसका भारी मूल्य बंगाली हिन्दुओं को लंबे समय तक चुकाना पड़ा। यदि इस समय गठबंधन सरकार बना ली गई होती तो पूरा भारत का अभिन्न हिस्सा होता। कांग्रेस की इस जड़ता के परिणामस्वरूप, नलिनी रंजन सरकार नामक एक बंगाली हिन्दू उद्योगपति की मध्यस्थता से मुस्लिम लीग तथा कृषक प्रजा पार्टी ने गठबंधन की सरकार बना ली।

गठबंधन की सरकार बनने के बाद, मुस्लिम लीग धीरे-धीरे कृषक प्रजा पार्टी को निगल गई तथा प्रांत में कठोर कानूनों को लादना शुरू किया, जो मुसलमानों के हित में तथा हिन्दुओं के विरूद्ध थे। इस अवस्था में, शैक्षणिक तथा व्यवसायिक उपलब्धियों की दृष्टि से हिन्दु, मुसलमानों से कहीं आगे थे। शिक्षा मंत्रालय ने शिक्षा और अनुभव को एक ओर करते हुए पूरी कोशिश की कि हिन्दुओं को सरकारी नौकरियों से पूरी तरह दूर रखा जाये। इसी बीच फजलूल हक मुस्लिम लीग में शामिल कर लिये गये तथा 1940 में मुस्लिम लीग के लाहौर सम्मेलन में मशहूर पाकिस्तान प्रस्ताव को आगे बढ़ाने के लिये उन्हें राजी कर लिया गया।

इस बीच, बंगाल के हिन्दू भांति-भांति से सताये जाने लगे। डाॅ. मुखर्जी उनके निकट संपर्क में आये और वे हिन्दू महासभा में शामिल हो गये। उसके साथ ही डाॅ. मुखर्जी सक्रिय राजनीति में आ गये। राजनीति में उनके आगमन का गांधी जी ने स्वागत किया, जो उनके सतत् राष्ट्रवादी तौर तरीकों से बेहद प्रभावित थे तथा उन्होंने कहा ’मालवीय जी (पं. मदन मोहन मालवीय) के बाद हिन्दुओं का नेतृत्व करने के लिये किसी की जरूरत थी।’ इसके जवाब में डाॅ. मुखर्जी ने कहा, लेकिन आप तो मुझे साम्प्रदायिक कहेंगे। गांधी जी ने उत्तर में कहा, समुद्र मंथन के बाद जिस तरह शिव ने विषपान कर लिया था, ठीक उसी तरह भारतीय राजनीति के विष को पीने के लिये भी किसी को होना चाहिये। ऐसी व्यक्ति आप ही हो सकते हैं.

वास्तव में बिना कुछ कहते हुए गांधी जी डाॅ. मुखर्जी की योग्यता की प्रशंसा में बहुत कुछ कह गये। यह उन्हीं का आग्रह था कि नेहरू ने 1947 में स्वतंत्र भारत के प्रथम मंत्रिमंडल में डाॅ. मुखर्जी को उद्योग तथा आपूर्ति मंत्री के रूप में शामिल किया। महासभा में आने के पहले वर्ष में ही डाॅ. मुखर्जी ने पूरे बंगाल का व्यापक दौरा करते हुए हिन्दुओं से अपने मतभेद तथा भिन्नता भुलाने का आह्वान किया। उनकी उर्जा से भरपूर राजनीतिक नेतृत्व ने हिन्दू महासभा को पूरे बंगाल में जीवंत और एकजुट कर दिया.

डाॅ. मुखर्जी के राजनीति में आने के पहले साल के भीतर अपनी बीमारी को देखते हुए वीर सावरकर ने उन्हें अखिल भारतीय महासभा का कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त कर दिया। ऐसा होते ही डाॅ. मुखर्जी ने अपने संदेश को देशव्यापी दौरे के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाना शुरू कर दिया और इस प्रक्रिया में, डाॅ. मुखर्जी स्वयं ही राष्ट्रीय नेता बन गये। उन्हें देशभर में पहचान मिली। उनके साहस, उद्देश्य को लेकर उनकी प्रतिबद्धता, उनकी सांगठनिक क्षमता, वक्तव्य कला तथा लोगों तक पहुंच बनाने की उनकी अद्भूत क्षमता ने उन्हें जल्दी हीे पूरे भारत में लोकप्रिय बना दिया। अब वे संपूर्ण देश के हिन्दुओं के लिए एक आकर्षण के केन्द्र बन चुके थे। 1940 का साल था, जब लाहौर में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक सभा को संबोधित किया तथा उन्होने कहा, ’मैं इस संगठन में भारत के आकाश में छाये बादल के बीच आशा की एक किरण देखता हूं।

डाॅ. मुखर्जी जब एक बार राजनीति में आ गये, तो उन्होंने बंगाल की मुस्लिम लीग सरकार के भयावह तौर तरीकों के विरूद्ध लड़ाई को आगे बढ़ाया। सरकार माध्यमिक शिक्षा को विश्वविद्यालय की छत्रछाया के बाहर निकालकर सीधे-सीधे सरकारी नियंत्रण और उसका इस्लामीकरण करने की कोशिश कर रही थी। क्योंकि बंगाल में माध्यमिक शिक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय की देखरेख में थी तथा कलकत्ता विश्वविद्यालय को अपने नियंत्रण में लेना मुस्लिम लीग के लिए कठिन था, इसलिए लीग ने माध्यमिक शिक्षा को शैक्षिक क्षेत्राधिकार से बाहर लाकर उस संस्था को कमजोर करने का निर्णय लिया तथा इसे माध्यमिक शिक्षा बोर्ड को सौंप दिया, जिसमें लीग द्वारा नामांकित सदस्यों का बहुमत था। ये सब डाॅ. मुखर्जी के लिए स्वीकार कर पाना सम्भव नहीं था और वे अब चुप नहीं रहने वाले थे।

जब इस विधेयक को बंगाल विधानसभा में लाया गया, तब डाॅ. मुखर्जी ने इसका भरपूर विरोध किया। उन्होंने सदन में बहस की मांग की। सदन के बाहर आंदोलन को संगठित किया तथा उस विधेयक के खिलाफ जनमत तैयार करने में जुट गये। उन्होंने इस विधेयक को लेकर तर्क दिया, यह विधेयक बंगाल में शैक्षिक प्रशासन को एक आक्रामक सांप्रदायिक मोड़ पर ला खड़ा कर देगा। माध्यमिक शिक्षा विधेयक का विरोध करने के दौरान डाॅ. मुखर्जी ने राजनीतिक लक्ष्य और उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिये संवैधानिक उपायों का इस्तेमाल करते हुए गजब की क्षमता और दक्षता का प्रदर्शन किया। इसमें उनकी उत्कृष्टता और विशेषज्ञता इतनी अधिक थी कि वे अन्य दलों का भी दिल जीतने में सफल रहे। हिन्दू महासभा के नेता के रूप में व्यापक रूप से राहत महसूस की। 1937 से 1941 तक लीग मंत्रिमंडल ने हिन्दुओं के खिलाफ भेदभाव किया था तथा उस अवधि में पूरे बंगाल की प्रगति धीमी पड़ गई थी। किन्तु यह सब बहुत लंबे समय के लिए नहीं था। बंगाल का गवर्नर हर्बर्ट इस मंत्रिमंडल से घृणा करता था। अतः षडयंत्र करते हुए उसने 1942 में इसे भंग कर दिया। इसी बीच कांग्रेस ने भारत छोड़ो का आह्वान किया एवं सभी कांग्रेस नेता तत्काल जेल में डाल दिये गये।

इस बीच अक्टूबर 1942 में बंगाल के मिदनापुर जिले के काॅन्टई शहर में जबरदस्त सुनामी आयी, जिसमें 15 मिनट के भीतर 30,000 लोग मारे गये। इसके परिणामस्वरूप, बड़ी संख्या में लोग अनाथ और बेघर हो गये। उसी समय जापानी सैनिकों ने दक्षिण-पूर्वी एशिया की ओर बढ़ते हुए अंग्रेजों को भगाते हुए बर्मा पर कब्जा कर लिया। इससे हर्बर्ट घबरा गया और उसने बचाव की नीति को अपनाया। सेना के लिए जो खाद्य पदार्थ जरूरी नहीं थे, उन्हें जान-बूझकर नष्ट कर दिया गया। ठीक उसी प्रकार खाद्य पदार्थों के ढुलाई में उपयोग होने वाले साधनों को भी नष्ट कर दिया गया। परिणामस्वरूप चांवल की कीमत प्रति मन 2 रूपये से बढ़कर 100 रूपये प्रति मन हो गई। जबरदस्त अकाल पड़ा और इस अकाल में लगभग 15 लाख लोगो ंकी मृत्यु हो गई। साम्राज्यवादी सरकार ने ऐसी स्थिति में भी अटूट राष्ट्रवादी भावना तथा लोगों में क्रांतिकारी उत्साह के कारण प्रभावित इलाकों में चल रहे राहत कार्यों को रोकने का प्रयास अवश्य किया। किन्तु डाॅ. मुखर्जी, जो अकाल राहत कार्य में स्वयं लगे हुए थे और इस कार्य में लगे हुए विभिन्न संगठनों को एकजुट करने में समन्वयक का कार्य कर रहे थे, यदि वे इन कार्यों में नहीं लगे होते, तो हताहतों की संख्या कई गुनी अधिक होती.

लेखक- चन्द्रशेखर साहू, पूर्व मंत्री एवं सांसद