श्याम अग्रवाल, खरोरा। हीमोफीलिया बीमारी छत्तीसगढ़ में नासूर बनने के कगार पर है. इस बीमारी में पीड़ित के शरीर से कभी भी रक्त बहने लगता है जो बंद नहीं होता. ऐसा रक्त में प्रोटीन कम होने या न होने के कारण होता है. बीमारी का दर्दनाक पहलू ये है कि इसे दवाओं या इंजेक्शन से रोका तो जा सकता है पर बीमारी को समूल नष्ट नहीं किया जा सकता यानी लाइलाज है. इसके पूरे भारत में 1,33,000 मरीज हैं वहीं छत्तीसगढ़ में 600 मरीज व रायपुर जिले में 80 मरीज पंजीकृत हैं.

प्रदेश में इलाज के अभाव में हीमोफीलिया के मरीज भटक रहे हैं. पंजाब, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र जैसे प्रदेश में इसका इलाज सरकारी अस्पतालों में आसानी से हो रहा है पर छत्तीसगढ़ के सरकारी अस्पतालों में इसकी दवा न होने से पीड़ितों को मौत का डर लगातार बढ़ता जा रहा है. हिमोफिलिया सोसायटी के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. अशोक दुबे खुद इस बीमारी से ग्रसित हैं. दुबे ने बताया कि मेडिकल कॉलेज में भी इस बीमारी के विशेषज्ञ डॉक्टर तक उपलब्ध नहीं हैं. यह बीमारी महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में ज्यादा पाई जाती है. रायपुर जिले में पंजीकृत 80 मरीजों में से 70 मरीज पुरुष ही हैं.

इस जानलेवा बीमारी से निपटने के लिए प्रदेश में कोई व्यवस्था नहीं है, जिससे इस रोग से ग्रसित मरीजों को पड़ोसी राज्य पर निर्भर होना पड़ रहा है. महंगा होने के कारण इलाज आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की पहुंच से कोसों दूर है क्योंकि एक बार में दवा पर करीब हर माह 50 हजार से 1 लाख रुपए खर्च होते हैं. दवाएं भी महंगी हैं.

रायगढ़ में एक तो रायपुर जिले में इससे तीन मौतें हो चुकीं, इलाज के लिए 14 एकड़ खेत तक बिक गया.

कुछ दिन पहले रायगढ़ जिले के पुसौर निवासी राहुल यादव जो हीमोफीलिया से ग्रस्त था, उसकी मौत मात्र 18 साल की उम्र में हो गई. रायगढ़ मेडिकल कॉलेज में उसे फैक्टर (प्लाज्मा से बनने वाला इंजेक्शन यानी एक तरह की वैक्सीन) नहीं मिल पाया. वहीं रायपुर जिले के धरसींवा विधानसभा के परसतराई गांव के शिवमंगल साहू के 6 माह, 4 वर्ष व 7 वर्ष के तीन बच्चों का पिछले 2 वर्ष के अंदर इसी बीमारी से निधन हो गया. उन्हें भी फैक्टर नहीं मिल पाया. अब उनका एक 8 वर्ष का बालक बचा है, जो खुद भी इस बीमारी से पीड़ित है. बच्चों के इलाज के लिए शिवमंगल को 14 एकड़ खेत तक बेचना पड़ा.

मेकाहारा में वैक्सीन होने का दावा पर प्रबंधन का इंकार

हिमोफिलिया सोसायटी के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. अशोक दुबे ने बताया कि 2018 में बिलासपुर हाईकोर्ट में अपील की गई. हाईकोर्ट ने भी माना कि इस जानलेवा बीमारी का इलाज छत्तीसगढ़ में होना चाहिए. बाद में सीएम भूपेश बघेल व स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव से भी मांग की गई तब रायपुर सीजीएमसी में फैक्टर उपलब्ध हो पाया, जो मेकाहारा सुपरिटेंडेंट डॉ. विनीत जैन के निर्देश के बिना नहीं मिलेगा. डॉ. दुबे ने बताया कि सीजीएमसी (छत्तीसगढ़ मेडिकल कार्पोरेशन) में दवा उपलब्ध होने पर एक कोड जनरेट होता है. इसकी वैक्सीन का कोड डी 215 व डी 216 है. इधर डॉ. विनीत जैन इस वैक्सीन के उपलब्ध होने से साफ इंकार करते हैं.

खून पतला होकर कभी भी बाहर निकल सकता है

जब शरीर का कोई हिस्सा कट जाता है तो खून में थक्का बनाने के लिए जरूरी घटक रक्त में मौजूद प्लेटलेट्स से मिलकर उसे गाढ़ा कर देते हैं. इससे खून बहना अपने आप रुक जाता है पर जिन लोगों को हीमोफीलिया होता है उनमें थक्का बनाने वाले घटक बहुत कम होते हैं. इसका मतलब उनका खून रुकता नहीं है. हीमोफीलिया दो तरह के होते हैं-हीमोफीलिया-ए में फैक्टर 8 की कमी होती है व हीमोफीलिया-बी में फैक्टर 9 की. दोनों ही खून में थक्का बनाने के लिए जरूरी है. हीमोफीलिया अधिकांश लोगों में जन्म से होता है. कई बार जन्म के बाद ही इसका पता चल जाता है. अगर हीमोफीलिया मध्यम और गंभीर स्तर का है तो बचपन में आंतरिक रक्तस्राव के चलते कुछ लक्षण सामने आने लगते हैं. गंभीर स्तर के हीमोफीलिया में खतरा बहुत ज्यादा होता है. जोर से झटका लगने पर भी आंतरिक रक्तस्राव शुरू हो जाता है. वहीं आड़ा, तिरछा, उल्टा होकर नींद लेना भी बीमारी को बढ़ावा देता है. वही‌ यह बीमारी 5000 लोगों में से एक व्यक्ति को होती है.

3 से 5 साल के बीच बीमारी का पता चले तो इलाज संभव

डॉ. अशोक दुबे बताते हैं कि हीमोफीलिया का कारण शरीर में आवश्यक मात्रा में एंटी-हिमोफिलिक कारक का उत्पादन करने में असमर्थता है. हालांकि केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ मिशन के तहत हीमोफीलिया के लिए पर्याप्त काम किया है लेकिन छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में इसका सही तरीके से इलाज नहीं हो पा रहा है. उन्होंने बताया कि अगर मरीज की आयु 3 से 5 वर्ष  की आयु के बीच हीमोफीलिया का पता चल जाता है तो 6 माह तक फैक्टर लगाने से मरीज को ठीक किया जा सकता है. वहीं अगर ज्यादा उम्र में बीमारी सामने आती है तो उसे वजन के हिसाब से फैक्टर तीन दिन लगातार हर माह आजीवन लगाना पड़ेगा.

वैक्सीन का नाम बीमारी के नाम पर ही

शरीर में खून जमाने के लिए 10 प्रकार के फैक्टर की जरूरत पड़ती है. वहीं हीमोफीलिया फैक्टर 8 व 9 की कमी के कारण होता है इसीलिए इसकी वैक्सीन का नाम भी फैक्टर 8 व फैक्टर 9 है.

केस 1

 3 बच्चों को हर माह दी जा रही 6 हजार मिलीग्राम

खरोरा के रहने वाले एक व्यक्ति जिनके 7 साल व 8 साल के 2 बच्चे इस बीमारी से पीड़ित हैं. उन्होंने बताया कि उन्हें हर माह 6000 मिलीग्राम फैक्टर (वैक्सीन) की जरूरत पड़ती है. उन्होंने बताया कि रायपुर के प्राइवेट अस्पताल में 17 रुपए प्रति मिलीग्राम के हिसाब से यह दवा मिलती है, वो भी बड़ी मुश्किल से. वे हर माह नागपुर के डागा अस्पताल से यह वैक्सीन 12 रुपए प्रति मिलीग्राम की दर से मांगते है.

केस 2

दो बच्चों पर खर्च हो रहे 75 हजार महीने

एक अन्य खरोरा निवासी के 2 बच्चे हैं और दोनों ही हीमोफीलिया से पीड़ित हैं. उन्होंने नम आंखों से बताया कि बच्चे ठीक से खड़े भी नहीं हो पाते व अभी तक स्कूल जाना भी शुरू नहीं किया है. प्रतिमाह लगभग 75 हजार रुपए फैक्टर पर खर्च करते हैं. वे बच्चों के भविष्य की चिंता में रात-रातभर सो नहीं पाते.

खरोरा में खुला निःशुल्क हीमोफीलिया सेंटर

हीमोफीलिया सोसायटी के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. अशोक दुबे के अथक प्रयास के बाद उनके निजी अस्पताल में क्रिटिकल मरीज जिसे तुरंत फैक्टर की जरूरत है उन्हें निःशुल्क वैक्सीन लगाई जाती है. जब फैक्टर एक्सपायरी होने में 5 माह बचते हैं तो कंपनी दिल्ली हीमोफीलिया सोसायटी की मदद से जरूरतमंदों को फ्री में फैक्टर दे देती है.

मदद करने जुटे हैं डॉक्टर

हीमोफीलिया सोसायटी के अध्यक्ष अशोक दुबे ने बताया कि वे खुद भी इस बीमारी से पीड़ित हैं. जब खुद को इस स्थिति में पाया तो उन्होंने लोगों का दर्द समझा. दिल्ली से उन्हें निःशुल्क यह फैक्टर थोड़ी सी मात्रा में मिलता है लेकिन उन्होंने अपने फायदे को दरकिनार कर लोगों के लिए मुहिम छेड़ी. उन्होंने बताया कि स्वास्थ्य सचिव रेणु पिल्लई, स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव, सीएम भूपेश बघेल समेत छत्तीसगढ़ के सभी विभाग के अधिकारियों से मुलाकात की पर कहीं से कोई मदद नहीं मिली.

 केंद्र से मिले 5 करोड़ लैप्स होने की आशंका

उन्होंने बताया कि केंद्र सरकार द्वारा हीमोफीलिया के लिए 5 करोड़ 61 लाख रुपए आए हैं. दरअसल ये फंड इसलिए मिला है ताकि छोटे बच्चों का सर्वे कराकर ये पता करें कि दांत आने के दौरान बच्चों के मसूड़ों से खून रिसना बंद हो रहा या नहीं. दरअसल इसकी बीमारी का पता लगाने कोई टेस्ट नहीं होता इसलिए बचपन में ही इस तरह के सर्वे से बीमारी का पता चल जाता है. इस दौरान 3 से 5 साल तक फैक्टर की सही डोज मिलने पर इलाज संभव है. बाद के वर्षों में इसका इलाज संभव नहीं. सीएम व स्वास्थ्य मंत्री ने 9 लाख रुपए के फैक्टर खरीदकर सीजीएमसी में रखे हैं पर विभाग की लापरवाही से ये किसी को नहीं मिले हैं. लापरवाही के चलते केंद्र से मिला फंड भी लैप्स हो जाएगा. इसके बाद न तो केंद्र फंड जारी करेगा और न ही राज्य सरकार वैक्सीन खरीदेगी. अगर ऐसा होता है तो छत्तीसगढ़ में सैकड़ों मरीजों की बेवजह मौत होगी.

रायगढ़ मेडिकल कॉलेज में फ्री इलाज

रायगढ़ मेडिकल कॉलेज के ज्वाइंट डायरेक्टर डॉ. एमके मिंज पहले भोपाल में हीमोफीलिया सोसायटी के सदस्य थे. मिंज के अथक प्रयास के बाद रायगढ़ मेडिकल कॉलेज में इसका इलाज शुरू हो पाया है. वहां मरीजों को फ्री में वैक्सीन लगाई जा रही है. उन्होंने बताया कि उनके यहां फैक्टर रायपुर से सीजीएमसी से मंगाया जाता है.