Column By- Ashish Tiwari , Resident Editor

छत्तीसगढ़ की ‘ज्योति मौर्या’

उत्तरप्रदेश की एसडीएम ज्योति मौर्या सुर्खियों में हैं. ज्योति ने राज्य प्रशासनिक सेवा की परीक्षा कलम की स्याही से नहीं, बल्कि अपने सफाईकर्मी पति आलोक मौर्या की हाड़तोड़ मेहनत से निकले पसीने से लिखी थी. ज्योति मौर्या का डिप्टी कलेक्टर के पद पर चयन होना उस पसीने का कर्जदार रहा. चयनित होने के बाद हालात बदस्तूर बदलते रहे. पति का लो प्रोफाइल स्टेटस आड़े आ गया. राज्य प्रशासनिक सेवा की अफसर के आगे भला ‘सफाईकर्मी’ का स्टेटस कहां टिकता. पति ने कभी जिन आंखों में पत्नी की सफलता की उम्मीदें पाली रही होंगी, उन आंखों में आंसुओं का सैलाब उमड़ना लाजमी था. खैर, ज्योति की यह कहानी उत्तरप्रदेश तक ही सीमित नहीं है. कई राज्यों में ऐसी अनेक कहानियां निकल आएंगी. इधर छत्तीसगढ़ में भी एक ‘ज्योति’ है. मोहतरमा करीब- करीब एक दशक पहले राज्य प्रशासनिक सेवा में चयनित होकर डिप्टी कलेक्टर बनीं. इस साहिबान की कहानी ज्योति मौर्या की तरह ही रही. पति सामान्य परिवार से था. ना ओहदा था. ना शोहरत थी. पत्नी की पढ़ने-लिखने की रुचि देख पति ने हर जरूरतों को पूरा किया, लेकिन पत्नी का डिप्टी कलेक्टर बनना पति के लिए सौभाग्य कम, दुर्भाग्य ज्यादा रहा. डिप्टी कलेक्टर बनने के कुछ दिनों बाद ही साहिबान ने पति से तलाक लेकर राज्य प्रशासनिक सेवा के एक अफसर से शादी कर ली. अफसोस, डिप्टी कलेक्टर की दूसरी शादी पर भी किसी की नजर लग गई. चल नहीं सकी. एक दशक पहले सोशल मीडिया पर निजी जिंदगी की हर चहलकदमियां यूं ना उधेड़ी जाती थी. चर्चाओं की अपनी सीमा तय थी. अब निजी जिंदगी सोशल मीडिया की गुलाम हैं. मुमकिन है, ‘ज्योति’ का अपना पक्ष होगा, मगर उस पक्ष का कोई निजी ‘स्पेस’ नहीं.

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कलेक्टरों पर FIR कब?

आदिवासियों की जमीन गैर आदिवासियों को बेचने के मामले में मध्यप्रदेश में तीन आईएएस अफसरों के खिलाफ एफआईआर दर्ज हो गई. अफसरों ने पांच सौ करोड़ रुपए से ज्यादा की जमीन गैर आदिवासियों को बेचने की अनुमति दी थी. इधर छत्तीसगढ़ में एक नहीं, कई तीस मार खां कलेक्टर रहे हैं, जिन्होंने ऐसा अभूतपूर्व काम किया है. मगर मजाल है कि उनका बाल भी बांका हुआ हो. ठीक ठाक जांच हो जाए तो ना जाने कितने आईएएस नाप दिए जाएंगे. खैर, छत्तीसगढ़ को ब्यूरोक्रेसी का ‘जन्नत’ शायद इसलिए ही कहा जाता है. अफसर गड़बड़ सड़बड़ करते हैं. अफसर ही जांच करते हैं और अफसर ही क्लीन चिट दे देते हैं. देश भर में ब्यूरोक्रेसी के भीतर कहीं नेपोटिज्म देखना हो तो सबसे मुफीद राज्य छत्तीसगढ़ ही मिलेगा. एक से बढ़कर एक हरफनमौला खिलाड़ी यही मिलेंगे. हाल ही में ‘पावर सेंटर’ के इस कालम में हमने एक कलेक्टर की कथा बताई थी, जिन्होंने आदिवासियों की जमीन गैर आदिवासियों को बेचने का अपना एक फार्मूला बनाया था. पहले उन्होंने आदिवासियों की करीब 125 एकड़ जमीन गैर आदिवासी को बेचने की अनुमति दी और बाद में यही जमीन एक औद्योगिक समूह को बेच दी गई. वो तो औद्योगिक समूह केंद्रीय जांच एजेंसियों की रडार पर आ गया था. दस्तावेज बरामद हुए थे. तब जाकर कलई खुली और कलेक्टर को नोटिस जारी किया गया. आनन-फानन में कलेक्टर ने आदिवासी जमीन, गैर आदिवासी को बेचने का आदेश ही निरस्त कर दिया, तब जाकर स्थिति संभली. बहरहाल, कलेक्टरों का अपना रुतबा है, जो कर ले कम है. राज्य में सरकार की सत्ता भले कायम होती है, मगर जिलों में राज तो कलेक्टरों का ही होता है. वैसे यह सवाल उठ रहा है कि मध्यप्रदेश में कलेक्टरों के इस तरह के कारनामों पर एफआईआर दर्ज हो गई है. छत्तीसगढ़ में कब होगी?

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डिप्टी कलेक्टर

राज्य में तहसीलदारों की स्थिति भी डिप्टी कलेक्टरों से ज्यादा बेहतर हो गई है. उनके पास कम से कम सरकारी घर और गाड़ी है. कई जिलों में आलम यह है कि डिप्टी कलेक्टरों की संख्या ज्यादा हो गई है. सरकारी घर और गाड़ी की दिक्कत से जूझना पड़ रहा है. दरअसल राज्य में आईएएस अफसरों की संख्या करीब-करीब दो सौ के आसपास है. आईएएस अफसरों के अनुपात में डिप्टी कलेक्टर डेढ़ गुना होने चाहिए. करीब 300 के आसपास, मगर हैं 450 से ज्यादा. कहते हैं कि इसकी वजह से प्रमोशन का पिरामिड स्ट्रक्चर फ्लैट हो जाएगा. इसकी वजह से आने वाले सालों में डिप्टी कलेक्टरों का आईएएस बनना मुश्किल हो सकता है. हालांकि सरकार ने पंचायत विभाग के 42 और खनन विभाग के 27 पद डिप्टी कलेक्टर्स के लिए आरक्षित किया है,  मगर राज्य प्रशासनिक सेवा के अफसर इसे निरर्थक बता रहे हैं. इस  दलील के साथ की इन सब कामों के लिए विभागों के पास पहले से ही पर्याप्त अफसर हैं. अफसरों का कहना है कि डिप्टी कलेक्टरों के 69 पद वापस लिया जाना चाहिए. इससे ना केवल पैसा बचेगा बल्कि कैडर का रि स्ट्रक्चर होगा. कलेक्टर भी काम के आधार पर डिप्टी कलेक्टरों को जनपद सीईओ बना सकेंगे. राप्रसे के अफसर कहते हैं कि डिप्टी कलेक्टरों का मूल काम प्रशासन और राजस्व है.  

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‘डीएमएफ’

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सलामी बल्लेबाज के रूप में छत्तीसगढ़ की राजनीतिक पिच पर जब बैटिंग करने उतरे, तो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ताबड़तोड़ बैटिंग की. महाराष्ट्र में दिए गए अपने एक भाषण को लगभग-लगभग दोहराया, जिसमें उन्होंने एनसीपी के 70 हजार करोड़ के भ्रष्टाचार का पिटारा खोल दिया था. भ्रष्टाचार की जांच की गारंटी दी थी. यह बात और है कि आज उसी एनसीपी का एक गुट बीजेपी संग गलबहियां कर रहा है. उधर जांच की गारंटी फिलहाल ‘हवा हवाई’ हो गई. पीएम साहब इधर छत्तीसगढ़ में ‘गारंटी’ देकर गए हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होगी. कोल, शराब, चावल समेत तमाम घोटालों के बीच पीएम मोदी का ‘डीएमएफ’ पर किया गया जिक्र कहीं यह संकेत तो नहीं कि अब एजेंसियां ‘डीएमएफ’ की फाइल खोलने जा रही है. वैसे डीएमएफ के नाम पर अफसरों ने खूब गंध मचाई. कहीं प्रशिक्षण के नाम पर करोड़ों रुपए बिना शासी परिषद की बैठक की स्वीकृति के खर्च कर दिए गए, तो कहीं बेतरतीब और गैर जरूरी सामान खरीदने में राशि खर्च की गई. बहरहाल इधर जांच निकलेगी, तो बात दूर तलक जाएगी. हिसाब तब का भी पूछा जाएगा कि कलेक्टरों के दफ्तरों में लिफ्ट कैसे लग गई? बंगलों में स्विमिंग पूल कैसे बन गया? 

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शाह का ‘रोडमैप’

22 जुलाई को दुर्ग, 5-6 जुलाई को रायपुर में बैठक करने के बाद एक दफे फिर अमित शाह 14 तारीख को छत्तीसगढ़ पहुंच रहे हैं. बीजेपी ने ओम माथुर को चुनाव प्रभारी बना दिया, बावजूद इसके छत्तीसगढ़ बीजेपी की चुनावी कमान पर्दे के पीछे से अमित शाह अपने हाथ रख रहे हैं. यह तय है. वर्ना ‘शाह’ की इतनी दिलचस्पी छत्तीसगढ़ में क्यों होती कि बैक टू बैक उनके दौरे बनते. उत्तरप्रदेश में जब बीजेपी ने पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी, तब भी शाह-माथुर की जोड़ी ने काम किया था. अमित शाह प्रभारी महासचिव थे और ओम माथुर प्रदेश प्रभारी. सुनते हैं कि छत्तीसगढ़ में बीजेपी ‘गुजरात फार्मूले’ पर चुनाव लड़ेगी. यही वजह है कि ओम माथुर के साथ-साथ बीजेपी ने केंद्रीय मंत्री मनसुख मंडाविया को सह प्रभारी बनाया है. मंडाविया पीएम मोदी के दौरे के एक दिन पहले पहुंचे थे और उनके जाने के एक दिन बाद दिल्ली लौटे. उनका ज्यादातर वक्त बीजेपी दफ्तर और नेताओं के घर बिता. खासतौर पर पूर्व सीएम डॉक्टर रमन सिंह के साथ मंडाविया घूमते नजर आए. मनसुख मंडाविया अमित शाह के सबसे करीबी नेताओं में शुमार किए जाते हैं. सह प्रभारी के रूप में उनकी नियुक्ति को यूं लिया जाए कि अमित शाह ने अपनी एक आंख यहां छोड़ दी है. सुनते हैं कि अमित शाह दस्तावेज के साथ बीजेपी दफ्तर पहुंचे थे. यह दस्तावेज छत्तीसगढ़ में कराए गए उनके अपने सर्वे के थे. कहा जा रहा है कि शाह ने चुनावी जीत का फार्मूला दिया है. बताते हैं कि शाह की नजर में बीजेपी 30 सीट जीत रही है. 10 सीटें थोड़ा जोर लगाने पर जीता जा सकेगा और करीब 15 सीटों पर जीत का टारगेट तय किया जाएगा. शाह के फार्मूले के आधार पर बीजेपी दावा कर रही है कि 50 से 52 सीटों के साथ वह सरकार बना लेगी. बहरहाल चुनाव के पहले जो तस्वीर दिख रही है, वह सवाल भी उठा रही है कि क्या बीजेपी हाईकमान का भरोसा राज्य संगठन पर नहीं रहा, जो पूरा का पूरा चुनाव प्रबंधन अपने हाथों ले रही है?   

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‘रमन’ की भूमिका

 कहते हैं कि राजनीति में उम्र का कोई पड़ाव नहीं. सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री रहे डाॅक्टर रमन सिंह भी इसी नीति वाक्य पर चलते दिखते हैं. ऊपर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के हालिया दौरे ने डाॅक्टर रमन सिंह को पर्याप्त वेटेज देकर ‘बूस्टर डोज’ दे दिया है. भीतर खाने में अक्सर यह चर्चा चलती रहती थी कि उन्हें किसी राज्य का राज्यपाल बनाया जा सकता है. कभी पंजाब, तो कभी महाराष्ट्र के राज्यपाल बनने के प्रस्ताव की सुर्खियां तक बनी, मगर ‘रमन’ की ना ही सुनने को मिली. एक चर्चा में एक दफे डाॅक्टर रमन यह कहते सुने गए थे कि ‘मेनस्ट्रीम पाॅलिटिक्स’ से हटने का उनका कोई इरादा नहीं !  खैर, मोदी-शाह के दौरे में मिले वेटेज के बाद बीजेपी के भीतर यह संदेश चला गया है कि छत्तीसगढ़ बीजेपी में ‘रमन युग’ खत्म नहीं हुआ है. पार्टी के भीतर चर्चा यहां तक चल रही है कि रमन सिंह को चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाया जा सकता है. इससे पहले 15 सालों तक मुख्यमंत्री की हैसियत से काम करने वाले डाॅक्टर रमन सिंह की भूमिका को लेकर संशय की स्थिति बनी हुई थी. बीजेपी के जानकार कहते हैं कि रमन सिंह के वेटेज देने के तीन बड़े कारण हैं. पहला- पैसे की चाबी? वह जानते हैं कि इलेक्शन लड़ने के लिए फंड कैसे मैनेज किया जा सकता है. दूसरा- ओल्ड गार्ड और न्यू गार्ड यानी संगठन के पुराने और नए लोगों के बीच संगठनात्मक पकड़. रमन सिंह बीजेपी के इकलौते चेहरे हैं, जो सरगुजा से सुदूर बस्तर तक पहचाने जाते हैं. तीसरी और महत्वपूर्ण बात यह कि वेटेज ना मिलने की स्थिति में वह कहीं बीजेपी के ‘जोगी’ ना बन जाए. वह इतने मतबूत तो हैं ही कि अपने मन मुताबिक परसेप्शन बना और बिगाड़ सकते हैं. इन सबके बीच एक समीकरण यह भी है कि कर्नाटक में येदियुरप्पा के साथ जो हुआ, वह बीजेपी रमन के साथ नहीं देखना चाहती. येदियुरप्पा के कई करीबी उन्हें छोड़कर कांग्रेस में चले गए. येदियुरप्पा के पीए ने तो कांगेस में आकर राष्ट्रीय महामंत्री सी टी रवि को चुनाव हरा दिया. छत्तीसगढ़ में जोड़-तोड़ की रणनीति बन ही रही है. कई कांग्रेस के संपर्क में है, तो कई बीजेपी के संपर्क में. बहरहाल ऐसे कई समीकरण हैं, जिसने छत्तीसगढ़ बीजेपी में डाॅक्टर रमन सिंह को ताकतवर बना रखा है. 

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छत्तीसगढ़ियत 

बीजेपी के सह प्रभारी नितिन नबीन ने अपने एक बयान में कहा था कि, हम छत्तीसगढ़ीवाद नहीं, भारतीयवाद की बात करते हैं. उधर बयान आया, इधर कांग्रेस ने उसका छिद्रान्वेषण कर यह माहौल बना दिया कि बीजेपी छत्तीसगढ़वाद के खिलाफ है. पीएम मोदी के दौरे के बाद बीजेपी ने यह मान लिया है कि सीएम भूपेश के छत्तीसगढ़वाद का कोई तोड़ है, तो वह यह छत्तीसगढ़ियत की पैरवी ही है. सो इस दफे जब पीएम मोदी की सभा हुई तो ना केवल पोस्टर में सबसे ऊपर छत्तीसगढ़ महतारी की तस्वीर को स्थान मिला, बल्कि मोदी ने मनुवार भी छत्तीसगढ़ी में ही किया. चुनावी नारा बदलबो-बदलो, ए दारी कांग्रेस के सरकार ल बदलबो का चुनावी नारा भी छत्तीसगढ़ी में दिया. भारतीयवाद की बात करते-करते बीजेपी भी छत्तीसगढ़वाद पर कूद पड़ी है. 

पॉवर सेंटर : हाथियों को भला क्या मालूम, साहब एसपी हैं…ये बंदा पाॅवरफुल है !….राज्यपाल की दिलचस्पी चोरों पर…..- आशीष तिवारी