मंत्री की विदाई ! (1)
मंत्रिमंडल में हलचल बड़ी तेज है. एक आदिवासी मंत्री के खिलाफ शिकायतें इतनी बढ़ गई है कि बात हटाने तक आ पहुंची है. शिकायत आम तबके की होती, तो स्थिति संभाली जा सकती थी. मगर सत्ता के खास किरदारों ने ये शिकायत की है. कहते हैं कि भ्रष्टाचार की मैराथन दौड़ में मंत्री ऐसे दौड़ रहे हैं कि थमने का नाम नहीं ले रहे. पिछले दिनों सीएम हाउस में हुई एक हाई प्रोफाइल बैठक में तमाम एजेंडों के बीच एक एजेंडा मंत्री के कारनामों से जुड़ा था. एक आला नेता ने अपनी टिप्पणी में कहा कि, उनके जिले का प्रभार जब से मंत्री को मिला है, तब से अब तक एक बार भी उन्होंने जिले में अपनी आमद नहीं दी. आला नेता ने यह भी कहा कि उन्होंने मंत्री से आग्रह किया था कि उनके विभाग के ठेके और सप्लाई से जुड़े कामों में उनकी अनुशंसा पर गौर किया जाए. इससे स्थानीय स्तर पर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को छोटे-मोटे काम देकर उपकृत किया जा सकेगा, लेकिन मंत्री ने ठेका-सप्लाई का काम पूरे राज्य के लिए सेंट्रलाइज्ड कर दिया. शिकायत यही नहीं रूकी. एक-एक कर लगभग सभी आला नेता बैठक की मेज पर मंत्री की कारस्तानियां सुनाने लगे. सुनते हैं कि पार्टी की प्रभारी ने भी मंत्री के काम के तरीकों पर नाखुशी जाहिर की और विकल्प ढूंढने का सुझाव दे दिया. ये वही मंत्री है, जो अपने विभाग की गोपनीय बैठकों में भी बाहरी व्यक्ति को बिठाकर अपना ‘वैभव’ ढूंढते हैं. कहा तो यह भी जाता है कि विभाग में जितनी मंत्री की नहीं चलती, उससे ज्यादा इस बाहरी व्यक्ति की चलती है.
नाराज मंत्री (2)
अपनी-अपनी बातों को लेकर सूबे के मंत्रियों के बीच नाराजगी पसर रही है. पिछले दिनों कांग्रेस प्रदेश प्रभारी जब मंत्रियों से वन टू वन कर रही थी, तब एक मंत्री फट पड़े. तेवर और मिजाज ऐसे थे, मानो उन्हें किसी बात का डर नहीं. मंत्री बेधड़क अपनी शिकायत दर्ज कराते रहे. मंत्री की पीड़ा की असल वजह उनके जिले के कलेक्टर-एसपी थे. जो पदस्थ है, वह भी शिकायत के रडार में रहे और जो जा चुके हैं, वह भी. बात बंद कमरे की जरूर है, लेकिन बाहर आ चुकी है. सुना गया है कि मंत्री ने प्रभारी पर यह कहते हुए अपना प्रभाव जमाने की कोशिश की कि उन्हें हराने की कोशिश की जा रही है, लेकिन किसी के बाप में ताकत नहीं, जो उन्हें हरा दे. मालूम नहीं मंत्री को इतना साहस कौन दे गया. जनता कब किस करवट बैठ जाए, ये जनता के अलावा कोई दूसरा नहीं जानता. पिछले चुनाव में बीजेपी चौथी दफे सत्तासीन होने का दावा कर रही थी. दावा जमींदोज हो गया. भनक तक नहीं लगी थी. खैर, एक और मंत्री है. इस ‘गुरूजी’ की नाराजगी इस बात को लेकर है कि उनकी अपने ही विभाग में चल नहीं रही. अधिकारी उनकी सुनते नहीं. एक केंद्रीय योजना में मंत्री ने सरकार की खूब छीछालेदर कराई थी. मामला कमीशनखोरी से जुड़ा था. सो इस बार जो अधिकारी बैठे हैं, मंत्री की सुन नहीं रहे. चुनाव करीब है, शायद जमीन पर काम ठीक ठाक हो जाए, इसलिए अधिकारी को भी ऊपर से कुछ ऐसे ही निर्देश होंगे. बहरहाल मंत्री ने प्रभारी के सामने अपने आंसू दिखाने की खूब जद्दोजहद की. सीएम हाउस में जब एक हाई प्रोफाइल बैठक चल रही थी, बिन बुलाए मेहमान की तरह मंत्री भी पहुंच गए, लेकिन उन्हें दो टूक जवाब मिला कि वह बैठक का हिस्सा नहीं बन सकते. मुंह लटकाए लौटना ही विकल्प था.
बीजेपी की क्लास
उलझनों में जितनी कांग्रेस नहीं है, उससे ज्यादा बीजेपी दिखती है. कांग्रेस में ऊपरी नेताओं में मतभेद हो सकते हैं, नीचे जमीन पर हालात बीजेपी से ठीक है. बीजेपी में ऊपर सब ठीक दिखता है, नीचे हवा हवाई है. मतलब कार्यकर्ता साधे नहीं जा रहे. चुनाव करीब है और कार्यकर्ता अपनी उपेक्षा के तीर लगातार चला रहे हैं. पिछले दिनों प्रदेश कार्यालय में एक बैठक हुई. मुख्य एजेंडा मोदी सरकार की उपलब्धियों को घर घर तक ले जाने से जुड़ा था. जिस छत्तीसगढ़ में भूपेश सरकार की योजनाओं का काट बतौर विपक्षी दल ढूंढना चाहिए, वहां बीजेपी मोदी की लाठी के सहारे खड़ी दिखती है. बहरहाल हुआ यूं कि बीजेपी की बैठक खत्म हो ही रही थी कि प्रभारियों की मौजूदगी में पदाधिकारी-कार्यकर्ता तेजी से बाहर निकलने लगे. घंटों चली बैठक के बाद भूख ने खाने की ओर खींचा होगा, दूसरी बात बोरियत की भी होगी. हर बैठकों में मोदी-मोदी सुन अब बीजेपी के कार्यकर्ता भी रट्टू तोते की तरह हो गए है. कहते हैं कि ऐसी बैठकों में सिवाए उबाऊ भाषण के कुछ और होता नहीं. वैसे भी पिछले साढ़े चार सालों से सिर्फ मोदी की योजनाओं का ही पाठ पढ़ रहे हैं. पढ़ना ये चाहिए था कि भूपेश बघेल सरकार की लोकप्रियता के जवाब में जमीन पर क्या किया जाए? जिससे कार्यकर्ताओं को भी लगे कि पार्टी सिरियसली चुनाव लड़ने का इरादा रख रही है. जैसे ही पदाधिकारी-कार्यकर्ता प्रभारियों की मौजूदगी में बाहर निकलने लगे, एक प्रभारी आहत हो गए. मंच से ही जमकर फटकार लगाने लगे. शुचिता और अनुशासन का पाठ पढ़ाने लगे. बैठक, बैठक ना रही. स्कूल की क्लास में तब्दील हो गई. मानो कोई हेड मास्टर बच्चों को डांट पिला रहा हो. खैर, अनुशासित सिपाही थे, कड़वे घूँट पीकर बाहर निकल गए. बाहर आते ही मुंह से अलंकार भरे शब्द फूट रहे थे. शायद ही ऐसी कोई गाली बाकी रही होगी, जो नहीं बकी गई होगी.
70-75 लाख !
पीएससी में हुई ताज़ातरीन नियुक्तियों ने बवाल मचा रखा है. पीएससी चेयरमेन, उद्योगपति समेत प्रभावशाली अफसरों के बच्चों का नाम मेरिट लिस्ट में आना हर किसी को चौंका रहा है. मामला शांत होता दिखाई नहीं पड़ता. हाल 2003 पीएससी की तरह बनता जा रहा है. मालूम पड़ा है कि नतीजों को लेकर कुछ लोग कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते हैं. कहते हैं कि बीजेपी इसके पीछे काम कर रही है. एक चर्चा ऐसी भी है कि पीएससी की मेरिट लिस्ट के लिए बोली लगाई गई. मेरिट लिस्ट में नाम आने के लिए 70 से 75 लाख रुपए तक लिए जाने की चर्चा है. वहीं नीचे के पायदान के लिए 50 लाख रुपए लिए जाने की खबर हवा में तैर रही है. हकीकत क्या है? इसका खुलासा जांच से होगा. मुख्यमंत्री ने भी कह दिया है कि किसी के पास कोई तथ्य है, तो पेश करे. जांच कर कार्रवाई की जाएगी. पीएससी के नतीजों के बीच अब एक नई चर्चा वन विभाग के लिए होने वाली एसीएफ की नियुक्ति को लेकर चल रही है. एक अभ्यर्थी ने बताया कि इंटरव्यू के पहले यह संदेश लोगों तक पहुंचा कि चयन सूची का रेट फिक्स कर दिया गया है. चर्चा है कि 35 लाख रुपए तक मांगे जा रहे हैं. राज्य प्रशासनिक परीक्षा की मेरिट सूची ने कम बवाल काट रखा है, जो अब दूसरी परीक्षाओं के नतीजों पर भी पर्ची काटने की खबर आने लगी. ऐसे में अब जरूरी हो गया है कि पीएससी की भर्तियों में गहन पड़ताल करा ही लिया जाए. चुनाव करीब है, वैसे भी मुद्दा बन ही गया है.
आईटीएस अफसर
लगता है कि छत्तीसगढ़ में प्रतिनियुक्ति पर पदस्थ आईटीएस यानी इंडियन टेलीकॉम सर्विस के अफसरों को केंद्र सरकार भी भूल गई है. ईडी की गिरफ्त में आए ए पी त्रिपाठी और खाद्य विभाग संभाल रहे मनोज कुमार सोनी की प्रतिनियुक्ति खत्म हो चुकी है, बावजूद सालों से राज्य शासन उनकी सेवा बहाल किए हुए है. जबकि प्रतिनियुक्ति के आदेश में यह स्पष्ट तौर पर लिखा होता है कि प्रतिनियुक्ति अवधि खत्म होने के तुरंत बाद उनकी सेवाएं केंद्र को लौटा दी जाए. अब मालूम नहीं कि कौन से नए नियम ने इन अफसरों की राज्य में तैनाती बरकरार रखी है. टेलीकॉम सेक्टर में निजी कंपनियों की तेजी ने बीएसएनएल जैसे सरकारी उपक्रमों की कमर तोड़ दी है. टेलीकाम अफसरों की मूलतः तैनाती बीएसएनएल जैसे उपक्रमों में ही की जाती रही है. अब वहां काम कम है, अफसर ज्यादा है. लगता है इस वजह से ही केंद्र सरकार भी राज्यों में प्रतिनियुक्ति पर भेजे गए अपने अफसरों को जानबूझ कर देखना नहीं चाहती. त्रिपाठी और सोनी जैसे अफसर यदि राज्य के लिए मुफीद साबित हो रहे हैं, तो राज्य को भी भला क्या दिक्कत होगी? मगर लूप लाइन में पड़े आईएएस कैडर के अफसरों का दिल जरूर जलता होगा, यह सब देखकर कि उनकी जगह पर बाहरी आदमी बैठा है.
सद्भावना संदेश
नफरत की तेज होती रोपाई के बीच सूबे के अल्पसंख्यक मंत्री मो.अकबर के सरकारी बंगले के गमलों में सजा सद्भावना का पौधा प्रेम का संदेश दे रहा है. गमले में अलग-अलग धर्म के प्रतीक चिन्ह उकेरे गए हैं. ये गमला तब नहीं रखा गया, जब कवर्धा से लेकर बिरनपुर तक उन्मादी भीड़ सद्भावना को अपने पैरों तले रौंदने पर आमादा थी, बल्कि इसे तब रखा गया है, जब मो.अकबर भूपेश सरकार में मंत्री बनकर सरकारी बंगले में आए थे. तब विभाग के चंद लोगों ने एक पौधे की बड़े ही करीने से छटाई कर धर्म विशेष का प्रतीक चिन्ह तैयार कर बंगले में सजा दिया था. जब इस गमले पर मो.अकबर की नजर पड़ी, तब उन्होंने इसे यह कहते हुए हटवा दिया था कि धर्म विशेष का संदेश देते इस गमले को तब तक ना रखा जाए, जब तक सर्वधर्म समभाव का संदेश जाता ना दिखे. बाद में अलग-अलग धर्मों के प्रतीक चिन्ह गमलों में लगे पौधों पर उकेरे गए. ये वहीं मो.अकबर हैं, जिन्होंने दशकों पहले देश में पनपते सांप्रदायिक लहरों के बीच रायपुर में राम मंदिर बनवाकर सद्भावना की पहल की थी. तब अकबर कृषि उपज मंडी के अध्यक्ष थे.
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