अरुण साव को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की वजह?

बीजेपी आलाकमान ने सांसद अरुण साव को प्रदेश की कमान सौंप दी. हालांकि दौड़ में सिर्फ साव ही नहीं थे. रामविचार नेताम और केदार कश्यप के नामों को लेकर भी चर्चा होने की खबर है. तमाम समीकरणों के बाद आलाकमान ने अरुण साव पर एक बड़ा दांव लगाया. बताते हैं कि दिल्ली में जब प्रदेश अध्यक्ष को लेकर चर्चा चल रही थी, तब आदिवासी वर्ग का प्रतिनिधित्व दिए जाने की वकालत की गई. विष्णुदेव साय आदिवासी चेहरा थे, सो उनके रिप्लेसमेंट में आदिवासी चेहरा ही लाए जाने की चर्चा छिड़ी, मगर रणनीतिकारों ने खास मकसद के लिए अरुण साव को कमान सौंपे जाने का अंतिम निर्णय लिया. प्रदेश अध्यक्ष बदले जाने की इस कवायद के दौरान बीजेपी आलाकमान ने सबसे पहले पूर्व मुख्यमंत्री डाॅक्टर रमन सिंह को दिल्ली बुलाया. जाहिर है इस अहम बदलाव से जुड़े मसलों पर रायशुमारी की गई होगी. रमन दिल्ली गए और लौट आए. क्षेत्रीय संगठन महामंत्री अजय जामवाल जब छत्तीसगढ़ से दिल्ली लौटे, तब विष्णुदेव साय और पवन साय को बुलाया गया. बताते हैं कि आलाकमान ने साय से अपने फैसले की जानकारी साझा की. आलाकमान चाहता था कि किसी नए चेहरे को कमान सौंपी जाए. कहते हैं कि इसके बाद बीजेपी आलाकमान ने अरुण साव, केदार कश्यप, रामविचार नेताम के नाम पर मंथन किया. केदार कश्यप और रामविचार नेताम रमन सरकार के दौरान मंत्री रहे हैं, लिहाजा दलील ये दी गई कि राज्य की सत्ता जाने की सामूहिक जिम्मेदारी पिछली सरकार के मंत्रीमंडल की रही. इसके बाद केदार और रामविचार सरीखे नाम प्रदेश अध्यक्ष की दौड़ से बाहर हो गए. बचे सिर्फ साव. संगठन के बड़े नेता कहते हैं कि बीजेपी इस दफे चुनाव में कदम फूंक-फूंक कर रखती दिख रही है. पिछली सरकार में सत्ता की चमक देख चुके चेहरे को कमान सौंपे जाने से पार्टी को डर था कि कहीं लेने के देने ना पड़ जाए. भूपेश कका कच्चा चिट्ठा ना खोल दे. ऐसे में नया अध्यक्ष बनाने की पूरी प्रक्रिया में बीजेपी इस गणित के साथ चलती रही कि चुनावी मुकाबला कांग्रेस पार्टी से ज्यादा मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से है. ऐसे में चेहरा बिल्कुल नया और आक्रामक चुना जाए. अरुण साव सारे पैरामीटर पर फिट बैठते दिखे. साव का बैकग्राउंड आरएसएस का है. इसका एडवांटेज भी मिला.

कुर्मी वर्सेज साहू

कहने को तो कुर्मी और साहू समाज ओबीसी वर्ग से आते हैं. मगर राजनीतिक-सामाजिक नजरिए ने दोनों के बीच बड़ा अंतर खड़ा कर दिया गया है. मुख्यमंत्री भूपेश बघेल कुर्मी समाज से हैं. बीजेपी ये मानकर चल रही है कि कुर्मी वोट बैंक पर मजबूत पकड़ कांग्रेस का है, सो बीजेपी ने साहू कार्ड खेला है. बीजेपी कुर्मी वर्सेज साहू के समीकरण को साधने की कोशिश कर रही है. कहते हैं कि राज्य में ओबीसी वर्ग में कुर्मी से ज्यादा साहू समाज का वोट बैंक है. जाहिर है अरुण साव के जरिए एक बड़े और प्रभावशाली वोट बैंक पर बीजेपी अपना कब्जा करना चाहती है. साव साहू समाज से ताल्लुक रखते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी साहू हैं. साल 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान छत्तीसगढ़ में हुई एक चुनावी रैली में प्रधानमंत्री मोदी साहू समाज पर केंद्रित अपने बयान के जरिए राजनीतिक फायदा उठा चुके हैं. ”चौकीदार चोर हैं” वाले बयान के जवाब में मोदी ने चुनावी रैली में यह कहा था कि एक नामदार पूरे समाज को चोर कह रहा है. छत्तीसगढ़ में जो साहू हैं, गुजरात में मोदी हैं.राजस्थान में राठौड़ हैं. तो क्या सारे मोदी चोर हो गए? छत्तीसगढ़ में साहू समाज का राजनीतिक दखल बेहद मजबूत है, लिहाजा इस बयान के गंभीर नतीजे देखे गए. कहते हैं कि साहू समाज ने एकजुट होकर बीजेपी के पक्ष में वोट डाला था. जाहिर है लुभावने घोषणाओं के साथ-साथ साल 2023 में होने वाले चुनाव में सबसे बड़ा विनिंग फैक्टर ‘ओबीसी’ होगा. 

भू-अर्जन अधिकारी !

मनमाना काम इसे ही कहते हैं. यहां नियम-कायदों की कोई अहमियत नहीं होती. राजस्व संहिता कहती है कि भू-अर्जन अधिकारी वहीं बन सकता है, जिसने डिप्टी कलेक्टर की हैसियत से कम से कम पांच साल काम किया हो. जिला मुख्यालयों में आमतौर पर एसडीएम भू-अर्जन अधिकारी होते हैं. मगर कई जिले ऐसे हैं, जहां प्रोबेशन पर काम कर रहे डिप्टी कलेक्टर भू-अर्जन अधिकारी के ओहदे पर बैठे हैं. बताते हैं कि कई कलेक्टरों को तो भू राजस्व संहिता के नियम कायदों की जानकारी नहीं है. इसके अभाव में ही इस तरह की नियुक्तियां हो रही हैं. दूसरी बात ये भी सुनाई पड़ रही है कि भू-अर्जन अधिकारी अगर जानकार निकला, तो कलेक्टर के दिए निर्देशों में नियम-कानून की दीवार खड़ा कर देगा. जबकि ताजा-ताजा नौकरी में आया व्यक्ति उत्साह में वह हर काम करेगा, जो कलेक्टर कह दे. तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि नई-नई नौकरी में आ रहे लोग कहीं ज्यादा स्मार्ट हैं. जुगाड़ में इतने माहिर कि मनचाहा पोस्टिंग पा रहे हैं. इन्हें काम-धाम सीखने की कोई जरूरत नहीं है, सीखे सिखाए पैदा हुए हैं. किन लोगों से, किस तरह, कितना और कब तक फायदा उठाना है, इसकी अच्छी खासी तालीम ले रखी है. 

ट्रांसफर बैन हटा

मंत्री-विधायकों और नेताओं का दबाव था कि ट्रांसफर से बैन हटा दिया जाए. बैन कई तरह के निजी हितों को साध नहीं पाता. बहरहाल कैबिनेट की सब कमेटी ने नियम कायदे बनाए और सरकार ने उसे मंजूरी दे दी. अब मंत्रियों के अनुमोदन से धड़ाधड़ ट्रांसफर होंगे. ट्रांसफर खोले जाने के बाद के हालात को सूबे के मुखिया बखूबी समझ रहे हैं. शायद तभी उन्होंने अपने बयान के जरिए ये संकेत दे दिया है कि गड़बड़ी की शिकायत पर सख्ती बरती जाएगी. ट्रांसफर पाॅलिसी में इस बार स्कूल शिक्षा विभाग को लेकर अलग से दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं. दरअसल ट्रांसफर पर बैन के दौरान स्कूल शिक्षा विभाग में धड़ल्ले से तबादले किए गए थे. सरकार की खूब बदनामी हुई थी. ट्रासंफर पर इस दफे सरकार बेहद सतर्क दिखाई पड़ रही है. 

आ बैल मुझे मार

मुंगेली एक ऐसा जिला हैं, जो कांग्रेस विधायक मुक्त है. इस जिले में कांग्रेस नेताओं का दर्द उस वक्त छलक जाता है, जब प्रशासनिक कार्यक्रम में बीजेपी के नेता बतौर मुख्य अतिथि बुलाए जाते हैं. अभी हाल ही में विश्व आदिवासी दिवस के कार्यक्रम में नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक मुख्य अतिथि थे. कांग्रेस नेता नाक भौंह सिकोड़ते दिखाई पड़े. प्रशासन पर चढ़ाई कर बैठे कांग्रेसजनों को यह समझा पाना भी मुश्किल हो जाता है कि मसला प्रोटोकाॅल का है. सत्तापक्ष से विधायक नहीं होने पर कई दफे प्रशासन को लेने के देने पड़ जाते हैं. बताते हैं कि विश्व आदिवासी दिवस के कार्यक्रम में मंच से ही जेसीसी विधायक धर्मजीत सिंह ने कलेक्टर का नाम लेकर कहा, ”सुदूर इलाकों की समस्या से लेकर कई बुनियादी सुविधाओं के लिए वनांचल के लोग तरस रहे हैं.” यह सुनते ही प्रशासन को लगने लगा कि आ बैल मुझे मार वाली कहावत चरितार्थ हो रही है. 

एसपी का कड़क अंदाज 

एक जिले के एसपी की कड़क मिजाजी की खूब चर्चा है. सुना है काम के प्रति ना तो वह ढुलमुल रवैया अपनाते हैं और ना ही खटराल लोगों को अपने आसपास भटकने देते हैं. इससे पहले का आलम यह था कि छुटभैय्या नेता भी एसपी के सिर चढ़कर नाचता था. नए वाले थोड़े अलग किस्म के व्यक्ति हैं. पिछले दिनों विपक्षी दल के एक विधायक एसपी से मिलने उनके दफ्तर पहुंचे. बाकायदा सूचना भिजवाई गई थी कि विधायक मिलने आ रहे हैं. बताते हैं कि एसपी ने विधायक को करीब बीस मिनट इंतजार करवा दिया. इंतजार करना विधायक को रास नहीं आया और बगैर मिले वह लौट गए. ये वही विधायक हैं, जब सदन में कुछ कहते हैं, तब गंभीरता से दूसरे विधायक सुनते हैं. वैसे एसपी को लेकर भी कहा जाता है कि जिस जिले में रहे हैं, वहां राजनीति को अपने आसपास भटकने नहीं दिया. मगर सवाल ये है कि असल मायने में इस राजनीति से कौन सा एसपी बच सका है? कितने ही एसपी हैं, जो एसपी गिरी करते-करते राजनीति करने लग गए. सभी जानते हैं कि राज्य के एसपी कितने प्रतिभाशाली हैं.