चंदा
एक दिवंगत नेता कहते थे. चुनाव लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व है. चुनाव के लिए राजनीतिक दल जरूरी है और दलों के चलने के लिए चंदा. चंदा ही है, जो राजनीतिक दलों को सैकड़ों साल से संभाले हुए हैं. सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद एसबीआई ने चुनाव आयोग को इलेक्टोरल बॉन्ड के सही आंकड़े दिए तब जाकर देश को मालूम चल सका कि राजनीतिक दल दरअसल अब सिर्फ एक दल नहीं, बल्कि उनकी हैसियत किसी कारपोरेट कंपनी से कमतर नहीं है. दलों का अपना टर्नओवर है. हजारों करोड़ रुपयों का बैलेंस शीट है. बैंकों में इतनी एफडी है कि उससे मिलने वाला ब्याज सैकड़ों करोड़ रुपयों का है. यानी चंदा में मिला पैसा भी हर दिन दोगुना हो रहा है. इधर छत्तीसगढ़ में भी चंदा का हिसाब बेहिसाब रहा. पूर्ववर्ती सरकारों में चंदा लेने की तरह-तरह की कहानियां बाहर आ रही है. किसी ने पिछली सरकार की एक बात साझा करते हुए बताया कि सत्ता में आते ही सरकार ने एक बड़े कारोबारी के संयंत्र की बिजली काट दी. कारोबारी त्राहिमाम त्राहिमाम की रट लगाते सरकार की शरण में आया. सरकार ने कह दिया कि फलाने मंत्री से मिल लेना. मंत्री ने पार्टी फंड के नाम पर दस करोड़ रुपये का चेक कटा लिया. इधर चेक कटा, उधर बिजली जुड़ गई. चंद महीनों बाद लोकसभा का चुनाव होना था. मालूम पड़ा कि सरकार में बैठते ही कलेक्शन शुरू हो गया था. इसी तरह पिछली सरकार में एमओयू-एमओयू खूब खेला गया. एमओयू का उसूल था. पहले पार्टी में चंदा दीजिए. चंदे की रिसीप्ट लाइये तब एमओयू पर दस्तखत होगा. करोड़ों का चंदा पार्टी को मिला. कागजों पर खूब एमओयू हुए. मगर बीतते वक्त के साथ कागजों से स्याही उधड़ती चली गई. एमओयू जिन कागजों पर हुए थे, वह अब कोरे हो गए हैं.
पर्ची
सूबे में एक सरकार रही. यहां चंदे की पर्ची चलती थी. कोई सरकारी ठेका निकलता तो ठेका लेने वाले को ठेका की कुल राशि का दो फीसदी हिस्सा पार्टी फंड में देना होता. पार्टी में फंड जमा कराने के बाद एक पर्ची दी जाती. यही पर्ची ठेका पाने का गेटवे बनती. ठेका से कंपनी और कंपनी से पार्टी दोनों ही खूब पैसा कमाते. बरसो की यह तैयारी थी. सत्ता में रहो या ना रहो पार्टी चलती रहनी चाहिए. पार्टी चलाने के लिए नेता रहे या ना रहे चंदा मिलते रहना चाहिए. जिन-जिन नेताओं ने पार्टी के नाम पर चंदे की पर्ची कटवाई वह अब हाशिये पर हैं. मगर पार्टी गुलजार है. नई टीम सुनहरी फसल काट रही है.
गुजरात फार्मूला
भाजपा सरकार में अब मंत्रियों और विधायकों की वैसी मौज नहीं रही, जैसा पहले हुआ करती थी. राज्य सरकार की हालत केंद्र सरकार सरीखे हो गई है, जहां मंत्रियों और सांसदों पर पैनी निगाह है. कुछ इधर उधर हुआ नहीं कि सीधे पीएमओ से फोन चला आता है. जानकार इसे गुजरात फार्मूला बताते हैं. फिलहाल तो मंत्री-विधायक लोकसभा चुनाव में व्यस्त हैं, लेकिन चुनाव बीतते ही एक तय प्रोटोकाल में उन्हें रहने की हिदायत है. कहा गया है कि मंत्री-विधायक हर शनिवार-रविवार अपने क्षेत्र में रहेंगे. हर हफ्ते कैबिनेट की बैठक होगी. विधायक निधि के खर्चों का हिसाब संगठन को भी देना होगा. इन सबसे बीच चौंकाने वाली बात यह है कि हर ढाई साल में मंत्री-विधायकों को अपना पीए बदलना होगा. संगठन का मानना है कि पीए खुद को मंत्री समझने का भ्रम पालने लग जाए इससे पहले उन्हें बदल दिया जाए. मतलब साफ है सरकार में भले ही कोई बैठा हो, संगठन के हाथ एक चाबुक रहेगा ही.
इनोवेटिव कलेक्टर
एडमिनिस्ट्रेशन का एप्रोच पब्लिक ओरिएंटेड होना चाहिए. पिछली सरकार में कलेक्टरों का एप्रोच कंस्ट्रक्टिव नहीं रह गया था. प्रायोरिटी अलग थी. भाजपा नेता भी आरोप लगाते थे कि कलेक्टर का काम सिर्फ कलेक्शन एजेंट का हो गया है. आरोप का आधार रहा होगा. अब इनोवेटिव आइडिया पर काम होता दिख रहा है. फिलहाल इसकी दो तस्वीर रायपुर और सरगुजा से सामने आई है. रायपुर कलेक्टर गौरव सिंह ने कलेक्ट्रेट में एक ऐसा मैकेनिज्म डेवलप किया है, जिससे कामकाज में ट्रांसपेरेंसी लाई जा सके. गौरव सिंह ने नियमित सुनवाई के लिए एक परमानेंट सेल बनाया है. जिले के जितने ब्लॉक हैं, उन सभी ब्लाक के अलग-अलग डेस्क बनाए गए हैं. शिकायत या परेशानी सीधे उस डेस्क में जाती है. हर डेस्क पर एक रिस्पांसिबल अफसर तैनात है. सेल में एक बोर्ड है, जिस पर दर्ज होने वाले प्रकरण, निराकृत प्रकरण और लंबित प्रकरण की जानकारी है. प्रकरण का खात्मा हुआ या नहीं. प्रार्थी की अर्जी पर क्या एक्शन लिया गया. इन सबका ब्यौरा बोर्ड में दर्ज किया जा रहा है. लक्ष्य रखा गया है कि लंबित प्रकरण शून्य तक पहुंचाया जाए. सरगुजा कलेक्टर भोस्कर विलास संदीपान ने कलेक्टर कोर्ट को ही आनलाइन कर दिया है. कलेक्टर कोर्ट में होने वाली सुनवाई आनलाइन होने से दूरदराज के ग्रामीणों को लाभ मिलेगा. प्रकरणों की सुनवाई के लिए मीलों दूर आने के झंझट से बचेंगे. सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के बाद किसी कलेक्टर कोर्ट को आनलाइन किये जाने का यह पहला प्रयोग है. कलेक्टर चाहे तो क्या ना कर ले. चाह बड़ी चीज है. 11 साल पहले ओ पी चौधरी जब दंतेवाड़ा कलेक्टर थे, तब उन्होंने अजीविका काॅलेज बनाया था. सुदूर अंचलों के आदिवासी बच्चों का कौशल विकास कर रोजगार से जोड़ा. नक्सल प्रभावित इलाके में हुए इन अनूठे प्रयोग के लिए चौधरी को तब प्रधानमंत्री अवार्ड मिला था.
मुहर
नई सरकार आने के बाद सबसे पहले अफसर ही टारगेट पर आते हैं. हर नई सरकार कुछ अफसरों के चेहरे पर पिछली सरकार का मुहर खुद लगा जाती है. पूर्ववर्ती सरकार में भाजपा के विचार परिवार से जुड़े कुछ अफसरों ने ठीक ठाक पोस्टिंग पा ली थी. सूबे में भाजपा सरकार आई, तब उन अफसरों के चेहरों पर कांग्रेस का मुहर था, सो उनके तबादले की नोटशीट पर भाजपा सरकार ने अपनी मुहर लगा दी. इस मुहर लगाने के खेल के चक्कर में व्यवस्था प्रभावित हो जाती है. सरकारी व्यवस्था में भीड़ बहुत है. इस भीड़ में कुछ ही अफसर रिजल्ट देने वाले होते हैं. सभी सरकारों को इन अफसरों की जरूरत होती है. इनमें से अधिकांश ‘मुहर’ की पैरोकारी वाले नहीं होते. मगर हर बदली व्यवस्था संदेह के चश्मे से ही सबको देखती है. खैर वक्त के साथ मेहनतकश अफसर-कर्मचारी अपनी जगह पा ही लेते हैं. पिछले चंद महीनों में हुई तबादले की सूची देख आइए. कईयों ने अपने परफारमेंस पर दोबारा जगह पा ली, तो कई जुगाड़ के रास्ते सिस्टम में लौट आए.