Column By- Ashish Tiwari , Resident Editor

‘जांच के घेरे में पूर्व मंत्री’

भूपेश सरकार के एक मंत्री जांच के घेरे में आ गए हैं. भाजपा नेता नरेश चंद्र गुप्ता की भेजी गई एक शिकायत पर केंद्र सरकार ने ईडी, सीबीडीटी, आईटी जैसी एजेंसियों को इस मामले को देखने कहा है. गृह मंत्रालय को भी चिट्ठी लिखी है. अब बात सिर्फ देखने तक सीमित रहेगी या इसके आगे भी बढ़ेगी फिलहाल यह मालूम नहीं, मगर चिट्ठी तो लिख दी गई है. इधर सूबे में जब से साय सरकार आई है, तब से हर फैसले में एक ठहराव है. मंत्रिमंडल बनाना हो, पोर्टफोलियो देना हो या अफसरों की नियुक्ति करनी हो. हर फैसले में एक ठहराव है. हालांकि घोषणा पत्र में भाजपा ने यह वादा किया था कि भूपेश सरकार के भ्रष्टाचार के मामलों की जांच होगी. यह भी एक ठहरा हुआ फैसला है. देखते हैं, सरकार का यह ठहराव कहां जाकर खत्म होगा.

‘रंग-रंग के अफसर’

मंत्रियों को उनके पोर्टफोलियो दे दिए गए. अब बारी अफसरों की तैनाती की है. जब से सरकार बदली है. ब्यूरोक्रेसी सरकार की ओर निगाह जमाए बैठी है. कुछ बेहतर पाने की उम्मीद में हैं, तो कुछ इस सदमे में हैं कि उन्हें लूप लाइन में कहां भेजा जाएगा. इस बीच एक चर्चा खूब तेजी से सुनाई पड़ी है. कहा जा रहा है कि अफसरों की तैनाती के पहले भाजपा नेताओं ने उनकी पूरी कुंडली निकालने के बाद उनके नामों को तीन रंगों में बांटा है. पहला है लाल रंग. जिन अफसरों के नाम लाल रंग में लिखे गए हैं, स्वाभाविक हैं कि उनके दुर्दिन शुरू होने वाले हैं. दूसरा रंग है हरा. हरे रंग में रंगे अफसरों के नाम वाले चेहरों के जीवन में हरियाली बिखेरने की तैयारी सरकार ने कर ली है और तीसरा रंग है नीला. ये वो अफसर हैं, जो न्यूट्रल रहकर काम करते रहे. कांग्रेस ने कहा ये कर दो, कर दिया. भाजपा ने कहां थोड़ी मदद कर दो, सो कर दिया. संकेत तो यही है कि भाजपा ऐसे न्यूट्रल अफसरों का भी ख्याल कर रही है. हरे रंग में रंगे अफसरों की तैनाती के बाद कुछ ठीक ठाक बचा तो नीले रंग में रंगे अफसरों को कुछ ना कुछ मिल ही जाएगा. दिक्कत सिर्फ उन अफसरों के लिए हैं, जिनके नाम लाल रंग में रंगे गए हैं, सो उन अफसरों का चेहरा लाल हुआ बैठा है.

‘हाल-ए-कलेक्टर’

अब हाल एक ऐसे कलेक्टर का जो पूर्ववर्ती सरकार के बेहद करीबी रहे. सरकार बदली, तो लिबाज बदल लिया. वाजिब भी है. इसमें कलेक्टर साहब की कोई गलती नहीं. लिबाज ना बदलते, तो सरकार ठिकाने लगा देती. दरअसल हुआ कुछ यूं कि चुनावी नतीजे आने के बाद पूर्व सीएम ने किसी काम के सिलसिले में कलेक्टर को फोन किया. मगर सियासी मौसम बदल चुका था. बदले हुए मौसम में फोन उठाना कहीं भारी ना पड़ जाए, शायद यह सोचकर कलेक्टर साहब ने फोन नहीं उठाया. पूर्व सीएम फोन करते रहे. घंटी बजती रही. मगर कलेक्टर ने पूरी तरह से इग्नोर किया. पूर्व सीएम भी कहां मानने वाले थे. स्वभाव से जिद्दी जो थे, सो दर्जनों बार फोन करते रहे. थक हार कर कलेक्टर साहब को फोन उठाना पड़ा. तब तक गुस्से से लाल हो चुके पूर्व सीएम ने क्या किया होगा, समझा जा सकता है. कलेक्टर साहब को इस गलती का पूरा-पूरा एहसास कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कहते हैं कि पूर्व सीएम ने यह तक कह दिया कि ढेरों शिकायतें थी तुम्हारी, फिर भी कलेक्टरी बची रही. खैर नई-नई सरकार आने के बाद अफसरों का व्यवहार बदल ही जाता है. ना बदले तो दिक्कत, बदल जाए तो दिक्कत. एक तरफ कुआं-दूसरी तरफ खाई. कुछ तो चुनना ही पड़ता है. यहां कलेक्टर ने कम गहराई में कूदना ही बेहतर समझा होगा. कुएं से निकलना आसान होता है ना.

‘टेंडर का टेंशन’

एक कॉरपोरेशन में निकले एक टेंडर पर खूब बवाल मचा है. कहते हैं कि इस टेंडर में नियम प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया. इक्विपमेंट के मेंटनेंस का कोई टेंडर था. आचार संहिता के दौरान बड़ा खेल खेला गया. टेंडर आनलाइन निकाला गया, मगर विज्ञापन जारी नहीं किया गया. आरोप लग रहा है कि तेलंगाना की एक कंपनी को फायदा पहुंचाने के इरादे से प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया. सुना गया है कि इस गड़बड़ी की शिकायत पीएमओ तक भेजी गई. चर्चा है कि पिछले दिनों भाजपा सरकार ने इस मामले को गंभीरता से लिया और कॉरपोरेशन के अफसरों को तलब कर जमकर फटकार लगाई गई.

‘बंद कमरे की चर्चा’

सरकार बन गई. मंत्रिमंडल का गठन हो गया. मंत्रियों को उनका पोर्टफोलियो दे दिया गया. सब कुछ हुआ हौले-हौले. अब सरकार की नजर प्रशासनिक महकमे में बदलाव की है. कहते हैं कि सूची लगभग तैयार है, बस निकलने की देरी है. खैर, एक बंद कमरे की चर्चा बाहर फूट पड़ी है. सुना गया है कि एक विभाग के एडिशनल डायरेक्टर परेशान हैं. कह रहे थे कि 30 तारीख बीत गई. आदेश एक-दो दिन में नहीं आया, तो पुराने डायरेक्टर से लेकर सेक्रेटरी तक का जो चेन बना है, सिस्टम जनरेटेड कमीशन उन तक पहुंचाना होगा. अच्छा होता, अगर तबादले पर सरकार मुहर लगा देती. नए साहब आते, तो संबंध बहाली भेंट के साथ ही शुरू हो जाती. तबादला नहीं होगा, तो समझने बुझने में एक महीना लग जाएगा. बहरहाल सरकार में किस्म किस्म के किस्से हैं. यहां पोस्टिंग के लिए अफसर हैरान-परेशान घूम रहे हैं. लोग समझ नहीं पा रहे कि अच्छी पोस्टिंग के लिए किससे और कैसे मिलना है. यहां एडिशनल डायरेक्टर की अलग परेशानी है.

‘चार्जशीट’

जोर का हल्ला उड़ा है. चुनाव के पहले से फरार चल रहे कांग्रेस के एक दिग्गज नेता के खिलाफ ईडी फाइनल चार्जशीट पेश करने की तैयारी में है. चर्चा है कि नेताजी फरारी में इन दिनों विदेश में है. गिरफ्तारी का डर उन्हें वापस आने नहीं दे रहा. नेताजी को हिरासत में लेने की, एजेंसी की बेसब्री टूट नहीं रही, सो कुल मिलाकर इस नतीजे पर पहुंचा जा रहा है कि फरार बताकर कम से कम चार्जशीट ही पेश कर दिया जाए. कहते हैं कि चुनाव के दरमियान नेताजी नहीं थे, कांग्रेस का वित्तीय प्रबंधन लड़खड़ा गया. कांग्रेस चुनाव हार गई. खैर, इधर अखिल भारतीय सेवा स्तर के एक अधिकारी को ढूंढने ईडी खूब हाथ पैर मार रही है. खबर है कि वीआईपी रोड के करीब एक सोसाइटी में जवानों की हलचल तेज हुई है. लगता है इरादा उठाने का ही है. मगर मिले तब तो…