‘प्रयोगशाला’
सरकारी सिस्टम में पैसा कमाने का अपना एक अलग विज्ञान काम करता है. इसकी अपनी अलग प्रयोगशाला है. जितने विभाग, उतने तरीके. कुछ घिसे पिटे पुराने तौर तरीकों से पैसा बनाते हैं, तो इन्हीं में से कुछ हुनरमंद निकल आते हैं, जो अपना एक अलग अनूठा फार्मूला सिस्टम में सेट कर लंबी छलांग लगा जाते हैंं. विधानसभा के बजट सत्र में एक सवाल के जवाब में ऐसा ही तरीका दिखाई पड़ता है. डोंगरगढ़ की विधायक हर्षिता बघेल के एक सवाल के जवाब में सरकार ने बताया है कि जिला शिक्षा अधिकारी ने झाडू, बाल्टी, फिनाइल, मग्गा, डस्टबीन, हारपिक जैसी सामग्री की खरीदी पर करोड़ों रुपए खर्च कर डाले. डीएमएफ और समग्र शिक्षा के मद से पैसे मिले थे. 1 जनवरी 2021 से 31 मार्च 2021 के बीच एक करोड़ 27 लाख 37 हजार 957 रुपए का यह सब सामान खरीदा गया, जबकि बच्चों की पढ़ाई लिखाई से जुड़ी विज्ञान सामग्री के लिए 6 लाख 58 हजार 215 रुपए खर्च किए गए. फर्नीचर, कार्यालयीन व्यय, प्रश्न पत्र और उत्तर पुस्तिका की छपाई के नाम पर 40 लाख रुपए अलग से खर्च किया गया. ऐसा नहीं है कि यह खर्च पूरे जिले के लिया गया हो. ये आंकड़ा महज एक ब्लाक डोंगरगढ़ का है. जिले के दूसरे ब्लाक में खर्च के आंकड़ें अलग हैं. खैर, अब जब करोड़ों खर्च कर झाडू, बाल्टी, मग्गा, हारपिक जैसी सामग्री खरीदी गई है, तो सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि एक फिजिकल वेरिफिकेशन कर इसकी जांच कर ली जाए कि साफ सफाई से स्कूल चमके या जिम्मेदारों के चेहरे !
‘शक्तिपुंज’
भाजपा की नई सरकार का शक्तिपुंज ‘जागृति मंडल’ हो गया है. ‘जागृति मंडल’ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का प्रदेश मुख्यालय है. सरकार को समय समय पर वहां जाकर हाजिरी लगानी होती है. इस दफे भाजपा की सरकार आने के बाद से संघ की भूमिका नए रूप में सामने आई है. संघ सीधे दिल्ली से जुड़ा है. चर्चा है कि छोटे-छोटे मामलों में भी संघ का सीधा दखल है. मंत्रियों को सीधे फोन जा रहा है. प्रशासनिक नियुक्तियों में भी दखल है. अफसर संघ की पैरवी के साथ नियुक्ति पा रहे हैं. भाजपा संगठन के बड़े नेता तो यह कहते तक सुने गए कि ‘कुशाभाऊ ठाकरे परिसर’ से ज्यादा प्रभावी ‘जागृति मंडल’ हो गया है. नेताओं का बड़ा वर्ग है, जो इस बात पर मुंह फुलाए बैठा है, इस दलील के साथ कि विपक्ष में रहते हुए सड़कों पर आंदोलन हम करते रहे, डंडे हमने खाए, एफआईआर हमारे नाम पर दर्ज होती रही लेकिन अब सुनवाई ‘जागृति मंडल’ से हो रही है. नेता कहते हैं कि दरअसल भाजपा के सिस्टम में यह व्यवस्था ही नहीं है. संगठन मंत्री के जरिए संघ अपना काम करवाता है. संगठन मंत्री एक सेतु की भूमिका में होता है. एक पूर्व मंत्री तो इतने नाराज हुए कि यह पूछ बैठे कि बीते पांच सालों में राज्य में कितनी नई शाखाएं खुल गई? कितना धर्मातरण रोक लिया? संघ यह बता दे. फिलहाल इस नई व्यवस्थाओं को लेकर कई नेताओं के माथे पर बल पड़ रहा है. देखते हैं आगे क्या होता है. सरकार का लंबा तजुर्बा रखने वाले एक पूर्व मंत्री की टिप्पणी भी काबिलेगौर है. पूर्व मंत्री कहते हैं कि नेता भ्रम में रहते हैं कि सरकार का ‘शक्तिपुंज’ फलाना ढेकाना है. सरकार का वजूद अफसरों से है. ऐसे में सवाल यह होना चाहिए कि संघ की भूमिका ‘शक्तिपुंज’ की बनी रहेगी या अफसरों का बोलबाला होगा. अफसर इसलिए क्योंकि ये नेताओं को कहां ले जाकर टिका आएंगे, उन्हें खबर तक नहीं होगी. नेता भ्रम में होते हैं कि वह सरकार चला रहे हैं. ड्राइविंग सीट का कंट्रोल अफसरों के हाथों होता है. बस सिस्टम बनने तक की देरी है.
‘पीसीसीएफ कौन?’आखिरी वक्त पर कोई बड़ा उलटफेर नहीं हुआ, तो 1990 बैच के आईएफएस अनिल राय नए पीसीसीएफ होंगे. श्रीनिवास राव की जगह उनकी ताजपोशी की तैयारी लगभग कर ली गई है. पता चला है कि उनकी नियुक्ति से जुड़े नोटशीट पर मुख्यमंत्री ने दस्तखत कर दिया है. हालांकि दस्तखत हुए कुछ वक्त बीत गया. मगर आदेश कहीं जाकर रुक गया है. भूपेश सरकार ने पीसीसीसी और हेड आफ फारेस्ट के पद पर श्रीनिवास राव की नियुक्ति की थी. कई अफसरों को सुपरसीड कर राव को वन महकमा सौंप दिया गया था. तब अफसरों का विरोध भी धरा का धरा रह गया. कहते हैं कि तत्कालीन वन मंत्री भी राव की नियुक्ति किए जाने के पक्ष में नहीं थे, लेकिन नियुक्ति के पीछे सीएम हाउस खड़ा था. वैसे बता दें कि वन महकमे में ‘राव’ एक बेहतर प्रबंधक के रूप में पहचाने जाते हैं. उनके साथ काम कर चुके सीनियर अफसर कहते हैं कि ‘साधने’ की कला में वह निपुण हैं.
‘जमीन पर मंत्री’
पद और कद दोनों ऊंचा हो गया, मगर उप मुख्यमंत्री विजय शर्मा ‘जमीन’ पर है. संघर्षों से अपना मुकाम हासिल किया है. शायद ‘जमीन’ की अहमियत बेहतर समझ रहे हैं. पिछले दिनों विधानसभा में कवर्धा का एक प्रतिनिधि मंडल उनसे मिलने आया. लोग ज्यादा थे, उनमें कुछ बुजर्ग भी थे. विजय शर्मा विधानसभा के लाॅन में जमीन पर ही बैठ गए. हंसी ठिठोली के बीच सबकी सुनी. बुजुर्ग किसी आंदोलन का जिक्र कर रहे थे. उप मुख्यमंत्री ने बातचीत में ही हल ढूंढ लिया. भीड़ राजी खुशी लौट गई. विधानसभा में मंत्रियों को अलाॅट दफ्तरों में विजय शर्मा इकलौते मंत्री हैं, जिनके दफ्तर का दरवाजा बंद नहीं होता. भीड़ आती-जाती है. उप मुख्यमंत्री का काम चलता रहता है. एक इंटरव्यू में विजय शर्मा ने कहा था कि उनका सपना विधायक बनने तक का था. उप मुख्यमंत्री बनने की बात जेहन में भी ना थी. ओहदा बढ़ा, तो अब जिम्मेदारी भी बढ़ गई. बहरहाल नेता मंत्री जमीन पर ही रहे तो बेहतर है. सब कुछ करीब से दिखता है. ऊंचाई से देखने पर समस्याएं छोटी दिखती है. लगता है उप मुख्यमंत्री ने इस गूढ़ रहस्य को समझ लिया है.
‘रडार पर विधायक’
एक नवनिर्वाचित विधायक हैं तो रुलिंग पार्टी की टीम से, मगर रह रह कर उनकी दिलचस्पी पिछली सरकार में बनाई गई पिच से बैटिंग करने की हो रही है. विधायक की इस दिलचस्पी की चर्चा आला नेताओं तक पहुंच गई है. फिलहाल तो चेतावनी दे दी गई है, मगर नियत में कोई बदलाव हुआ हो ऐसा नहीं है. खैर, पिछले दिनों की बात है. राजधानी के करीब एक रेत घाट पर अवैध खनन की सूचना पर पहुंची खनिज विभाग की टीम पर हमला कर दिया गया. हमला करने वाले विधायक के करीबी निकले. अवैध रेत खनन पर विपक्ष में रहकर तत्कालीन सरकार को जमकर खरी खोटी सुनाने वाली पार्टी का विधायक ही ऐसा धंधा शुरू कर दे, तो फजीहत तो होगी ही. अपना दामन बचा बचा कर चल रही सरकार ने कार्रवाई करने में देरी नहीं की. खनिज विभाग की टीम पर हमला करने वालों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर दिया. विधायक भी रडार पर आ गए हैं.
कहां गए 2835 करोड़ ?
इस आंकड़े ने हर समझदार का दिमाग हिला रखा है, सिवाए सरकार के. पिछली सरकार में धर्मजीत सिंह ने विधानसभा में एक सवाल लगाकर पूछा था कि शराब दुकानों से 2835 करोड़ रुपए ट्रेजरी में जमा क्यों नहीं किए गए? ये पैसा कहां गया? तब सरकार ने कहा था कि यह चिल्हर खर्च में इस्तेमाल हो गया. अब जिस राज्य में पांच सौ करोड़ रुपए के कोल परिवहन और करीब दो हजार करोड़ रुपए के शराब घोटाले की जांच इंफोर्समेंट डायरेक्टरेट यानी ईडी जैसी सेंट्रल एजेंसी कर रही हो, वहां 2835 करोड़ रूपए का चिल्हर खर्च का अचरज भरा जवाब किसी के गले नहीं उतरता. इधर धर्मजीत सवाल-सवाल खेल रहे हैं, उधर सरकार को इसका जवाब मिल ही नहीं रहा.
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