रहस्यमयी मुस्कान
विश्व प्रसिद्ध चित्रकार लियोनार्डो न विंची की बनाई मोनालिसा की तस्वीर और सूबे के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय के बीच एक गहरी समानता है. दोनों की रहस्यमयी मुस्कान. हर कठिन सवाल पर साय के पास यही सरल सा जवाब है. अब इस मुस्कान का अर्थ हर कोई अपनी सुविधा से ढूंढ ले. खैर, जो यह समझ रहा है कि नए मुख्यमंत्री कुछ समझ नहीं रहे, तो उसकी समझ पर संदेह करना चाहिए. चार बार सांसद, दो बार विधायक, तीन बार प्रदेश अध्यक्ष और एक बार केंद्रीय मंत्री की समझ पर संदेह करना यकीनन संदेह करने वाले की समझ पर सवाल उठा सकता है. मोदी सरकार से जुड़ा सामान्य व्यक्ति भी राजनीति और प्रशासन का ककहरा सीख ही लेता होगा, फिर तो मुख्यमंत्री बने साय मोदी कैबिनेट में मंत्री रहकर आए हैं. मोदी सरकार के कामकाज के तरीके ना केवल देखे होंगे, बल्कि प्रशासन की गहरी समझ पैदा की होगी. बहरहाल अब तक मुख्यमंत्री की ओर उम्मीद से टकटकी निगाह जमाए बैठे अफसरों के हिस्से केवल उनकी मुस्कान आई है. सरकार बने इतने दिन बीत गए, मगर अफसरशाही यह समझ नहीं पा रही कि आखिर चल क्या रहा है. मंत्रालय से लेकर जिलों में कलेक्टर-एसपी तक बदले जाने है. भाजपा के कई नेता ऐसे हैं, जिन्होंने कलेक्टर-एसपी के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है, बावजूद स्थिति जस की तस है. पिछली सरकार जब सत्ता में आई थी, तब आते ही 20-20 मैच की तरह परफार्म करने लगी थी. धड़ाधड़ विकेट गिर रहे थे. तब और अब में बड़ा अंतर है. फिलहाल मुख्यमंत्री की ओर से मिला संकेत तो बस इतना ही है कि डिरेल हुए सिस्टम को नए सिरे से बहाल करना है. थोड़ा वक्त तो लगेगा ही. तब तक कयासों में उलझे लोग समझ पर सवाल उठा सकते हैं.
सीएम सेक्रेटरी
सूबे में नई सरकार आई, तो लंबी जद्दोजहद के बाद सीएम सेक्रेटरिएट में अफसर की तैनाती हुई. ये अफसर थे पी दयानंद. साफ-सुथरी और दमदार शैली के लिए पहचाने जाने वाले 2006 बैच के आईएएस पी दयानंद को जब सीएम का सेक्रेटरी बनाए जाने का आर्डर आया, तो मानो थकी मांदी त्रास में जी रही ब्यूरोक्रेसी में ताजगी आ गई. पिछले पांच सालों का जिक्र छोड़ दें, तो इससे पहले दयानंद जहां रहे डंके की चोट पर काम किया. सुकमा, कोरबा, बिलासपुर, कवर्धा जैसे जिलों में कलेक्टर रहे. दयानंद अपने काम के तरीके से सरकार की पसंद तब भी थे, नई सरकार आई है, तो अब भी हैं. कोरबा की कलेक्टरी के दौर में तब के विधायक की कारगुजारियों पर उन्होंने ऐसी नकेल कसी थी कि पिछली सरकार में उस विधायक के मंत्री बनने के बाद तक वह टीस कायम रही. यह बात और है कि पांच साल मंत्री बने रहने तक वह नेताजी कुछ खास कर नहीं पाए. करने को कुछ मिला ही नहीं, क्या करते. बताते हैं कि कवर्धा कलेक्टर रहते पी दयानंद ने एक इलाके में लाॅ एंड आर्डर बिगाड़ रहे रूलिंग पार्टी के एक स्थानीय नेता को जमकर घुट्टी पिलाई. नेता लामबंद होते, इससे पहले उन्होंने खुद ही पूरा वाकया मुख्यमंत्री को बता दिया. उनके हिस्से शाबासी आई. बहरहाल, ब्यूरोक्रेसी में भी कुछ-कुछ राजनीति के गुण होते हैं. कौन, कब, कैसे, क्यों और कहां नई भूमिका में आ जाए, यह कोई नहीं जान सकता. बतौर ब्यूरोक्रेट पी दयानंद रिजल्ट देने वाले अफसर थे. अफसरशाही से पिछली सरकार की दरकार शायद कुछ और थी. अब कुछ और दिखती है.
सुब्रमण्यम पर संशय
खूब चर्चा छिड़ी 1987 बैच के आईएएस रह चुके बीवीआर सुब्रमण्यम साय सरकार में बतौर सलाहकार काम कर सकते हैं. मगर अब सुनाई पड़ रहा है कि इसके लिए उन्होंने इंकार कर दिया है. सुब्रमण्यम बेहद अनुभवी नौकरशाह रहे हैं. लंबे समय तक पीएमओ में काम कर चुके हैं. रमन सरकार में एसीएस(होम) थे. जम्मू-कश्मीर से जब धारा 370 हटाई गई, तब वहां बतौर चीफ सेक्रेटरी काम किया. चर्चा थी कि पीएम मोदी गुजरात की तर्ज पर छत्तीसगढ़ के प्रशासनिक कामकाज की देखरेख के लिए अपने करीबी अफसर को भेज सकते हैं. तब बीवीआर सुब्रमण्यम का नाम उभरकर सामने आया. राज्य की ब्यूरोक्रेसी अब कह रही है कि नीति आयोग के सीईओ की जिम्मेदारी संभाल रहे सुब्रमण्यम लौटना नहीं चाहते. अब सब कुछ पीएम मोदी के चाहने पर तय होगा. अगर मोदी ने कह दिया कि जाना है, तो उसके बाद कुछ बच नहीं जाता. फिलहाल स्थिति स्पष्ट नहीं है.
कांग्रेस में बवाल
कांग्रेस भवन में चुनाव के बाद बैठक शुरू हुई थी. बीच बैठक में एक नेता प्रसाधन के लिए बाहर आए. किसी ने पूछा- कांग्रेस में का बा? नेताजी ने जवाब दिया- बवाल बा..भीतर बैठक में बवाल चल रहा था. सरकार में मौज काटने वाले नेताओं की टिकट कट गई थी. टिकट कटी तो मन मसोसकर रह गए थे. पार्टी सत्ता से बेदखल कर दी गई, तो मौका मिल गया था, सो बवाल काट रहे थे. अलग-अलग बैठक हुई. संगठन नेताओं की बैठक में खूब जुबानी तलवार चली. कुछ ने कह दिया कि कार्यकर्ताओं की मेहनत से बनी सरकार क्या पांच-सात लोगों को अरबपति बनाने के लिए थी. ये लोग पार्टी में अचानक आए और पूरी पार्टी को अपनी मुठ्ठी में ले लिया. पैसा कमाया और अब अता-पता नहीं. एक नेता ने कहा कि मुख्यमंत्री नेताओं और कार्यकर्ताओं से दूर हो गए थे. पकड़ में नहीं आते थे. सत्ता-संगठन में लंबी दूरी बन गई थी. इसलिए कार्यकर्ता चुनाव में बैठ गए और सबक सीखा दिया. जब बारी पूर्व विधायकों की बैठक की आई, तो बवाल के साथ बवंडर आ गया. सब फट पड़े. बोल उठे कि फर्जी सर्वे की बात कहकर उनकी टिकट काट दी गई. जनता की नाराजगी क्या सिर्फ विधायकों से थी. मंत्री पाक साफ थे. एक भी मंत्री की टिकट क्यों नहीं काटी गई? नौ-नौ मंत्री चुनाव हार गए. यदि हमें टिकट मिली होती तो स्थिति कुछ और होती. गुस्से से खौलते उबलते कांग्रेसजनों की तस्वीर देख एक सज्जन ने टिप्पणी की. कहा- कांग्रेस का ये बिखराव तो तब भी नहीं था, जब पंद्रह साल सत्ता से बाहर रही. ना जाने अब कितने सालों बाद सत्ता की प्यास बुझेगी.
बाबा ओ बाबा
कांग्रेस उम्मीद से थी कि छत्तीसगढ़ के साथ-साथ मध्यप्रदेश और राजस्थान में सरकार बना लेगी, लेकिन ईवीएम से निकली पर्ची ने कहीं का ना छोड़ा. गहरा सदमा लगा. मगर चुनाव है, होता रहता है. चुनाव कब शून्य पर ले आए और कब शिखर पर बिठा दे. कौन जानता है? सरगुजा का किला ढह गया. ऐसा ढहा कि ईटों को नए सिरे से जोड़ने में उम्रदराज टी एस सिंहदेव को ना जाने कितना लंबा वक्त लगे. यकीनन सिंहदेव की राजनीति का यह सबसे बड़ा शून्य रहा होगा. लोगों को लगा था कि उबरने में वक्त लगेगा, मगर एआईसीसी ने नई जिम्मेदारी सौंप दी. लोकसभा चुनाव के लिए बनाए जाने वाले घोषणा पत्र के लिए बनी समिति का अहम चेहरा बना दिया. एक किला ढहने के बाद भी एआईसीसी को शायद बाबा में अब भी उम्मीद दिख रही होगी. इसलिए ही एआईसीसी कह रही है, बाबा ओ बाबा.