21 सितंबर 2020 के दिन मुझे एक विश्‍वविद्यालय के स्‍नातकोत्‍तर स्‍तर की मौखिकी में शामिल होने का मौका मिला। इस दौरान एक विद्यार्थी ने अपने प्रोजेक्‍ट का विषय लिया था, ‘कोरोना काल में यू-ट्यूब चैनल का शिक्षा पर प्रभाव’। मैने जब इसके निष्‍कर्ष के बारे में पूछा, तब उसने कहा कि “मैम मैं खुद भी एक शिक्षक हूँ और कोचिंग भी चलाता हूँ। मैने देखा है कि इस महामारी के दौरान लोगों ने यू-ट्यूब का प्रयोग कर अपनी शिक्षा को निरंतर जारी रखा है। अन्‍यथा हम सभी को बहुत दिक्‍कत हो जाती। यू-ट्यूब पर बहुत अच्‍छे-अच्‍छे अध्‍ययन सामग्री उपलब्‍ध रहते हैं।” फिर मैने पूछा “गांवों के और निम्‍न तबके के कितने लोग इस तरह के शिक्षा से जुड़ पाये हैं?” इस सवाल पर वह नि:शब्‍द हो गया, क्‍योंकि उसके पास इसका कोई जवाब नहीं था। इस वर्ग से जुड़े अधिकांश लोग यू-ट्यूब का नाम तक नहीं सुना है।

20 अगस्‍त 2020 को ‘द इकोनोमिक टाईम्‍स’ अखबार में एनसीईआरटी का एक सर्वे प्रकाशित हुआ था। इस सर्वे में नवोदय, केंद्रीय विद्यालय और सीबीएसई स्‍कूलों से जुड़े 34000 विद्याथियों, शिक्षकों, अभिभावकों और प्राचार्यों को शामिल किया गया था। इस सर्वे के अनुसार 27 प्रतिशत विद्यार्थी ऐसे थे जिनके पास स्‍मार्टफोन और लैपटॉप जैसे उपकरण उपलब्‍ध ही नहीं थे। वहीं 28 प्रतिशत विद्यार्थी ऐसे थे, जिनके पास बिजली की उपलब्‍धता की दिक्‍कत थी। इसके अलावा तकनीक की अज्ञानता भी शिक्षा के प्रभावी न होने तथा शिक्षा से दूर रहने का एक प्रमुख कारण बताया गया। इस तरह देश का बड़ा हिस्‍सा शिक्षा से वंचित हो रहा है।

वर्तमान में शिक्षा स्‍कूल के कारावास से निकल कर घर के दहलीज में सिमट गई है। बच्‍चे स्‍कूल जाने के भय से पूर्णत: मुक्‍त हो गए और इस बात की उन्‍हें खुशी भी थी। घर पर बैठे-बैठे मोबाइल के माध्‍यम से पढ़ना उन्‍हें प्रारंभ में रोमांच से भर देता था, लेकिन धीरे-धीरे यह रोमांच सिरदर्द और चिड़चिड़ापन पैदा करने लगा। अब बच्‍चों को घर भी कारावास जैसा ही लगने लगा है। 22 सितंबर 2020 के दैनिक भास्‍कर में इस संदर्भ में एक सर्वे भी प्रकाशित किया गया। इस सर्वे में बताया गया कि अधिकांश बच्‍चे अब ऑनलाइन क्‍लास से बोर हो गये हैं। उन्‍होंने सेल्‍फ स्‍टडी पर भी विराम लगा दिया है। उनमें सिरदर्द और झुंझलाहट भी बढ़ रहा है। इस सर्वे में बच्‍चों ने यह भी बताया है कि “उन्‍हें ऑनलाइन शिक्षा से कुछ समझ में नहीं आता है, बस यस मैम करते रहते हैं।” इस न्‍यू नॉर्मल में बढ़ती एबनॉर्मलिटी ने लोगों को ऐसी जीवन शैली से जोड़ दिया है, जिसमें जीवनयापन करना बेहद मुश्किल हो गया है। शिक्षा की यह नवीन शैली भी किसी मुसीबत से कम नहीं साबित हो रहा।

डॉ. अमिता, पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग, गुरू घासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय, बिलासपुर

यूनेस्को के डाटा का हवाला देते हुए संस्था की रिपोर्ट में बताया गया कि कैसे अप्रैल 2020 में 1 करोड़ 60 लाख बच्चों को कोरोना वायरस महामारी की वजह से स्कूल और विश्वविद्यालय छोड़ने पड़े। ये एक बड़ा आंकड़ा था क्योंकि जो दुनिया भर के स्टूडेंट्स की 90 प्रतिशत आबादी का उल्लेख करता है। ‘सेव आवर एजुकेशन’ नाम की नई रिपोर्ट यह दावा करती है कि मानव इतिहास में पहली बार दुनिया भर के बच्चों की एक पूरी पीढ़ी की शिक्षा बाधित है। इसके साथ ही वायरस के बाद होने वाले सुधारों के दौरान 90 लाख से 1 करोड़ 17 लाख बच्चे गरीबी की भेंट चढ़ जाएंगे, जिसकी वजह से स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या में और भी कमी आएगी। वित्तीय और सामाजिक तथ्यों के आधार पर रिपोर्ट ने दावा किया कि 97 लाख बच्चे हमेशा के लिए स्कूल छोड़ देंगे। उन्होंने इस तथ्य को ध्यान में रखा कि ज्यादा बच्चे अब अनौपचारिक बेरोजगारी में धकेल दिए जाएंगे और कई स्थितियों में लड़कियों को शादी करने के लिए मजबूर किया जा सकता है। (जी न्‍यूज डेस्‍क, कोरोना वायरस महामारी की वजह से बंद हुए स्कूलों का दुनिया भर के करीब 1 करोड़ बच्चों पर असर पड़ सकता है। Jul 13, 2020, 01:13 PM )

इस तरह के आकड़े और रिपोर्ट एक भयावह स्थिति की ओर संकेत करता है। साथ ही एक अंधकार भविष्‍य की नींव भी रख रहा है। यह स्थिति कमोबेश दुनिया के हर हिस्‍से में पैदा हो गया है। छत्‍तीसगढ़ राज्‍य में फिल्‍हाल मैं निवासरत हूँ और यहां भी विद्यार्थी लगातार शिक्षा से वंचित हो रहे हैं। छत्‍तीसगढ़ सरकार ने स्कूल छोड़ रहे बच्चों को वापस लाने के लिए एक सराहनीय फैसला भी लिया है, जिसके तहत बिना मार्कशीट और टीसी के पहली से लेकर दसवीं तक बच्‍चों को प्रवेश मिल सकेगा। इसमें ऐसे बच्चों की जानकारी हासिल करने के साथ उनके पालकों से संपर्क कर पास के सरकारी स्कूल में प्रवेश दिलाने के अलावा बिना टीसी अथवा मार्कशीट के पहली से लेकर दसवीं कक्षा तक आयु के अनुसार प्रवेश देने की बात शामिल है। कक्षा 11वीं एवं 12 वीं में प्रवेश के लिए भी टीसी की मांग नहीं करने का निर्देश दिया गया है। लेकिन यहां जो सबसे बड़ा सवाल है, वह यह है कि सिर्फ स्‍कूल में प्रवेश दे देना ही शिक्षा से जोड़ना है? क्‍या कागज के टुकड़े के रूप में मिलने वाली डिग्री ही हमारी शिक्षा के स्‍तर को तय करेगी? क्‍या स्‍कूल छोड़ने वाले इन बच्‍चों को सरकार गुणवत्‍तायुक्‍त शिक्षा दे पायेगी?

यों तो छत्‍तीसगढ़ सहित देश के विभिन्‍न हिस्‍सों में कोरोना महामारी के दौरान विद्यार्थियों द्वारा स्‍कूल को छोड़ना एक आम बात हो गई है, जिसका प्रमुख कारण आर्थिक तंगी के रूप में सामने आ रहा है। लेकिन आर्थिक तंगी के अलावा और भी कई कारण है जो बच्‍चों को शिक्षा से विमुख कर रहा है। ऑनलाइन शिक्षा में बच्‍चों को मनोरंजन का कोई अंश नहीं दिखता। तकनीक के सहारे निरंतर शिक्षा लेने से उनमें मानसिक थकान और तनाव भी लगातार बढ़ रहा है, जिसके कारण न तो वे किसी तरह का ज्ञान ले पा रहे हैं और न ही शिक्षा का उद्देश्‍य पूरा हो पा रहा है। घर में जो बच्‍चे रहते हैं, खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में उनके माँ-बाप या तो उन्‍हें घर-गृहस्‍थी के काम में झोंक देते हैं या फिर खेत के काम में लगा देते हैं। लड़कियों के साथ यह समस्‍या सबसे ज्‍यादा है। घर में रहने से बच्‍चों के मन में स्‍कूल के प्रति जो लगाव था, वह भी लगभग समाप्‍त हो रहा है। वे पढ़ने के तनाव से मुक्‍त होकर घर में पड़े रहना पसंद करने लगे हैं। अशिक्षित माहौल और अशिक्षित माँ-बाप उन्‍हें पढ़ने के लिए प्रेरित भी नहीं करते। इस ‘न्‍यू नॉर्मल’ ने हमारी जिंदगी को इतना एबनॉर्मल कर दिया है कि जिंदगियां बद्-से-बद्तर होती जा रही है। खासतौर पर उस वर्ग के लिए जिसे इस बात की चिंता निरंतर सता रही है कि उन्‍हें और उनके परिवार के लिए रोटी कहाँ से मिलेगी? ऐसी स्थिति में गरीब और मजबूर अभिवावक शिक्षा को एक कोने में रखकर जीवन को बचाने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं।

वर्तमान परिदृश्‍य चुनौती से भरा समय है। ऐसी स्थिति में बच्‍चों को स्‍कूलों और शिक्षा से जोड़ने के लिए नए-नए रोचक प्रयोग की आवश्‍यकता है। उत्‍तराखंड की एक खबर आई थी कि वहां के एक शिक्षक ने क्‍लास रूम में ही दुनिया का नक्‍शा बना दिया, ताकि बच्‍चों को आसानी से पढ़ा सकें और बच्‍चे बोर भी न हो। इस ‘न्‍यू नॉर्मल’ में ऑनलाइन कक्षा लेने में बच्‍चों से कहीं ज्‍यादा परेशान शिक्षक हुए हैं। उन्‍हें घर की जिम्‍मेदारियों को भी संभालना पड़ा। महीनों से कई जगहों पर वेतन नहीं दिया गया है। ऊपर से नेट पैक और मोबाइल का खर्च भी वहन करना पड़ रहा है। उनकी परेशानियों को शायद ही कोई समझ पा रहा है। साथ ही नेटवर्क की समस्‍या भी निरंतर बनी रहती है। बहुत सारे शिक्षकों को आर्थिक तंगी का हवाला देकर नौकरी से ही बेदखल कर दिया गया। दिन भर की कक्षा और तमाम संघर्ष के बीच मानसिक संतुलन बनाना और बच्‍चों को पढ़ाना बेहद टेढ़ी खीर है। लेकिन शिक्षकों के हित की बात शायद ही कहीं सुनी जाती है। इस बात को ध्‍यान रखना होगा कि जब तक शिक्षक मानसिक रूप से सहज और प्रसन्‍न नहीं होंगे, वह उस शिक्षा को देने में प्राय: असमर्थ ही होंगे, जिसके लिए उन्‍हें नियुक्‍त किया जाता है।
सरकारें लाख कोशिश कर ले शिक्षा से बच्‍चों को जोड़ना मुश्किल है। मध्‍याह्न भोजन देकर विद्यार्थियों की उपस्थिति स्‍कूल में दर्ज करायी जा सकती है, लेकिन शिक्षा नहीं दी जा सकती। अगर ऐसा होता तो प्रो. प्रभुदत्‍त खेरा जैसे व्‍यक्तित्‍व की जरूरत ही नहीं पड़ती। सरकार जिन आदिवासियों को शिक्षा से नहीं जोड़ पायी, उन्‍हें स्‍वर्गीय खेरा ने शिक्षा से जोड़ दिया, वे भी गुणवत्‍ता पूर्ण शिक्षा से।

जब मैं छोटी थी, तब स्‍कूल बिल्‍कुल नहीं जाना चाहती थी। दीदी को जैसे ही स्‍कूल के लिए तैयार होते देखती थी, मैं बाथरूम में जाकर बंद हो जाती थी ताकि दीदी को देर हो जाये और वे मुझे छोड़कर अकेली ही स्‍कूल चली जाये। लेकिन यह हथकंडा रोज काम नहीं आता था। मेरी रोज-रोज की साजिश को माँ बहुत अच्‍छे से पहचान चुकी थी। इसलिए बाद में मुझे अक्‍सर स्‍कूल जाना पड़ता था। स्‍कूल मैं एक ही शर्त पर जाती थी कि दीदी के साथ, उसी की कक्षा में बैठूंगी। घर वाले मुझे स्‍कूल भेजने के लिए हर शर्त मानने को तैयार रहते थे। धीरे-धीरे मैं दीदी के साथ स्‍कूल जाने लगी। स्‍कूल में एक मैडम थी, जो मुझे बहुत अच्‍छी लगती थी। वे बच्‍चों के साथ खूब खेलती भी थी और हमेशा प्‍यार से पेश आती थी। उन्‍होंने ही मुझे स्‍कूल से लगाव करना सिखाया। फिर स्‍कूल में अक्‍सर वीसीआर पर अच्‍छी-अच्‍छी फिल्‍में भी दिखाई जाती थी, जो घर में शायद ही संभव था। इस तरह स्‍कूल और उसके माहौल से धीरे-धीरे मेरा लगाव बढ़ने लगा और फिर लाख कोशिशों के बावजूद स्‍कूल जाने से मुझे कोई नहीं रोक पाता था। कई बार तो ऐसा भी होने लगा कि तेज बुखार हो या आंधी, तूफान सबके बावजूद जिद्द करके स्‍कूल चली जाती थी। कई बार तो भईया या पापा को आकर स्‍कूल से बीच में ही मुझे घर ले जाना पड़ता था। स्‍कूल के अच्‍छे माहौल में, मैं पूरी तरह से रम गई थी। स्‍कूल के बिना फिर मुझे कुछ भी अच्‍छा ही नहीं लगता था। जब मैं शिक्षक बनी तो मैने भी अपने विद्यार्थियों को ऐसा ही माहौल देने का प्रयास किया। स्‍कूल से लेकर विश्‍वविद्यालय तक के बच्‍चों को मैने पढ़ाया और उन्‍हें शिक्षा से जोड़ने के लिए रोचक बनाने की कोशिश की। उन्‍हें आसपास से जोड़ने का प्रयत्‍न किया, ताकि रवीन्‍द्रनाथ टैगोर ने स्‍कूल को जिस कारण से कारावास कहा था, वे उस एहसास से बाहर रह सके।

जब तक स्‍कूल अथवा शिक्षण संस्‍थानों का माहौल और शिक्षा पद्धति सही नहीं होगा, तब तक शिक्षा का उद्देश्‍य पूरा नहीं हो सकता। इस हालात में जब शिक्षक, छात्र दोनों ही पीड़ा में लिप्‍त होकर संघर्ष कर रहे हैं तो यहां तो शिक्षा का भरा पूरा अकाल ही होगा। साथ ही भारत का फिर से विश्‍वगुरु बनने का सपना भी शायद ही कभी साकार हो पायेगा। शिक्षा से जुड़े तमाम लोगों को यह भी समझना होगा कि शाहरूख खान जिस बायजू ऐप से शिक्षा को सहज रूप में दिखाकर प्रस्‍तुत कर रहे हैं, वे उतना सहज, सरल और सुलभ भारत जैसे विकासशील देश में फिल्‍हाल असंभव है। वे भी तब जब देश में आर्थिक तंगी चरम पर है।