फीचर स्टोरी। सरकार की योजनाएं तभी सफल होती है, जब योजनाओं का लाभ हितग्राहियों को पूर्ण रूप से मिले. योजनाओं से जब हितग्राहियों की आय में वृद्धि हो, हितग्राहियों की जिंदगी संवर जाए. छत्तीसगढ़ में सत्ता परिवर्तन के बाद से ही भूपेश सरकार ने ऐसी योजनाओं को गति दी जिससे सीधा और ज्यादा फायदा हितग्राहियों को हो. इस रिपोर्ट में दो ऐसी योजनाओं के बारे में आपको बताएंगे. जिससे जुड़कर हितग्राहियों को आज बड़ा फायदा हो रहा है. ग्रामीण लोग आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और सशक्त हो रहे हैं.

अरंडी (एरी) पौधों और सिल्क कोकून उत्पादन

छत्तीसगढ़ रेशम उत्पादन के लिए भी काफी प्रसिद्ध है. यहाँ कोसा के साथ अरंडी की बड़े पैमाने पर खेती होती है. राज्य में नैसर्गिक कोसा सहित पालित प्रजाति के डाबा कोसा से रेशम का उत्पादन किया जाता है. राज्य में कोसा कपनों की अपनी विशिष्ट पहचान है. रेशम को वस्त्रों की रानी भी कहा जा है. रेशम उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकार ने एक बड़ी पहल की है. अब राज्य में अरंडी(एरी) पौधा उत्पादन को राजीव गांधी किसान न्याय योजना से जोड़ दिया गया है. इससे अरंडी की खेती करने के वालों को काफी फायदा हो रहा है.

राज्य में भूपेश सरकार ने इस दिशा में अधिक से अधिक रोजगार पैदा करने की कोशिश की है. ग्रामीण महिलाएं इस योजना से आज बड़ी संख्या में लाभांवित हो रही हैं. महिला स्व-सहायाता समूहों को इस कार्य से जोड़ा रहा है. महिलाएं अपने अन्य कार्यों के साथ अब गाँव में इस कार्य को प्रशिक्षण लेने के बाद कर पा रही हैं.

दरअसल रेशम के कीडों का बडे पैमाने पर उत्पादन और पालन सेरिकल्चर कहलाता है. छत्तीसगढ़ में कच्चे रेशम का निर्माण होता है. रेशम प्राप्त करने के लिए रेशम उत्पादक जीवों (कृमि) का पालन करना होता है, इसने अब एक उद्योग का रूप ले लिया है. यह कृषि पर आधारित एक कुटीर उद्योग है. इसे बहुत कम कीमत पर ग्रामीण क्षेत्र में ही लगाया जा सकता है. कृषि कार्यों और अन्य घरेलू कार्यों के साथ भी इसे अपनाया जा सकता है। यह उद्योग पर्यावरण के लिए भी काफी अच्छा है.

एक जानकारी के मुताबिक भौगोलिक दृष्टि से रेशम का सर्वाधिक उत्पादन एशियाई देशों में होता है. इसमें चीन और उसके बाद भारत अग्रणी है. भारत में शहतूत रेशम का उत्पादन मुख्यतया कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, जम्मू व कश्मीर तथा पश्चिम बंगाल में किया जाता है, जबकि गैर-शहतूत रेशम का उत्पादन छत्तीसगढ़, झारखण्ड, उड़ीसा तथा उत्तर-पूर्वी राज्यों में होता है. रेशम का बड़ा उपभोक्ता देश होने के साथ-साथ पांच किस्म के रेशम मलबरी, टसर, ओक टसर, एरि और मूंगा सिल्क का उत्पादन करने वाला भारत विश्व का अकेला देश है.

बता दें कि राज्य के कई हिस्सों में कोसा बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है. खास तौर पर टसर(कोसा) ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार का महत्वपूर्ण उद्योग हो चुका है. बस्तर जैसे आदिवासी इलाकों में साल वृक्षों में प्राकृतिक कोसा ‘रैली’ का संग्रहण आदिवासी करते हैं. इससे आदिवासियों का अच्छा मुनाफा होता है. इस राज्य के अन्य जिलों में डाबा कोसा का उत्पादन किया जाता है. इसका उत्पादन मुख्यतः अर्जुन और साझा के वृक्षों में पालन से होता है.

इसी तरह से अब अरंडी(एरी) के पौधे भी रेशम का उत्पादन किया जा रहा है. रेशमकीट अपना जीवन को बनाए रखने के लिए ‘सुरक्षा कवच’ के रूप में कोसों-कोकुन का निर्माण करते हैं. रेशम विभाग के विभिन्न रेशम केन्द्रों के माध्यम से भी महिला स्व-सहायता समूहों के माध्यम से भी पौधे लगाकर और उनकी पत्तियों का उपयोग रेशम कृमियों के भोजन के रूप में करते हुए कृमिपालन का काम किया जाता है. ऐसी फसल साल में तीन से चार बार ली जाती है. इन ककूनों को बेचकर, उनसे कोसा धागा निकालकर महिलाओं अच्छा लाभ अर्जित करती है. रेशम विभाग द्वारा महिलाओं एवं युवाओं को पौधरोपण, नई कृमिपालन तकनीक और कूकून से धागा तैयार करने का निःशुल्क प्रशिक्षण भी दिया जाता है.

ये जो तस्वीरें आप देख रहे हैं ये रायपुर के कसारे वन्या सिल्क मिल के हैं. यहाँ अरंडी सहित विभिन्न प्रजाति के पौधों से प्राप्त ककूनों को आधुनिक मशीनों के माध्यम से उत्कृष्ट कोटि के रेशम धागे में बदलने का काम किया जा रहा है.


छत्तीगसढ़ के रायपुर के कसारे वन्या सिल्क मिल में एरी सहित विभिन्न प्रजाति के पौधों से प्राप्त ककूनों को आधुनिक मशीनों के माध्यम से उत्कृष्ट कोटि के रेशम धागे बनाने का कार्य किया जाता है. जानकारी के मुताबिक केन्द्रीय सिल्क बोर्ड के सिल्क समग्र-2 के अंतर्गत छत्तीसगढ़ में 10 हजार एकड़ क्षेत्र में एरी कोकून की खेती के लिए प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया है. राज्य में एरी सहित विभिन्न प्रकार के रेशम उत्पादन की व्यापक संभावनाएं मौजूद है.

मत्स्य पालन और आर्थिक उन्नति

छत्तीसगढ़ में एक और योजना भी है जिससे आज बड़े पैमाने पर लोग जुड़ रहे हैं. यह योजना है मत्स्य पालन का. भूपेश सरकार ने जब से मत्स्य पालन को खेती का दर्जा है और इससे में कई तरह की छूट प्रदान की है, बड़ी संख्या में लोग मतस्य पालन खेती करने की ओर अग्रसर हुए हैं. इसे जहाँ स्वरोजगार को बढ़ावा मिला है, तो वहीं स्थानीय लोगों को मजदूरी भी मिली है. मत्स्य पालन की इस योजना में बात करेंगे जशपुर जिले की. जशपुर जिला जो कि आदिवासी बाहुल्य जिला है. इस जिले में वनोपज और खेती ही मुख्य कार्य है. यहाँ के अधिकांश किसान खेती के साथ अब मछली पालन, बकरीपालन, मुर्गीपालन और गाय पालन के माध्यम से अतिरिक्त आमदनी भी अर्जित कर रहें हैं. मत्स्य विभाग के द्वारा किसानों को मछली पालन के लिए निरंतर प्रोत्साहित किया जा रहा है साथ ही गौठानों में स्व सहायता समूह की महिलाओं को भी मछली पालन करने के लिए तालाब गहरीकरण करके दिया गया है ताकि समूह की महिलाएं मछली पालन से आर्थिक लाभ प्राप्त कर सकें.

10 दिवसीय एवं 03 दिवसीय मछुआ प्रशिक्षण

विभाग की ओर से दी गई जानकारी के मुताबिक मत्स्य पालकों को 10 दिवसीय एवं 03 दिवसीय मछुआ प्रशिक्षण दिया जाता है, जिसके तहत वर्ष 2018-19, 2019-20 एवं 2020-21 तक 1490 मत्स्य पालकों को तकनीकी ज्ञान प्रशिक्षण दिया गया है. जिससे जिले के मत्स्य उत्पादन में वृध्दि हुई एवं मत्स्य पालकों के आय में वृध्दि के साथ-साथ उनका जीवन स्तर भी सुदृढ हुआ.

मत्स्य विभाग से मिलती है ये तमाम सरकारी सुविधाएं-

मत्स्य कृषकों को मत्स्याखेट हेतु जाल प्रदाय किया जाता है.

वर्ष 2018-19 से 2020-21 तक लगभग 750 मत्स्य कृषकों को जाल प्रदाय किया गया है.

मत्स्य जाल मिलने से किराये पर जाल लेने की जरूरत नहीं पड़ती.

सरकारी जाल मिलने से हो रही है अतिरिक्त आमदनी.

फुटकर मत्स्य विक्रेताओं को मोटर साईकिल और आईस बॉक्स प्रदाय किया जाता है.

वर्ष 2018-19 से 2020-21 तक लगभग 35 फुटकर मत्स्य विक्रेताओं को योजना का लाभ दिया गया है.

100 मत्स्य पालकों को मत्स्य बीज स्पान प्रदाय

बता दें कि जशपुर जिले में विभाग की ओर से मौसमी तालाबों में मत्स्य बीज संवर्धन अन्तर्गत वर्ष 2018-19 से 2021-22 तक लगभग 100 मत्स्य पालको को मत्स्य बीज स्पान प्रदाय किया गया है. योजना का लाभ लेकर किसान अपने तालाबों में ही मत्स्य बीज फिंगरलींग का उत्पादन कर अपने आस-पास के मत्स्य पालकों को सीधा मत्स्य बीज विक्रय कर रहे है. जिससे मात्र 3-4 माह में ही किसानों को अच्छा लाभ प्राप्त हो रहा है तथा कृषकों का मत्स्य पालन के प्रति रूझान भी बढ़ रहा है.वहीं सेविंग कम रिलिफ योजना अन्तर्गत वर्ष 2018-19 से 2021-22 तक लगभग 600 मत्स्य पालन व्यवसाय से जुड़े हितग्राहियों को 3000 रूपये प्रत्येक हितग्राही के मान से प्रदाय किया गया है.