रायपुर छत्तीसगढ़ में स्वतंत्रता आंदोलन का अपना गौरवशाली इतिहास रहा है। भारत की आजादी में छत्तीसगढ़ की भूमिका बेहद अहम रही है। सन् 1857 के पहले स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर के आजादी तक यहां भी अंग्रेजों के खिलाफ लगातार संघर्षों का दौर चलता रहा है, बल्कि आदिवासियों ने तो इससे पहले ही अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया था।

 प्रदेश में स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत 1857 की पहली क्रांति के साथ हो जाती है, बल्कि छत्तीसगढ़ में अंग्रेजों के खिलाफ, तो बस्तर के आदिवासियों ने इससे पहले ही बिगुल फूँक दिया था। सन् 1818 में अबुझमाड़ इलाके में गैंद सिंह के नेतृत्व में आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ सबसे पहले विद्रोह का बिगुल फूँका था। हालांकि इस आंदोलन को स्वतंत्रता आंदोलन का आगाज नहीं माना जाता। 1857 से छत्तीसगढ़ में स्वतंत्रता आंदोलन की शुरूआत होती है। सोनखान के जमीदार शहीद वीरनारायण सिंह ने 1857 में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह का ऐलान किया था।

इतिहासकार डॉ. रमेन्द्रनाथ मिश्र बताते हैं कि 1856 में छत्तीसगढ़ में भीषण अकाल पड़ा। इसी दौरान सोनाखान इलाके जमीदार वीरानारायण सिंह ने साहूकारों से अनाज लूट कर उसे गरीबों में बांट दिया। जमाखोरों ने इसकी शिकायत ब्रिटिश शासन से की। ब्रिटिश शासन ने वीरनारायण सिंह के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर उसे गिरफ्तार कर लिया। लेकिन अंग्रेज अधिक दिन तक वीरनारायण को कैद कर नहीं रख सके और वे अंग्रेजों की कैद से फरार हो गए। इसके बाद वीरनारायण ने अंग्रेजों के खिलाफ सैन्य दल बनाया। 1857 में सैन्य दल बनते ही वीरनायारण ने अंग्रेजी हुकूमत पर हमला बोल दिया। लेकिन कुछ बेईमान जमीदारों की मदद से अंग्रेजों ने वीरनारायण को फिर से गिरफ्तार कर लिया। और फिर 10 दिसंबर 1857 को अंग्रेजों ने रायपुर  के वर्तमान जय स्तंभ चौक पर फांसी दे दी थी। हालांकि वीरनायारण को फांसी देने की बात रायपुर केन्द्रीय जेल परिसर में भी कही जाती है। इसे लेकर इतिहासकारों के बीच शुरुआत से मतभेद रहे हैं।

सन् 1858 में रायपुर में फौजी छावनी(सैनिक) विद्रोह हुआ। वीरनारायण की शहादत ने ब्रिटिश शासन में कार्य कर रहे सैनिक हनुमान सिंह में विद्रोह का भाव जगा दिया। उन्होंने अपने दो साथियों के साथ मिलकर ब्रिटिश हुकूमत के एक रेजीमेंट अधिकारी की हत्या कर दी थी। 6 घंटे तक विद्रोही सैनिकों और ब्रिटिश शासन के बीच संघर्ष चलता रहा। अंग्रेजी हुकूमत हनुमान सिंह को, तो नहीं पकड़ पाई। लेकिन उनके 17 साथी सैनिकों को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें फांसी  दे दी। हालांकि कुछ लोगों का यह भी मानना है कि अंग्रेजों ने वर्तमान पुलिस मैदान, जो अंग्रेज शासन काल में छावनी था वहां विद्रोही सैनिकों को तोप से उड़ा दिया था।

सन् 1910 में बस्तर का भूमकाल आंदोलन ने अंग्रेजी शासन को हिला के रख दिया था।  बस्तर में हुए भूमकाल आंदोलन अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध आदिवासियों का एक सबसे बड़ा सशस्त्र आंदोलन था। बस्तर में लाल कालेन्द्र सिंह और रानी सुमरन कुंवर ने अंग्रेजों के अत्याचार के खिलाफ विद्रोह का ऐलान किया। इस विद्रोह का सेनापति गुण्डाधुर को चुना गया था।

इन विद्रोहों के साथ-साथ छत्तीसगढ़ के भीतर देश में चल रहे अन्य कई आंदोलनों और सत्याग्रह का प्रभाव भी विशेष रूप से पड़ा था। खास तौर पर तिलक और गांधी जी का प्रभाव छत्तीसगढ़ के आंदोलन में विशेष रूप से रहा है।  इतिहासकार डॉ. रमेन्द्रनाथ मिश्र बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में खास तौर पर सन् 1920 में धमतरी का कंडेल नहर-जल सत्याग्रह अहम रहा। धमतरी जिले के छोटे से गांव कंडेल के किसानों ने अंग्रेजी शासन के तुगलकी फरमान के विरुद्ध जल सत्याग्रह किया था। इस सत्याग्रह से अभिभूत होकर महात्मा गांधी 21 दिसंबर 1920 को धतमरी में किसानों के आंदोलन में शामिल होने पहुँचे थे। सन् 1933 में गांधी जी का दोबारा छत्तीसगढ़ आगमन हुआ था। गांधी जी के आने से छत्तीसगढ़ में चलाए जा रहे आंदोलन को और बल मिला। इसके बाद व्यक्तिगत सत्याग्रह, रायपुर का षड़यंत्र कांड और अंग्रेजों भारत छोड़ों आंदोलन प्रदेश में प्रमुखता से चलता रहा। 1942में जब “अंग्रेजों भारत छोड़ो”आंदोलन का आह्वान किया गया था तब समूचा छत्तीसगढ़ अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफत एक हो गया और देश के आजाद होने तक आंदोलन जारी
रहा।

कह सकते है कि देश की आजादी में छत्तीसगढ़ की धरती भी स्वतंत्रता आंदोलन की रणभूमि रही। यहां हिंसात्मक आंदोलन के साथ अहिंसात्मक आंदोलन के अनेक संघर्षों के दौर चलते रहे हैं। यहां खास तौर पर मूलनिवासी आदिवासियों की भूमिका सबसे सशक्त रही है। भारत की आजादी में छत्तीसगढ़ के योगदान को कभी भूलाया नहीं जा सकता।