अंबिकापुर . बांक नदी की तट पर कामरेड अशोक सिन्हा का शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया. लेकिन वाम विचारों की जो लौ उन्होंने जलाई थी वो आज पूरे सरगुजा को रौशन कर रही है. अशोक सिन्हा 79-80 में लेफ्ट को सरगुजा में खड़ा करने वाले नेताओं में शामिल रहे हैं.  उन्होंने आजीवन किसान मजदूरों की समस्याओं को लेकर काम किया. अपने साथियों मानुक खान, जयबहादूर सिंह, बालकृष्ण सिंह, विशंभर अग्रवाल, चंद्रप्रताप शुक्ल, डॉ वेदप्रकाश अग्रवाल, प्रितपाल सिंह, विजय गुप्त और मनेंद्र किशोर मेहता के साथ मिलकर इप्टा, एप्सो,इसकस जैसे कला और संस्कृति के संगठनों का विस्तार सरगुजा जैसे पिछड़े इलाके में किया.

अशोक सिन्हा ने सरगुजा के ग्रामीणों को वामपंथ से लोगों को रुबरु कराया. इसी दौरान उन्होंने शहरी इलाके वामपंथ और वैज्ञानिक सोच वाला सामाजिक वातावरण बनाया. इसी वातारवरण में सरगुजा में बुद्धिजीवी युवाओं की फौज तैयार खड़ी है. जो देश-प्रदेश के हर विषय पर अपनी सोच रखती है. पढ़ती है. लिखती है. चर्चाएं करती हैं. इन्हीं लोगों की संगत में आकर कोई सिनेमा में गया. कोई टीवी में. कोई जेएनयू में कविता पाठ करने जाता है. तो कोई जनवादी कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने का काम कर रहा है.

आदिवासियों के भूमि आंदोलन में लुण्ड्रा में चितालता नामक स्थान पर पुलिस ने दो भाई-बहन कंवल साय और पिछारी बाई की निर्मम हत्या कर दी थी. उनकी शहादत पर हर साल यहां मेला लगता है. इस मेले के आयोजन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी. अपनी बीमारी के अंतिम दो सालों को छोड़कर, जब वे अपने इलाज के चलते अंबिकापुर में ही नहीं थे, हमेशा इस मेले को सजाने-संजोने में, इस मेले में होने वाली पार्टी की राजनैतिक सभा को अंतिम रूप देने में व्यस्त रहते थे. यह मेला उनकी वार्षिक राजनैतिक व्यस्तता का एक अहम हिस्सा होता था.

अशोक सिन्हा ने अपने साथियों के साथ मिलकर लुंड्रा में सामंतशाही को बेनकाब किया और गरीब-किसानों को उनका हक दिलवाया. अशोक सिन्हा ने वकालत के पेशे को उन्होंने गरीबों और खासकर आदिवासियों के शोषण और लूट के खिलाफ औजार बनाया. सरगुजा में भूस्वामियों के खिलाफ चले भूमि संघर्ष के वे नेता बनकर उभरे. 90 के दशक में सरगुजा के इस इलाके में साहूकारों ने किसानों की ज़मीन हथिया ली थी. कामरेड अशोक सिन्हा की अगुवाई में सीपीआई ने लड़ाई लड़ी और आंदोलन के बाद हजारों आदिवासियों को अपनी जमीन में खेती का अधिकार मिला. माना जाता है कि लुंड्रा में उन्होंने गरीब-किसानों को ज़मीने मुहैया कराई. जिससे यहां नक्सलवाद के बढ़ते कदमों पर रोक लगी. उन्होंने इस क्षेत्र के सामंतवादियों के खिलाफ भी मोर्चा लेकर उनके चंगुल से लोगों को आज़ाद कराने में अहम भूमिका निभाई. भू-अभिलेख में किसान के रुप में दर्ज नगेशिया जाति के आदिवासियों की लड़ाई वे ताउम्र वे लड़ते रहे.

अशोक सिन्हा अपने आखिरी समय में सीपीएम के सचिव मंडल के सदस्य थे.बीमारी के चलते वे पिछले कुछ सालों से सक्रिय नहीं थे. वे अपने अंतिम समय में बेटे श्रमदीप सिन्हा के पास रहकर विजयवाड़ा में इलाज करा रहे थे. उनके बेटे विजयवाड़ा में डिप्टी डायरेक्टर के पद पर कार्यरत हैं.