संग्रहालय आंदोलन और छत्तीसगढ़

लेखक- अशोक तिवारी

संग्रहालय आम तौर पर ऐसी वस्तुओं के प्रदर्शन स्थल होते हैं जहां एंटीक अर्थात दुर्लभ वस्तुएं प्रदर्शित की जाती हैं। एक समय था जब इसे हिंदी भाषी क्षेत्रों में अजायबघर कहा जाता था, भारत के पहले संग्रहालय जो कलकत्ते में स्थित है, जादूघर के नाम से जाता था। ये सब संबोधन भले ही संग्रहालयों के अपने विस्मय से भरे वस्तुओं के कारण प्रयोग में लाये जाते रहे हों परंतु अब संग्रहालयों के स्वरूपों में काफी बदलाव आ गए हैं जिनमे अब संग्रहालय का क्यूरेटर एक कथावाचक की भांति संग्रहालय की वस्तुओं का शब्द,वाक्य और दृश्य के रूप में इस्तेमाल करते हुए अपनी कथा को दर्शकों को कहता है।छत्तीसगढ़ में भी अब संग्रहालय केवल भ्रमण स्थल न रहकर अनौपचारिक ज्ञान प्राप्ति के स्थल बन गए हैं।

छत्तीसगढ़ के लिए यह एक महत्वपूर्ण और गौरव की बात है कि यहां पर संग्रहालय की स्थापना आज से लगभग डेढ़ सौ साल पहले तब हुई थी जब पूरे भारत में ही केवल दस के आसपास संग्रहालय हुआ करते थे ।यानी तब कितने ही राज्य क्षेत्र और शहर ऐसे रहे होंगे जहां संग्रहालय नही थे पर रायपुर में संग्रहालय स्थापित हो गया था। छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव रियासत के तत्कालीन शासक महंत घासीदास की इस दूरदर्शिता के लिए राज्य को ऋणि होना चाहिए कि जब कहीं और यह कोशिश नही गई थी तब घासीदास जी ने संग्रहालय स्थापित करने सोचा और सन 1875 में इसे बनाया, तब यह अजायबघर के नाम से जाना जाता था और इसे आज हम महंत घासीदास संग्रहालय के रूप में जानते हैं। किंतु यह क्रम बाद में फिर लगभग सौ साल के अंतराल तक थमा रहा और फिर धीरे-धीरे फिर शुरुआत हुई जिसके परिणामस्वरूप सन 1972 में जगदलपुर में एक मानव विज्ञान संग्रहालय की शुरुआत की गई । यह भारत सरकार के मानव विज्ञान सर्वेक्षण विभाग का पहला संग्रहालय था जिसे उस 1978 में तत्कालीन रियासतकालीन परिसर विजय भवन में संयोजित कर लोकार्पित किया गया था।यह उस समय के छत्तीसगढ़ का दूसरा संग्रहालय था जो बस्तर के जनजातीय जीवनशैली पर केंद्रित है।इसके पश्चात तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार ने सन 1976 में बिलासपुर में और सन 1988 में जगदलपुर में जिला पुरातत्व संग्रहालयों की स्थापना की।इन संग्रहालयों में पुरातात्विक महत्व के प्रादर्शों को संयोजित किया गया है। जगदलपुर में कालांतर में संग्रहालय का अपने स्वयं का भवन निर्मित किया गया जहां पर कुछ वर्ष पूर्व बस्तर के समकालीन जनजीवन से संबंधित प्रदर्शन भी संयोजित किये गए। बिलासपुर में एक स्वतंत्र भवन के संग्रहालय हेतु निर्माण के लिए सरकार प्रयासरत है जिसके निर्मित होने के पश्चात उसके स्तरीय परिपूर्ण संग्रहालय बन जाने की अपेक्षा है। इन दो जिला राजकीय संग्रहालयों के बाद फिर ऐसे संग्रहालय तो राज्य के अन्य जिलों में स्थापित नही किये जा सके हैं छत्तीसगढ़ शासन ने कतिपय जिलों में जिला पुरातत्व संघों की स्थापना की है जिसके सम्बंधित जिले के कलेक्टर पदेन अध्यक्ष होते हैं। इनमे से राजनांदगांव, रायगढ़, अम्बिकापुर ,कोरिया तथा कोरबा जिले की जिला पुरातत्व संघो ने अपने अपने यहां संग्रहालय बनाये हैं जिनमे प्रमुखतः पुरातत्व से संबंधित सामग्रियों को प्रदर्शित किया गया है।

कालांतर में रायपुर स्थित इंदिरा कृषि विश्वविद्यालय में एक कृषि संग्रहालय तथा इंदिरा कला और संगीत विश्वविद्यालय ने खैरागढ़ में एक संग्रहालय विकसित किये ।रायपुर का कृषि संग्रहालय मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ में कृषि के मौलिक स्वरूपों के साथ नवाचारी शोध और विकास को दर्शाता है वहीं खैरागढ़ स्थित संग्रहालय जिसे स्वर्गीय रविन्द्र बहादुर सिंह के नाम पर स्थापित किया गया है, इस संग्रहालय में पुरातत्विक प्रदर्शों के साथ ही अनेक कालरूप भी प्रदर्शित किए गए हैं।

इसके अतिरिक्त रायपुर में एक क्षेत्रीय विज्ञान संग्रहालय भी कुछ वर्ष पूर्व स्थापित हुआ जो देश के अन्य विज्ञान संग्रहालयों की भांति विज्ञान को सहज तरीकों से दर्शकों को लुभावने रूप में समझने का अवसर उपलब्ध कराता है।विज्ञान शिक्षण की दृष्टि से यह राज्य को एक अनुपम दें है।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और छत्तीसगढ़ राज्य के संस्कृति एवं पुरातत्व संचालनालय ने सिरपुर, मल्हार, तुमान, बारसूर, देवबलौदा, नारायणपुर, पाली, रतनपुर, भोरमदेव, ताला, महेशपुर, पचराही आदि उत्खनित स्थलों में स्थल संग्रहालय या स्कल्पचर शेड भी निर्मित किये हैं जिनमे उन स्थलों से प्राप्त उत्खनित पुरासम्पदा के माध्यम से दर्शकों के लिए संबंधित काल की संस्कृति का आख्यान प्रस्तुत करते हैं।छत्तीसगढ़ संभवतः देश का ऐसा पहला राज्य है जहाँ पर एक संस्था द्वारा कबीरधाम जिले के लगभग एक दर्जन गांवों में शाला संग्रहालय स्थापित किये गए हैं। उन गांवों के स्कूलों में विकसित इन संग्रहलयों में उसी गांव से जन सहयोग से संकलित स्थानीय पारंपरिक भौतिक संस्कृति की वस्तुओं को प्रदर्शित किया गया है।यह अपने आप मे एक अनुकरणीय कार्य है जो पारम्परिक वस्तुओं को सहेजने तथा गुजरे समय के जीवनशैली के गौरव ,सहजता, सौंदर्य एवम उपयोगिता के। मरम की कहानी कहता है। कुछ दिनों पहले समाचार पत्रों से ज्ञात हुआ था कि जशपुर में दास्ताने जशपुर के नाम से एक संग्रहालय स्थापना की कोशिश आरम्भ की जा रही है। आशा है अन्य जिलों में भी ऐसा प्रयास आरम्भ किया जाएगा।

राज्य में संभावना तो कई किस्म के संग्रहालय के स्थापना की है किंतु कहीं न कहीं शुरुआत तो की जाए ।राज्य सरकार इस दिशा में गंभीरता से विचार करें कि राज्य के सभी जिलों में कम से कम एक संग्रहालय स्थापित किए जाएं जो राज्य की संस्कृति की समेकित झलक के साथ उस जिले विशेष की स्थानीयता को मुखरित कर प्रदर्शित करने का प्रयास करें ।
कई बार बहुत से लोग यह सोच नहीं पाते कि समकालीन संस्कृति की महत्ता एक संग्रहालय परिसर में क्या हो सकती है ,इसे समझने के लिए मैं यहां पर आज के छत्तीसगढ़ में एक बहुत ही लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी गीत का उल्लेख करना चाहूंगा जिसका शीर्षक है “नंदा जाही का रे, नंदा जाही का” इसे गीत के रचयिता मीर अली मीर साहब में अपने इस गीत के माध्यम से छत्तीसगढ़ के भौतिक संस्कृति और जीवन शैली में समकालीन परिवर्तन के फल स्वरुप हो रहे क्षरण या विलोप की बात को बड़े सुंदर शब्दों में कहा है। क्या इन क्षरित और विलोपित हो रहे पक्षों और वर्तमान जीवन शैली तथा क्षेत्रीय जीवन की परम्परिक विशिष्टताओं को एक संग्रहालय के कैनवास में उतारने के लिए कोशिश नहीं की जानी चाहिए। ताकि क्षेत्रीय भविष्य अपना अतीत ढूंढे तो उसे इस माध्यम से निहारने का सुयोग मिल सके, और शायद अतीत पर गर्व करने और उससे सीखने का मौका भी।

राज्य में है रायपुर शहर से लगभग 20 किलोमीटर दूर पुरखौती मुक्तांगन में एक मुक्ताकाश संग्रहालय का विकास किया जा रहा है । एक स्थायी प्रदर्शनी ,आमचो बस्तर के नाम से यहां पर पिछले 2 साल से अधिक समय से संयोजित है, और एक अन्य ऐसी ही प्रदर्शनी, सरगुजा प्रखंड के नाम से और विकसित की जा रही है। जब से आमचो बस्तर की शुरुआत हुई है तब से शहर से 20 किलोमीटर दूर स्थित इस संग्रहालय को देखने के लिए हर वर्ष लगभग 3 लाख लोग आते हैं। अर्थात प्रतिदिन औसतन एक हज़ार जो समाचार पत्रों के हिसाब से विशेष दिनों में 10 से 30 हजार तक हो जाते हैं । क्या रायपुर के बाहर के लोगों को ऐसे संग्रहालय देखने का अधिकार नहीं है, तो फिर क्यों इस दिशा में उचित कार्यवाही नही हो रही है। कोई 2 या 3 साल पहले अखबारों में ख़बर आया था कि भारत सरकार जगदलपुर में एक केंद्रीय जनजाति संग्रहालय की स्थापना कर रही है, अपेक्षा है इसकी पूर्णता राज्य के संग्रहालय परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण योगदान देगा।रायपुर में एक जनजाति संग्रहालय की स्थापना भी की जा रही है।राज्यावासियों को इसकी पूर्णता एवम लोकार्पण की प्रतीक्षा रहेगी ।सरकार के साथ ही राज्य के औद्योगिक और व्यावसयिक समूहों और उपक्रमों को भी संग्रहालय विकास हेतु अपना योगदान दिया जाना चाहिए।छत्तीसगढ़ में जीव और वनस्पतियों की रोचक विशिष्टता और भरमार है, क्या इस बात की कोशिश न की जाए कि राज्य में कम से कम एक प्राकृतिक विज्ञान संग्रहालय की स्थापना की जाए जो यहां की जैव विविधता को दर्शा सके, अपने दर्शकों को इसका ज्ञान संचार कर सके। कोयला के प्रचुर भंडार को पृष्ठभूमि में लेकर क्या कोल इंडिया राज्य में किसी एक स्थान पर कोयला संग्रहालय की स्थापना नहीं कर सकती। एलमुनियम बनाने वाला सबसे बड़ा उद्योग छत्तीसगढ़ के कोरबा में स्थित है, क्या यहां पर एक एलमुनियम संग्रहालय बनाने के बारे में कोशिश नहीं की जा सकती ।लगभग 70 साल पुराने भिलाई इस्पात संयंत्र को आधुनिक भारत के एक तीर्थ के रूप में पहचाना जाता है ,क्या भिलाई में लोहा जो मानव द्वारा खोजा और उपयोग में लाया गया पहला धातु है, और जिस लोहे ने मानव जाति की तकदीर बदल दी, उस लोहे को विषय बना कर एक आयरन म्यूजियम की स्थापना के बारे में नहीं सोचा जा सकता। ऐसे ही क्या एनएमडीसी एक खनिज संग्रहालय की स्थापना नहीं कर सकती। यदि सोच हो और इच्छा शक्ति हो तो यह सब संभव है। इस सब के लिए आवश्यक है सभी कर्ताधर्ता लोगों के मस्तिष्क में इस तरह के विचार के जन्मने की। प्रकृति, मनुष्य और संस्कृति का विविध रूपों में दोहन करने वाले मनुष्यों के उस वर्ग को ,कुछ करने की स्थिति में हैं , इन सब की निशानी के रुप में, इनकी प्रशसा के रूप में, और इनसे कुछ सीखने-सिखाने के लिये इन्हें सहेजने और परिवर्तनशील युग मे संग्रहालयों के माध्यम से संरक्षित करने हेतु कदम उठाने की अपेक्षा है।

इस संदर्भ में कुछ और बातें जो ध्यान देने के लायक हैं उसका जिक्र किया जाना आवश्यक है। उस में सर्वप्रथम तो यह है कि राज्य के पुरातत्व विभाग ने कई क्षेत्रों में पुरातात्विक उत्खनन के कार्य किए हुए हैं इसलिए यह बहुत उत्तम होगा कि वहां प्राप्त उत्खनन अवशेषों को विशेष रूप से संयोजित कर स्थल संग्रहालयों की स्थापना की जाए ।भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से भी यही बात अपेक्षित है ।एक विशेष संग्रहालय जनजातीय और लोक कला पर भी यथासंभव स्थापित करने की कोशिश की जाना चाहिए। इसके लिए बेहतर होगा कि इस दिशा में प्रयास किया जाए कि स्वर्गीय श्री निरंजन महावर जिन्होंने लगभग 5 दशक तक क्षेत्रकार्य के द्वारा छत्तीसगढ़ और पड़ोसी राज्य के जनजातियों और लोक समाजों के लगभग तीन से चार हजार कला रूप से एकत्रित किए हुए हैं। उन्हें एक संग्रहालय के रूप में संयोजित करने का प्रयास किया जाए ।महावर जी छत्तीसगढ़ के लोक और जनजातीय संस्कृति के एक समर्पित अध्येता रहे हैं। उन्होंने जो कला रूप संकलित किए हुए हैं उन्हें और किसी के द्वारा अब संकलित किया जा सकना कदापि संभव नहीं है, क्योंकि न तो अब उनके बनाने वाले रहे और ना ही उनमें से अधिकतर चीजें अब प्रचलन में हैं । महावर जी का नाता धमतरी से भी रहा है इसलिए उस शहर को महावर जी के नाम से इस संग्रहालय का उपहार दिया जा सकता है।छत्तीसगढ़ राज्य ने अपने संग्रहालय आंदोलन में तीन साल पहले एक नए अध्याय को जोड़ा, अपने परिसर में छतीसगढ़ी खानपान को लेकर जिसके लिए उसने गढ़कलेवा नामक ,केवल परम्परिक छत्तीसगढ़ी व्यनजनो के आस्वाद केंद्र की स्थापना की। आज यह स्थल रायपुर के सबसे लोकप्रिय खानपान स्थलों में प्रमुख हैं।इसकी स्थापना से संग्रहालय आने वाले दर्शकों की संख्या में लगभग दस गुना वृध्दि हुई है।क्षेत्रीय संस्कृति के इस पक्ष पर संभवतः देश मे ऐसा चिंतन और कार्यवाही करने वाला पहला संग्रहालय है।और यह अति प्रसंसनीय शुरुआत है जिसके लिए बधाई।इसकी महत्ता ने राज्य सरकार की इतना प्रभावित किया है कि राज्य शासन ने हर जिले मे इसकी स्थापना का संकल्प कई बार दोहराया ।

अरुणाचल प्रदेश देश के उत्तर पूर्व में स्थित एक छोटा सा राज्य है जहाँ आज से 50 साल पहले सभी जिलों में संग्रहालयों की स्थापना की जा चुकी थी।इसलिए छत्तीसगढ़ राज्य को भी इस दिशा में कार्यवाही किये जाने की अपेक्षा है जिसके लिए राज्य सरकार सबसे पहले तो संग्रहालयों से संबंधित राज्य के संस्कृति विभाग के सालाना बजट में वृद्धि करे।इस साल अर्थात 2019-20 में संस्कृति विभाग के लिए जो बजट निर्धारित किया गया है वह राज्य के सम्पूर्ण बजट के हर 100 रुपये में मात्र 2 पैसे के लगभग है जबकि छत्तीसगढ़ के पड़ोसी राज्य मध्यप्रदेश में यह प्रति 100 रुपये 12 पैसे और केंद्र सरकार के मामले में प्रति 100 रुपये 14 पैसे के आसपास है।इसके साथ ही यह बात भी चिंता जनक है कि छत्तीसगढ़ में लगभग सभी विभागों में साल दर साल बजट आबंटन में वृध्दि होती है किंतु बड़े विस्मय की बात है कि इस राज्य में पिछले तीन वर्षों मेंB बजट एलोकेशन कम किया गया है।सरकार इस विश्लेषण पर ध्यान दे और अढाई करोड़ जनसंख्या के इस राज्य में संस्कृति और संग्रहालय के लिए एलोकेशन में बढ़ोतरी करे.

लेखक- अशोक तिवारी, संग्राहलय विशेषज्ञ
( सेवानिवृत्त संग्राहलयकर्मी, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रालय, भोपाल)
पता, डीडी नगर, रायपुर, छत्तीसगढ़, मो. 9300788260