Column By- Ashish Tiwari, Resident Editor

‘जो लेता है, वो नेता है’

नेता को कोई कुछ दे जाए, तो कोई बात नहीं. चंदा कहकर सब रफा-दफा हो जाता है. मगर जबरन डरा धमकाकर लिए जाने को क्या कहा जाए, ‘डकैती’. यही कहना मुनासिब होगा. सरकार अपने वादे पूरे कर अपनी छवि गढ़ रही है, उधर कुछ विधायक ‘डकैती’ कर खुद का नाम रोशन कर रहे हैं. रायपुर के करीब एक जिले की विधानसभा के विधायक सियासत का क, ख, ग, घ पढ़ रहे हैं, लेकिन डकैती का उनका पैतरा बताता है कि इसके कई नुस्खे उन्होंने सीख रखे हैं. पिछले दिनों की बात है, विधायक एक बड़े पोल्ट्री फार्म जा धमके. हाल-चाल पूछने तो गए नहीं थे. सीधे मुद्दे की बात पर आ गए. बड़ी रकम की मांग कर दी. पोल्ट्री फार्म के संचालक ने विधायक को ऊपर से नीचे तक देखा और यह कहकर घुड़की दे दी कि विधानसभा चुनाव में वह उन्हें पर्याप्त चंदा दे चुके हैं. बात यहीं खत्म नहीं हुई. दिल्ली के एक बड़े नेता तक विधायक की शिकायत जा पहुंची. पोल्ट्री फार्म संचालक ने विधायक का कच्चा चिट्ठा खोल दिया. पोल्ट्री फार्म दिल्ली के एक बड़े नेता के करीबी का है. चर्चा है कि बात दिल्ली पहुंचने पर विधायक की विधायकी निकाल दी गई है. पूरी विधानसभा में इसकी चर्चा दौड़ पड़ी है. सिस्टम ने एक सीधे साधे आदमी को नेता बना दिया. नेता नहीं थे, तब बस गुजारा बसर चल रहा था. आज की राजनीति में एक ही कहावत चल रही है. जो लेता है, वो नेता है. विधायक की राजनीति नई-नई है, शायद सोचा होगा कि नेताओं का यह जन्मसिद्ध अधिकार है.

‘दौर-ए-डिप्टी कलेक्टर’

एक दौर था सीएम हाउस से लेकर मंत्रियों के बंगलों तक विभाग के अफसरों का बोलबाला होता था. मुख्यमंत्री और मंत्रियों के पास जो-जो विभाग होते, उन विभागों से जुड़े अफसर ही उनके साथ तैनात किए जाते. अब दौर-ए-डिप्टी कलेक्टर चल रहा है. डिप्टी कलेक्टर वहां भी हैं, जहां विभाग से अफसरों का प्रमोशन हुआ करता था और डिप्टी कलेक्टर वहां भी हैं, जहां प्रतिनियुक्ति पर पुलिस भेजी जाती थी. प्रचलित परंपराओं को रौंदकर गई पिछली व्यवस्था ने डिप्टी कलेक्टरों का कद बढ़ा दिया है. पिछली सरकार की सुपर सीएम खुद इसी बिरादरी से थी. तब डायरेक्ट आरआर पर कंट्रोल के लिए डिप्टी कलेक्टरों की तैनाती धड़ल्ले से की जाती रही. कुछ डिप्टी कलेक्टर तो ऐसे थे, जो सीधे मैडम का फरमान कहकर आला दर्जे के अफसरों को ही आंख दिखा जाते थे. शायद भूल गए थे कि ग्रहण कुछ वक्त के लिए ही लगता है. खैर, नई सरकार ने ऐसे अफसरों को दूर पटक दिया है. बहरहाल मूल बात यह है कि डिप्टी कलेक्टर हैं तो बड़े काम के. आगे चलकर यही आईएएस प्रमोट होते हैं. जमीन पर काम करते-करते गहरी समझ पैदा कर लेते हैं. हुनरमंद भी हैं. नेता-मंत्रियों की जरूरत समझते हैं. इसलिए उनकी पूछपरख बढ़ेगी ही. बहरहाल हर बदली हुई व्यवस्था पिछली व्यवस्था से कुछ ना कुछ ले लेती है. दौर-ए-डिप्टी कलेक्टर, ऐसी ही एक व्यवस्था है. शिकायत किसी को नहीं, सिवाए विभाग के उन अफसरों के, जो अपने हक को छीनता देख रहे हैं.

‘एक किस्सा यह भी’

ठीक ठाक ओहदा मिल जाए, तो नुकसान की भरपाई हो ही जाती है. इस फार्मूले को बिलासपुर संभाग के एक डिप्टी कलेक्टर ने बखूबी समझा था. सरकार बदली ही थी कि हरकत में आ गए. अच्छी पोस्टिंग की दरकार थी, सो चित परिचित लोगों से संपर्क साधने लगे. खुलकर कहते थे कि 60-70 लाख तक का इंतजाम है. दर-दर भटकते रहे. मालूम नहीं कौन सा जुगाड़ चला संभाग में ही ठीक ठाक पोस्टिंग पा ली. बैच मेट जो इस इंतजार में बैठे थे कि पांच बरस का सूखा खत्म होगा. उनके हिस्से सूखा ही रहा. अब जिन-जिन लोगों को कुछ बेहतर नहीं मिला, अपने आप को कोस रहे हैं कि कम से कम उधार लेकर कुछ कर लेते, तो ऐसी नौबत ना आती. अच्छी पोस्टिंग मिलने पर उधार चुका ही दिया जाता. खैर, यह भी हो सकता है कि दर दर भटकने वाले डिप्टी कलेक्टर के सितारे बुलंद रहे हो और बगैर कुछ लिए दिए मनमाफिक पोस्टिंग मिल गई हो. मगर बैचमेट हैं कि यह मानने को तैयार नहीं.

‘ठन गई’

विधानसभा सचिवालय से उच्च शिक्षा विभाग को भेजी गई एक शिकायती चिट्ठी यही कह रही है कि ‘ठन गई’. दरअसल हुआ कुछ यूं कि राज्य के विश्वविद्यालयों में कार्यपरिषद के लिए विधायकों का नाम नामांकित किया जाना था. उच्च शिक्षा मंत्री ने विश्वविद्यालय के करीब वाली विधानसभाओं के विधायकों को सदस्य बनाने के प्रस्ताव पर मुहर लगाई. सचिव ने भी उन नामों को विधानसभा सचिवालय भेज दिया. सचिव को भेजे गए इस प्रस्ताव पर ही मुद्दा गरमा गया है. सचिवालय का कहना है कि यह स्पीकर के कार्यक्षेत्र में दखल देने का मामला है. विश्वविद्यालयों की कार्यपरिषद में होने वाली नियुक्ति, स्पीकर सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेताओं की सहमति के बाद करते हैं. मगर उच्च शिक्षा विभाग सीधे नाम भेज रहा है. खबर है कि विधानसभा ने भी उच्च शिक्षा विभाग को चिट्ठी लिखकर ऐतराज जताया है. अब ये ताजा तरीन बवाल कहां जाकर खत्म होगा फिलहाल मालूम नहीं. उच्च शिक्षा मंत्री चुनाव लड़ रहे हैं. मुमकिन है कि नतीजों के बाद हालात कुछ बदले नजर आ सकते हैं.

‘अबकी बार…’

भाजपा ने चौतरफा बैटिंग की है. दूसरे दलों के नेताओं को ढूंढ ढूंढ कर भगवा गमछा पहनाया. क्या कांग्रेस, क्या आम आदमी पार्टी और क्या बसपा. कोई पार्टी नहीं छूटी. कल तक पानी पी पी कर कोसने वाले नेता आज मुंह में चाशनी लिए भाजपा की तारीफ कर रहे हैं और खुद पर हुई ज्यादती का राग अलापते हुए पिछले दल के नेताओं को खुल कर गरिया रहे हैं. जाहिर है नेताओं ने गाली खाने का काम किया होगा. खैर, राजनीति की डिक्शनरी में ये नेता दल बदलू कहलाते हैं. चुनाव के वक्त इन नेताओं का ख्याल दूल्हे की तरह रखा जाता है. चुनाव बाद बेचारे हो जाते हैं. नंदकुमार साय सरीखे बड़े कद के नेता इसका उदाहरण हैं. अपनी विचारधारा बदलकर दूसरी पार्टी में शामिल होने वाला नेता हर वक्त शक के कटघरे में खड़ा रहता है. जिस पार्टी में ये नेता शामिल होते हैं, उस पार्टी के कार्यकर्ताओं की छाती पर सांप लोट जाना सामान्य है. खून पसीना बहाने और विपक्ष में रहकर आंदोलनों में लाठियां खाने वाले कार्यकर्ता और नेता सत्ता में आने के बाद अपनी पार्टी से खुद को मिलने वाली इज्जत दूसरे दलों से आने वाले नेताओं को मिलती देख खून के आंसू रो पड़ते हैं. बस एक ही बात इन कार्यकर्ताओं को साहस से भर देती है कि चाय बेचने वाला भी प्रधानमंत्री बन सकता है. जवानी से गुजर कर अधेड़ उम्र की दहलीज पर खड़ा कार्यकर्ता हाथ में फिर से झंडा उठाकर कहता है, अबकी बार 400 पार.