Column By- Ashish Tiwari , Resident Editor

कांग्रेस बनाम शाह

अमूमन मोदी-शाह की जोड़ी की दिलचस्पी उन राज्यों के विधानसभा चुनावों पर ज्यादा दिखती रही है, जहां लोकसभा की सीटें ज्यादा होती हैं. छत्तीसगढ़ में लोकसभा की महज 11 सीटें हैं. ऊंट के मुंह में जीरा बराबर. वहीं मध्यप्रदेश में 29 और राजस्थान में 25 लोकसभा की सीटें हैं. मध्य प्रदेश में बीजेपी की सरकार है. मगर राजस्थान की 25 लोकसभा सीटों वाले राज्य को छोड़कर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की छत्तीसगढ़ को लेकर बढ़ी दिलचस्पी की वजह क्या है? छत्तीसगढ़ में बीते दो महीने में अमित शाह के कुल चार दौरे हुए हैं. इनमें से तीन दौरे चुनावी रणनीति के लिहाज से बेहद अहम रहे. कुछ चुनिंदा नेताओं के साथ बैठकर शाह ने रणनीति बनाई. इन बैठकों से उन नेताओं को दूर ही रखा गया, जो इससे पहले हुए लगभग सभी चुनावों में मुख्य भूमिका में दिखते रहे हैं. शाह के साथ बैठने वाले स्थानीय नेताओं में डॉक्टर रमन सिंह, अरुण साव, नारायण चंदेल के अलावा ओ पी चौधरी, केदार कश्यप और विजय शर्मा शामिल रहे. दिल्ली में हुई केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक में भी इन्हीं नेताओं का बोलबाला रहा. दोबारा लौटते हैं, उस अहम सवाल पर कि शाह की दिलचस्पी छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा क्यों है? संसदीय प्रवास कार्यक्रम के लिए जब सांसदों को देश के किसी एक संसदीय सीट को चुनना था, तब शाह ने कोरबा को चुना था. कोरबा को चुनने के पीछे की जो दलील सामने आई थी, उसके पीछे कई बड़ी वजह बताई गई. कोल प्रोडक्शन बढ़ाना, गेवरा रोड से पेंड्रा तक की रेल लाइन के रुके प्रोजेक्ट को गति देना, भारतमाला प्रोजेक्ट के तहत बनने वाले कॉरिडोर के काम में तेजी लाना आदि. लेमरू प्रोजेक्ट हो या हसदेव का मुद्दा ये दोनों मसले कोरबा जिले से ही जुड़े थे. ऐसे में यह सवाल उठता है कि शाह की दिलचस्पी की वजह कहीं इसके इर्द गिर्द तो नहीं ? सवाल यह भी है कि विधानसभा चुनाव कांग्रेस बनाम भाजपा होगा या फिर कांग्रेस बनाम शाह (…). कोष्टक के इन तीन बिंदुओं में आप एक और नाम जोड़ सकते हैं….

संतुष्टि का भाव

पूर्व मंत्री अजय चंद्राकर को अमित शाह की सार्वजनिक घुड़की मिल चुकी है. राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते जब शाह एक दफे बीजेपी प्रदेश कार्यालय आए थे, तब इस घुड़की की तस्वीरों को सबने देखा था. अब भूपेश सरकार के खिलाफ आरोप पत्र बनाकर अजय चंद्राकर ने शाह की तारीफ पाई है. चंद्राकर आरोप पत्र बनाने वाले समिति के संयोजक थे. आरोप पत्र जारी करते वक्त अजय चंद्राकर ने इसकी रूपरेखा प्रस्तुत की. अपनी वाकपटुता के लिए पहचाने जाने वाले चंद्राकर जैसे ही रूपरेखा प्रस्तुत करने आए, तब अपने भाषण में थोड़े हड़बड़ाते दिखे. अमित शाह अपने व्यवहार से कम अपनी आंखों से नेताओं को ज्यादा डराते है. शायद शाह की आंखें इसकी वजह हो. खैर, जब अजय चंद्राकर अपने अंदाज में लौटे ही थे, तब पीछे से बृजमोहन अग्रवाल और प्रेमप्रकाश पांडेय ने उनके पैर में चुटकी काटते हुए इशारा किया. यह इशारा बता रहा था कि ‘भाई कम बोलने में ही भलाई है’. चंद्राकर ने अपनी बात वहीं समेट दी. जब अमित शाह के बोलने की पारी आई, तब उन्होंने अपने भाषण में चार दफे ‘हमारे चंद्राकर जी’ कहकर संबोधित किया. अजय चंद्राकर के चेहरे पर संतुष्टि का ऐसा भाव कम ही देखने को मिलता है.

घमासान

कांग्रेस उम्मीदवारों की पहली सूची इस हफ्ते जारी होगी. एक-एक सीट से कई-कई नेताओं ने दावेदारी ठोकी है. बीजेपी की 21 नामों की पहली सूची आने के बाद कयास लगाए जा रहे हैं कि कांग्रेस बड़ी संख्या में मौजूदा विधायकों की टिकट बेरहमी से काट देगी. इन कयासों के बीच कुछ मौजूदा विधायकों की टिप्पणी भी सुनी गई. सरकार के गुड बुक में रहने वाले एक विधायक ने दो पैग लगाने के बाद कहा, डंके की चोट पर टिकट लेकर आऊंगा. अब किस डंके की चोट पर ये सज्जन टिकट लाएंगे यही जाने. हकीकत यह है कि सभी सर्वे में विधायक महोदय बुरी तरह चुनाव हारते दिख रहे हैं. उनके पांच साल आसमानी रहे, जमीन पर होते तो हकीकत से रूबरू होते. वैसे विधायक यह कहते सुने गए हैं कि टिकट ना मिलने की स्थिति में निर्दलीय मैदान में कूद जाएंगे. ये ऐसे इकलौते विधायक तो है नहीं, कई विधायक इन दिनों ऐसा विचार रखते और व्यक्त करते दिखाई पड़ रहे हैं. विधायकों ने खाने-कमाने में कोई कमी की नहीं. जोड़ा खूब है, अब चुनाव लड़कर लुटाने की बारी आई है.

नप सकते हैं कलेक्टर-एसपी !

पिछले दिनों चुनाव आयोग छत्तीसगढ़ में था. आयोग ने कलेक्टर-एसपी की जमकर क्लास ली. राजनांदगांव कलेक्टर-एसपी को खूब डांट पिलाई. बाकी बच गए ऐसा भी नहीं था. डांट एक को पड़ती, संदेश सब में बंट जाता. कांकेर कलेक्टर डॉ.प्रियंका शुक्ला इकलौती थी, जिन्होंने अफसरशाही की थोड़ी लाज बचा ली थी. खैर, आयोग से मिले इनपुट कहते हैं कि आचार संहिता लगते-लगते आधा दर्जन जिलों के कलेक्टर-एसपी में बड़ा बदलाव हो सकता है. कलेक्टरों और एसपी के कामकाज को ईडी के जांच से जोड़कर देखना भी मुनासिब होगा. खबर है कि ऐसे अफसर जो ईडी की पूछताछ के दायरे में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढंग से शामिल हैं, उनकी सूची बनाई गई है. अब आयोग के निर्देश पर कोई तबादला सूची आ जाए, तो बड़ी बात नहीं. वैसे सियासी हलकों में यह भी सुना गया है कि बीजेपी दिल्ली में जोर लगा रही है कि कुछ प्रमुख जिलों के कलेक्टर-एसपी को बदलकर उनके अनुरूप काम करने वाले अफसरों को तैनात कर दिया जाए. मंत्रालय-पीएचक्यू स्तर के अफसरों को लेकर भी यही दबाव बनाने की चर्चा है. पिछले दिनों आयोग को बीजेपी ने कई अफसरों की सूची सौंपी थी. जिसमें यह आरोप लगाया गया था कि अफसर कांग्रेस के एजेंट के रूप में काम कर रहे हैं.

‘बूटों की खनक’

राजधानी पुलिस के बूटों में अब वह खनक नहीं रही, जो अपराधियों में खौफ पैदा कर सके. काश मंदिर हसौद इलाके में दो सगी बहनों से सामूहिक दुष्कर्म की घटना ने खाकी को झंझोरा होता. काश नागरिक सुरक्षा का बीड़ा उठाने वाली राजधानी पुलिस अपराधियों में यह खौफ पैदा कर पाती कि सड़कों से गुजरने वाली लड़कियों में डर की बजाए साहस भर जाता. काश कोटा इलाके से गुजरते बाप-बेटे चाकू की नोक पर लूट का शिकार ना होते. काश नशे के सौदागरों से पुलिस का सौदा ना होता….ना जाने ऐसे कितने ‘काश’ हो सकते हैं. इस बीच सबसे बड़ा सवाल है कि आखिर पुलिस है कहां? क्या जुएं का फड़ चलाने वालों से हफ्ता वसूली में? क्या सटोरियों को संरक्षण देने में? क्या गली-गली गांजा बेचने वाले अपराधियों से गलबहियां करने में? या फिर भू माफियाओं से गठजोड़ कर जमीन का दलाल बनने में? कहां व्यस्त है राजधानी पुलिस? सभ्य नागरिक समाज तो बस यही उम्मीद कर सकता है कि खाकी का खौफ अपराधियों में ऐसा बैठ जाए कि अपराधी अपराध करने से सिहर उठे. इस वक्त चौराहे पर लोग बस यही पूछते हैं कि कहां गुम हो गई राजधानी पुलिस की ‘बूटों की वो खनक’…

सिर मुड़ाते ही ओले पड़े..

खबर सुर्खियों में है. एक विश्वविद्यालय में कुलपति बनने के खेल की कलई खुल गई है. एक प्रभावशाली गुट की सिफारिश पर दिल्ली के एक व्यापारी ने एक विश्वविद्यालय में एक शख्स को कुलपति बनवाने दो करोड़ रूपए खर्च कर दिए थे. दो करोड़ में से करीब 80 लाख रूपए एक आईएएस अफसर की जेब में गया और बाकी इधर-उधर. जाहिर है व्यापारी की उम्मीद रही होगी कि इस मार्फत व्यापार में तरक्की होगी. विश्वविद्यालय में करीब 70 करोड़ रुपए के सिविल वर्क के ठेके पर व्यापारी की नजर थी. मगर वह भी हाथ नहीं लगा. तरक्की होना तो दूर बीते एक साल से व्यापारी भटक रहा है कि कम से कम उसके पैसे उसे लौटा दिए जाएं. कुलपित और अफसर ने मुंह फेर लिया है. कुलपति संघ बैकग्राउंड से था, जाहिर है सरकार का हाथ उस व्यापारी के कंधे के साथ भी ना होगा. शायद ऐसे लोगों के लिए एक कहावत गढ़ी गई है, सिर मुड़ाते ही ओले पड़े…..

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