विक्रम मिश्र, लखनऊ। उत्तर प्रदेश की सियासत में बसपा के वोट बैंक की एक अहम जिम्मेदारी है। जबकि इस वोट बैंक पर कभी बसपा का ही राज था लेकिन, समय के साथ बसपा का कद घट गया और वोट बैंक इधर उधर बट गया। ऐसे में मायावती को फिर पुराने सहयोगियों की याद आने लगी है, उनको जोड़ने की कवायद तेज होने की उम्मीद है।

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सपा के साथ गठबंधन से थी उम्मीद

2019 का लोकसभा चुनाव तो आप सबको याद ही होगा, जिसमें दो धुर विरोधी और अलग-अलग वैचारिक पृष्टभूमि वाली दो पार्टियां एक मंच पर चुनाव का बिगुल फूंक रही थी। सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने बसपा सुप्रीमो को वाजिब सीट भी दिया था लेकिन ये गठबन्धन कुछ कमाल नहीं कर सका। जिसके तुरंत बाद मायावती ने गठबन्धन खत्म करने का दावा पेश किया और चुनावी बिसात पर अब अकेले ही खड़ी है।

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जो अपने थे वही कर रहे कमजोर

2019 के लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद गठबंधन खत्म होने पर बसपा के तमाम नेताओ पर अनुशासनात्मक कार्रवाई हुई। वहीं बहुतों ने पार्टी का दामन छोड़ दिया और किसी और के पाले में जा बैठे। ब्रजेश पाठक कभी बसपा के मजबूत सिपाही थे आज भाजपा में उपमुख्यमंत्री है। बाबूसिंह कुशवाहा बसपा सुप्रीमो के बेहद खास और NRHM कांड के अभियुक्त रह चुके है आज समाजवादी पार्टी के सांसद है। लालजी वर्मा, रामअचल राजभर, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, नकुल दुबे, लालजी गौतम, इंद्रजीत सरोज, स्वामी प्रसाद मौर्य सरीखे 100 से ज़्यादा बड़े नेताओं ने पार्टी छोड़ी थी। इनमें से एक नाम सबसे ज्यादा बसपा के लिए परेशानी का सबब बना हुआ है वो है सुनील चित्तौड़ का नाम है, जो आज चंद्रशेखर की पार्टी आज़ाद समाज पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष है।