दिल्ली हाईकोर्ट(Delhi HighCourt) ने सरकार को निर्देश दिया है कि वह पोस्टमार्टम (post-mortem) के बाद सैंपल को फॉरेंसिक साइंस लैब भेजने की प्रक्रिया को नियमों के अनुसार निर्धारित करने के लिए दिशा-निर्देश तैयार करे. कोर्ट ने यह भी कहा कि अनावश्यक और चिकित्सा दृष्टि से गैरजरूरी रेफरल FSL प्रणाली पर अत्यधिक दबाव डाल रहे हैं, जिससे आपराधिक जांच की प्रक्रिया में देरी हो रही है.

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दिल्ली हाईकोर्ट ने 3 महीने का समय दिया

हाईकोर्ट ने मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज में फॉरेंसिक मेडिसिन में एमडी कर रहे डॉ. सुभाष विजयन की याचिका पर सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की. कोर्ट ने इस मामले पर निर्णय लेने के लिए संबंधित अधिकारियों को तीन महीने का समय दिया है.

डॉ. विजयन ने कोर्ट में दायर याचिका में यह आरोप लगाया है कि जैविक नमूनों को फॉरेंसिक जांच के लिए बिना उचित विवेक के भेजा जा रहा है. उन्होंने यह भी बताया कि कई मामलों में न तो चिकित्सा प्रमाण होते हैं और न ही कानूनी आवश्यकता, जिससे इस प्रक्रिया की वैधता पर सवाल उठता है.

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याचिकाकर्ता ने क्या बताया?

याचिकाकर्ता ने बताया कि कई चिकित्सक यह मानकर सैंपल भेजते हैं कि भविष्य में यदि कोई कानूनी मुद्दा उठता है, तो वे सुरक्षित रहेंगे, भले ही मामला पूरी तरह स्पष्ट हो और उसमें किसी प्रकार की साजिश की संभावना न हो.

डॉ. विजयन ने याचिका में उल्लेख किया कि चिकित्सकों के बीच डर और सतर्कता की भावना उन्हें हर मामले में सैंपल भेजने के लिए मजबूर कर रही है. जबकि कई बार पुलिस यह स्पष्ट कर देती है कि लैब जांच की आवश्यकता नहीं है, फिर भी डॉक्टर इस प्रक्रिया का पालन करते हैं.

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कानूनी प्रक्रिया से बचने के लिए हर केस में नमूने भेज देते हैं

दिल्ली हाईकोर्ट में दायर याचिका में याचिकाकर्ता ने उल्लेख किया है कि देश के अधिकांश चिकित्सक कानूनी प्रक्रियाओं से भयभीत रहते हैं. संभावित कानूनी समस्याओं से बचने के लिए, वे हर मामले में नमूने भेजने की आदत बना लेते हैं, जिससे फॉरेंसिक लैब पर अनावश्यक दबाव पड़ता है. याचिका में यह भी कहा गया है कि इस प्रथा के कारण पहले से ही सीमित क्षमता वाली फॉरेंसिक लैब पर अतिरिक्त बोझ बढ़ रहा है, जिससे अंतिम पोस्टमार्टम रिपोर्ट में देरी होती है और मृतकों के परिजनों को मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता है.