दिल्ली हाईकोर्ट (Delhi Highcourt)ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया है कि कोई भी व्यक्ति अपने लिव-इन पार्टनर(liv-in Partener) और उसके बच्चों के खर्च के बहाने अपनी कानूनी पत्नी को गुजाराभत्ता देने से नहीं बच सकता. न्यायमूर्ति नवीन चावला और न्यायमूर्ति रेनू भटनागर की बेंच ने एक दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर को निर्देश दिया है कि वह अपनी पत्नी को निचली अदालत द्वारा निर्धारित गुजाराभत्ता की राशि का भुगतान करें. इस निर्णय के अनुसार, प्रोफेसर को पिछले छह वर्षों का गुजाराभत्ता अपनी पत्नी को चुकाना होगा.

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प्रोफेसर ने इस मामले में यह तर्क दिया कि वह लगभग 62 हजार रुपये प्रति माह अपनी लिव-इन पार्टनर और उसके तीन बच्चों के भरण-पोषण पर खर्च करता है, जिससे उसकी आर्थिक स्थिति पत्नी के बकाया गुजाराभत्ते का भुगतान करने के लिए सक्षम नहीं है. न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि कानूनी पत्नी का अपना एक विशेष स्थान है. हालांकि लिव-इन पार्टनर और उनके बच्चों की जिम्मेदारी भी उसके ऊपर है, लेकिन कानूनी पत्नी की प्राथमिकता अधिक महत्वपूर्ण है.

बेंच ने इस मामले में आश्चर्य व्यक्त किया कि प्रोफेसर पति, जो अपनी पत्नी को बकाया गुजाराभत्ता देने से बच रहे हैं, ने अदालत में अपने हलफनामे में मासिक आय 1 लाख 30 हजार रुपये बताई है. वहीं, उन्होंने अपने मासिक खर्च को होम लोन की किस्तों और अन्य खर्चों को मिलाकर 1 लाख 75 हजार रुपये बताया है. बेंच ने यह भी कहा कि ऐसे हालात में 45 हजार रुपये की व्यवस्था के बारे में हलफनामे में कोई उल्लेख नहीं किया गया है.

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योग्य होने और वास्तविक आय में है अंतर

पति ने यह दावा किया कि उसकी पत्नी स्वयं कमाकर जीवन यापन करने में सक्षम है. इस पर न्यायालय ने स्पष्ट किया कि कानून में योग्य होने और वास्तविक आय के बीच भिन्नता है. वर्तमान में पत्नी के पास आय का कोई स्रोत नहीं है, इसलिए वह पति से गुजारा भत्ता मांगने का अधिकार रखती है. इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.

बेंच ने निचली अदालत के निर्णय को बरकरार रखा है. प्रोफेसर पति को निर्देश दिया गया है कि वह मार्च 2019 से जून 2024 तक प्रति माह पांच हजार रुपये और जुलाई 2024 से अब तक प्रति माह दस हजार रुपये की दर से अपनी पत्नी को गुजारा भत्ता का भुगतान करेगा.