Column By- Ashish Tiwari, Resident Editor Contact no : 9425525128

डर काहे का 

कुर्सी की पेटी बांध लीजिए. साय सरकार सूबे के प्रशासनिक अमले को नया नेतृत्व देने जा रही है. महीने भर से पूरा सिस्टम कयासों की बुनाई कर रहा था. इतने समीकरण बुन लिए गए कि सीएम सचिवालय भी सोचता होगा कि बात इतनी मामूली सी थी, लेकिन किस्म-किस्म की चर्चाओं ने इसे खास बना दिया. खैर, भला यह कौन मान सकता है कि सीएम सचिवालय को यह बात मालूम न हो कि नया मुख्य सचिव कौन बनने जा रहा है? सीएम सचिवालय भी यह सोचकर मजा ले रहा है कि देखते हैं कि नए मुख्य सचिव की ताजपोशी के पहले चर्चाएं कैसी-कैसी होती हैं? सीएम सचिवालय ने तय किया था कि हम तो क्रिकेट के उस रोमांचक मुकाबले की तरह नतीजे देंगे, जिसमें एक बाल रहते हुए छह रन की जरूरत हो और आखिरी बाल में छक्का मारकर मैच जीत लिया जाए. खैर, मुख्य सचिव की दौड़ में शामिल अफसरों के नाम देख लीजिए. रेणु पिल्ले, सुब्रत साहू, अमित अग्रवाल, निधि छिब्बर, विकासशील, ऋचा शर्मा और मनोज पिंगुआ. न जाने ये नाम कितनी बार सुर्खियों में आए होंगे, नौकरशाही के भीतर इन नामों को न जाने कितनी बार छिन्न-भिन्न किया गया होगा, मगर अब इन सब पर पूर्ण विराम लगने का वक्त आ गया है. महीने की आखिरी तारीख पर रखी गई कैबिनेट बैठक में मौजूदा मुख्य सचिव अमिताभ जैन की विदाई होगी. और नए मुख्य सचिव का स्वागत होगा. छत्तीसगढ़ के प्रशासनिक इतिहास में मुख्य सचिव की नियुक्ति से पहले एक साथ इतने नामों पर चर्चा कभी नहीं हुई थी. बहरहाल, मुद्दे की बात यह है कि राज्य की सरकार को राज्य के निर्णय से चलने की जरूरत है. दिल्ली अगर अफसरों की कुंडली देखकर निर्णय लेने लग जाए, तब यकीन मानिए व्यवस्था में झोल तय है. दिल्ली दूर है और फैसले दूर से नहीं लिए जा सकते. राज्य के फैसले राज्य सरकार की आंखों के सामने बनते-बिगड़ते हालातों पर निर्भर होने चाहिए. सरकार अब पुरानी हो गई है. सरकार नई नहीं रही. अनुभव खुद के पैर पर चलना सीखा देता है. अनुभवी अफसरों की टीम भी अब साथ है, तो फिर डर काहे का? 

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डिसीजन पैरालिसिस

नए मुख्य सचिव के नाम को लेकर इस स्तंभकार ने अफसरों से पूछा कि कम से कम संकेत दे दीजिए कि सरकार आखिर किस नाम पर 90 डिग्री पर सिर हिला रही है. कुछ अफसरों ने हँसकर चुप्पी साध ली. कुछ ने समीकरणों पर बात शुरू कर दी और कुछ चुनिंदा अफ़सर थे, जिन्होंने इस शर्त पर संकेत दे दिया कि इस बात का खुलासा तब तक न किया जाए, जब तक कि नाम का ऐलान न हो. मगर अंत में यह भी जोड़ दिया कि अगर सरकार आखिरी वक्त पर कोई बड़ा फेरबदल कर दे, तो कुछ नहीं कहा जा सकता. भला कौन ऐसा संकेत देता है? लोकतांत्रिक व्यवस्था में नाम के खुलासे पर इतनी निगरानी कौन रखता है? डंके की चोट पर सरकार को खुलासा कर देना चाहिए कि फलाना अधिकारी नया मुख्य सचिव होगा. सरकार का कोई क्या ही उखाड़ लेगा ! सरकार वही है, जिसका निर्णय सटीक और स्पष्ट हो. सरकार का काम मिस्ट्री क्रिएट करना नहीं है. सरकार को डिसीजन पैरालिसिस का शिकार होने से बचना चाहिए. सरकार से जुड़े एक अफसर कहते हैं कि मुख्य सचिव, पूर्णकालिक डीजीपी, मंत्रिमंडल विस्तार ये सब ऐसे रूके हुए फैसले की तरह हैं, जो इस बात की ओर इशारा करते हैं कि मानो सरकार खुद भ्रम की स्थिति से गुज़र रही हो. हर कोई टकटकी लगाए सरकार की ओर निहारता बैठा रहता है, मगर सरकार तो सरकार है. बग़ैर किसी ठोस तर्क के हर किसी को इंतज़ार में बिठा रही है. सरकार के हर बड़े फैसले कुछ अदृश्य रुकावट का सामने करते दिखते हैं. सरकार-ए-हुजूर को अब अपनी कुर्सी की ताक़त पर भरोसा करना चाहिए.  

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पीएचक्यू अस्थिर !

राज्य में क़ानून-व्यवस्था है या नहीं ! ये पता नहीं, लेकिन हर किसी को इतना पता है कि पीएचक्यू में पूर्णकालिक डीजीपी नहीं है. पीएचक्यू ही वह पहली इकाई है, जो राज्य पुलिस की अगुवाई करती है. जब तक पीएचक्यू में स्थिरता नहीं आएगी, तब तक पुलिसिंग की स्थिरता पर बात बेमानी ही है. एक अफसर ने कहा कि क्या फर्क पड़ता है? डीजीपी प्रभारी हो या पूर्णकालिक. काम तो चल ही रहा है. एक समझदार अफसर ने इस पर टिप्पणी की और कहा कि फर्क तो पड़ता है. डीजीपी के प्रभारी और पूर्णकालिक होने के बीच उतना ही फर्क है, जितना शेर और मोर्हरम के शेर के बीच का फर्क है. महज ‘प्रभार’ भर से पीएचक्यू चलता नहीं है. सिर्फ रेंगता है. छत्तीसगढ़ का पीएचक्यू रेंग रहा है. डीजीपी के पूर्णकालिक नहीं होने का साइड इफेक्ट भी अब पीएचक्यू में दिखने लगा है. पीएचक्यू में अफसरों का टकराव बढ़ रहा है. दूरियां घिरती जा रही हैं. कुछ अफसर खाली बैठे हैं. कुछ अफसरों के पास काम न के बराबर है, यानी कि वह भी लगभग खाली ही हैं. खाली दिमाग शैतान का घर होता है. महज़ ‘प्रभार’ वाले डीजीपी कितनी व्यवस्थाओं को सुधार पाएंगे? सरकार को चाहिए कि तुरंत उन अफसरों को किसी काम पर लगाया जाए. सरकार के खजाने से जब तनख़्वाह जा ही रही है, तो वह फ़िज़ूल न हो. अगर सरकार के पास उन अफसरों को उलझाए रखने के लिए कोई काम नहीं है, तो एक सुझाव यह है कि उन्हें केरल, तमिलनाडू, महाराष्ट्र, तेलंगाना जैसे राज्यों के सैर सपाटे पर भेज दिया जाए, जहां पुलिसिंग के क्षेत्र में बेहतर रिफार्म किए गए हैं. उन रिफार्म्स पर एक रिपोर्ट बनवाई जाए. सरकार को जब लगे कि राज्य में पुलिसिंग रिफार्म पर सोचने का वक्त आ गया है, तब वह रिपोर्ट सरकार को एक तरह की सहूलियत ही देगी. पीएचक्यू में अस्थिरता के बीच अफ़सर लड़ते-भिड़ते रहें, पंचायत बिठता रहे, तो इसमें नुक़सान सरकार का ही है. बेहतर है अनिर्णय से बाहर आकर एक निर्णय ले लेना ही मुनासिब होगा. 

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गंगा कितनी दूर

पिछले दिनों राज्य के एक बड़े जिले में दिशा समिति की बैठक हुई. दिशा समिति, नाम से ही लगता है कि इस तरह की बैठक में विकास की दिशा तय होती होगी, लेकिन इस बार की बैठक में शामिल एजेंडे की दिशा थोड़ी भटक गई. बैठक दो घंटे की थी, एजेंडा 35 बिंदुओं का था. यानी औसतन हर साढ़े तीन मिनट में एक योजना का हाल पूछा जाना था. अध्यक्षता सांसद कर रहे थे. स्थानीय विधायक भी मौजूद थे. सब बड़े ध्यान से एजेंडा पढ़ रहे थे कि अचानक नमामि गंगे वाला बिंदु आ गया. बैठक में सभी एक-दूसरे का चेहरा देखने लग गए. किसी ने पूछा कि गंगा यहां से कितनी दूर है? दूसरे ने मोबाइल निकाला और गूगल किया और कहा कि लगभग पांच सौ किलोमीटर दूर. तब सांसद ने कहा कि हमारे जिले से गंगा काफी दूर है, फिर भी यहां बह रही है? सवाल उठा कि गंगा का जिक्र इस जिले की बैठक के एजेंडे में कैसे बह निकला? एक विधायक ने चुटकी लेते हुए कहा कि एजेंडा तैयार करने वाले अफसर पर गर्व होना चाहिए. उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि कल्पना शक्ति सीमाओं में नहीं बंधती. एजेंडा बनाने वाले ने शायद Ctrl+C और Ctrl+V के राष्ट्रीय अधिकार का प्रयोग किया होगा. बहरहाल, हद तो तब हो गई जब एजेंडा में ऐसी योजनाओं को भी शामिल किया गया, जिसे बंद हुए अरसा बीत गया था. जिले के कलेक्टर साफ सुथरी छवि वाले हैं. नियम-कायदों के जानकार भी हैं. न जाने इन एजेंडों ने उनकी आंखों को कैसे भ्रम में डाल दिया.

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हाल बेहाल है

पिछले दिनों भाजपा दफ़्तर में विधायकों की एक बड़ी बैठक थी. पार्टी की कार्ययोजना को लेकर यह बैठक बुलाई गई थी. बैठक खत्म ही हुई थी कि एक विधायक मायूस चेहरा लिए बाहर आए. उखड़े-उखड़े से दिख रहे एक विधायक से किसी ने पूछा- भाईसाहब क्या हुआ? उन्होंने चेहरे पर हल्की मुस्कान बिखेरी और कहा कि आओ एक कहानी सुनाता हूं. उन्होंने कहा- अमरनाथ की यात्रा के दौरान श्रीनगर से पहलगाम जाते वक्त एक छोटा पहाड़ दिखता है. लोग कहते हैं कि बस इस पहाड़ को पार करते ही बर्फानी बाबा के दर्शन हो जाएंगे. लोगों का उत्साह थोड़ा बढ़ जाता है. फिर छोटा पहाड़ खत्म होते ही एक दूसरा बड़ा पहाड़ दिखता है. फिर लोग कहते हैं कि बस इस पहाड़ के उस पार अमरनाथ की पवित्र गुफा है. श्रद्धालुओं का उत्साह बना रहे, इसलिए छोटे पहाड़, बड़े पहाड़ की कहानी सुनाई जाती है. भाजपा भी कुछ ऐसी ही है. संगठन का एक कार्यक्रम खत्म नहीं होता, दूसरे की पृष्ठभूमि तैयार रखी जाती है. इस पार्टी में आराम, हराम है. विधायक ने कहा कि कभी-कभी हमें लगता है कि हम किसी कार्पोरेट कंपनी के पेड एम्प्लाई हैं, जिसका टार्गेट कभी खत्म नहीं होता. हम बिना रुके-बिना थके पार्टी का काम करते रहते हैं, तब जाकर चुनाव में 50-55 सीटों तक पहुंचते हैं. वहीं कांग्रेस को देख लीजिए बग़ैर कुछ किए 35-36 सीटें आसानी से पा लेती है. विधायक ने कहा कि यह सब देखकर बड़ी कोफ्त होती है. पार्टी पद देती है, लेकिन सुकून नहीं. कुल मिलाकर ऊपर से नीचे तक का यही हाल है या यूं कहे कि हाल बेहाल है.